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Tuesday, 19 November, 2024
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पाक को सच्चा सबक सिखाना है तो देश के गुस्से को ठीक से संभालिये!

अपने घर को इस तरह संभालकर रखें कि उसमें उन उद्वेलनों के लिए कोई भूमि उर्वर न रह जाये, जिनका लाभ उठाकर पाकिस्तान हमें ‘आतंकवाद का अनचाहा निर्यात’ करता रहता है.

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पुलवामा में हुए अब तक के भीषणतम आत्मघाती आतंकी हमले के वक्त अपने खुफिया तंत्र के साथ सुप्त पड़ी नरेन्द्र मोदी सरकार के समर्थकों की कौन कहे, देश की एकता व अखंडता के मसले पर हर कदम पर उसके साथ खड़े उसके विपक्षी दलों ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वह जवानों के बलिदानों को व्यर्थ न जाने देने के लिए सेना को बदला लेने की खुली छूट देने जैसे इमोशनल अत्याचार वाले एेलानों और बहुप्रचारित ‘आॅपरेशन बालाकोट’ के फौरन बाद अपनी अब तक की सबसे बड़ी असहायता के प्रदर्शन पर उतर आयेगी! साथ ही लोगों को अकबर इलाहाबादी की प्रसिद्ध पंक्ति-रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ-याद दिलाने लगेगी.

विडम्बना देखिये: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक ओर ‘खुद मियां फजीहत दीगरां नसीहत’ की तर्ज पर विपक्षी दलों से बार बार देश की इस मुश्किल घड़ी में सत्ता की स्वार्थी राजनीति न करने को कहते रहे हैं, लेकिन खुद को इस राजनीति से कतई विरत नहीं कर रहे. ‘बदले-बदले’ की अपने भक्तों की रट के बीच पाक स्थित जैश-ए-मोहम्मद के ठिकानों पर एयर स्ट्राइक के पहले और बाद में भी वे लगातार यही जताते रहे हैं कि उनकी पहली चिंता देश की सुरक्षा या अमन-चैन के बजाय हालात का राजनीतिक लाभ उठाकर सत्ता में वापसी सुनिश्चित करना है.


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इसे एक जटिल व लम्बे ऑपरेशन में हमले के मास्टरमाइंड को मार गिराने से लेकर एयर स्ट्राइक तक में सेना द्वारा प्रदर्शित पराक्रम की सारी वाहवाही अपने नाम करने की उनकी कोशिशों में भी देखा जा सकता है: एक ओर विपक्ष राष्ट्रीय एकता व अखंडता के मुद्दे पर एकजुटता का संदेश देने के उद्देश्य से पूरी तरह सरकार के साथ खड़े होने का एेलान कर रहा था और दूसरी ओर प्रधानमंत्री ऐसा प्रदर्शित कर रहे थे जैसे देश की सेना उनकी या उनकी पार्टी की निजी सेना हो.

इससे भी काम नहीं चला तो उन्होंने देशवासियों का ध्यान बंटाने के लिए उन्हें पाक के साथ क्रिकेट खेलने या न खेलने और रावी, व्यास व सतलुज नदियों का पानी रोकने की धमकी जैसे मामलों में उलझाने और मामले को सास-बहू के झगड़े जैसा बना देने की भरपूर कोशिशें कीं.

जब प्रधानमंत्री को पाक द्वारा प्रस्तुत की जा रही चुनौती को किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाने में लगना चाहिए था, वे भाजपा कार्यकर्ताओं से भाजपा के बूथ मजबूत करने का आह्वान कर रहे थे. अगला लोकसभा चुनाव जीतने के फेर में पुलवामा हमले के बाद भी उन्होंने अपनी पार्टी की रैलियां जारी रखीं, जो एयर स्ट्राइक के बाद भी हो रही हैं. इनमें जुटाई गई भीड़ को ‘देश नहीं मिटने दूंगा’ जैसी बेहिस तुकबन्दियां सुनाते हुए वे देश को सुरक्षित हाथों में बता रहे हैं. इस अदा से, जैसे उनके हाथों का सुरक्षित होना ही देश का सुरक्षित होना हो.

इस विडम्बना के सिलसिले में रघुवीर सहाय की ‘आपकी हंसी’ शीर्षक कविता याद आती है: निर्धन जनता का शोषण है, कहकर आप हंसे,

लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे,

सबके सब हैं भ्रष्टाचारी, कहकर आप हंसे,

चारों ओर बड़ी लाचारी, कहकर आप हंसे,

कितने आप सुरक्षित होंगे, मैं सोचने लगा, सहसा मुझे अकेला पा कर, फिर से आप हंसे!

गौरतलब है कि ये वही प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें वायुसेना के पायलट अभिनंदन वर्तमान के पाकिस्तान की कैद में होने के वक्त देश को पांच मिनट के लिए संबोधित करने का भी वक्त नहीं मिला. अभी भी न उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाकर विपक्षी दलों से चर्चा करना गवारा किया है, न जनता के सामने यह सच्चाई रखना कि इस वक्त देश में क्या चल रहा है? उनकी सरकार वाकई पाकिस्तान को घेरना या सबक सिखाना चाहती तो यह कम से कम इतना तो समझती ही कि पाकिस्तान अस्तित्व में आने के समय से ही भारत के कलेजे में लगातार उठती रहने वाली हूक रहा है.

एक तो इस कारण कि 14 अगस्त, 1947 तक वह उसका पड़ोसी देश नहीं, हिस्सा था और धर्माधारित राष्ट्र के रूप में उसका अस्तित्व विभिन्न धर्मों व पंथों के मेल वाली भारतीय उपमहाद्वीप की महान संस्कृति के सीने में खंजर भोंक कर ही संभव हुआ.

दूसरे, अब तक के छोटे से इतिहास में उसके ज्यादातर हुक्मरानों ने खुद को जितना कुटिल उससे सौ गुना जटिल और जितना जटिल उसका सौ गुना कुटिल ही सिद्ध किया है. भारत से कई सीधी भिड़ंतों में मुंह की खाने के बाद आमने-सामने लड़कर पार न पाने की उनकी कुंठा है कि उन्हें कतई चैन नहीं लेने देती-बेकाबू आंतरिक विक्षोभों के सथ सत्ता के अलग-अलग केन्द्रों में बेहिसाब सिर-फुटौवल के जाये. तमाम अंदेशों के बीच कभी आतंकवाद के निर्यात पर उतार लाती है तो कभी घुसपैठ व युद्धविराम के उल्लंघन पर.

यह सरकार इतना समझ जाती तो खुद को इस सवाल के सामने भी करती ही कि क्या पाक की कुटिलता के जवाब में हमें उससे ज्यादा कुटिल हो जाना चाहिये और उसी की तरह शिष्टाचार व सभ्यता का कोई तकाजा नहीं मानना चाहिए? इस प्रश्न पर भी नहीं जाना चाहिए कि कमजोर व अस्थिर पाकिस्तान हमारे हित में होगा या और बड़ा सिरदर्द हो जायेगा? स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में दिये गये इस ‘सिद्धांत’ को भी भूल जाना चाहिए कि आप दोस्त अपनी मर्जी से चुन सकते हैं, लेकिन पड़ोसी जो भी हो, उसी के साथ निभाना पड़ता है?

यह भी कि अच्छा पड़ोसी वही है जो अपने पड़ोसी की दोस्ती को तो ढंग से निबाहे ही, दुश्मनी निभाने का शऊर भी रखे? समझें कि दुश्मनी कितने भी बड़े और कैसे भी युद्ध की ओर ले जाये, जय या पराजय के बाद उसका अंत तो वार्ताओं की मेजों पर ही होता है. भारत व पाकिस्तान के बीच अब तक हुए सारे युद्ध भी इसकी गवाही देते हैं. फिर यह आतंकी हमला क्यों नहीं दे सकता? हम पाक से बात करके उसे खबरदार क्यों नहीं कर सकते कि बहुत हो चुका, अब बाज आ जाना ही उसके हित में है.

संवाद की राह एकदम से बन्द करके तो हम यह काम कर नहीं सकते. हां, अंतरराष्ट्रीय राजनय का एक सिद्धांत यह भी है ही कि निर्बल के कहे को दुनिया में कहीं भी कोई भी कान नहीं देता इसलिए हर संवाद के साथ बल के दर्प को भी जगमगाते रहना चाहिए. दुर्भाग्य से मोदी सरकार यह भी नहीं समझती कि वह इस दर्प को तभी जगमगा सकती है, जब पड़ोसी की ताजा दुश्मनी को ठीक तरह से निभाये-उसे सबक सिखाती हुई खुद भी कुछ सीखे. यों भी, हमारे पास पाक को सबक सिखाने के सिर्फ दो रास्ते हैं.

पहला, उसको बलपूर्वक दुनिया के नक्शे से मिटा दिया जाये और दूसरा भारतीय उपमहाद्वीप में शांति और स्थिरता के हित में अच्छे पड़ोसी की तरह रहना सिखा दिया जाये. पहला रास्ता दोनों परमाणुशक्ति सम्पन्न देशों के विनाश का है और दूसरा साझा निर्माण का. पाकिस्तान के सामने हम कितने भी ताकतवर देश हों, दुनिया की वर्तमान परिस्थितियां हमें पहले रास्ते पर चलने की इजाजत नहीं देंगी और दूसरा सबक सिखाना चाहेंगे तो रोकेंगी नहीं.

सो, इस कठिन समय में हमें खुद से यह भी पूछने की जरूरत है कि हमारा विश्वास ‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ के शार्टकट में है या शठ को हर हाल में अपनी भाव भूमि पर लाने के असीम धैर्य की मांग करने वाले रास्ते में? यह भी कि पाकिस्तान पर चढ़ दौड़ना उसके आंतरिक विक्षोभों को दबाने में उसकी मदद करने जैसा ही नहीं होगा क्या? कुछ लोग कहते हैं कि पाकिस्तान को महज वैसा ही सबक सीखने की आदत है जैसे अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमले के वक्त उसे धमकाकर सिखाया और अपने पक्ष में किया था. यह बात सही हो तो भी इस बात को गांठ बांध रखनी होगी कि उस सबक से अमेरिका को कुछ खास हासिल नहीं हुआ.

कारण वही कि युद्ध या युद्धोन्माद से किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता. 2001 में 13 दिसम्बर को संसद पर आतंकवादी हमले के बाद हमने अपनी सेनाओं को सीमा पर तैनात करने के साथ ही पाकिस्तान से संवाद के सारे रास्ते बन्द कर लिये थे तो हमें ही क्या हासिल हुआ था? उसके बाद के ‘पल में तोला, पल में माशा और पल में रत्ती’ के रवैये से ही क्या मिला? ऐसे में हमें क्यों नहीं समझना चाहिए कि बातचीत हमेशा कमजोरी या आत्मसमर्पण का ही पर्याय नहीं होती.

कई बार उसके पीछे एक बलशाली राष्ट्र का अपनी जड़ों में विश्वास भी चमकता है. अरसा पहले पाकिस्तान के प्रसिद्ध पत्रकार वुसतउल्लाह ने एक ब्लाग पोस्ट में लिखा था- काबुल नदी को छोड़कर पाक में सारी नदियां भारत से ही दाखिल होती हैं. उसकी सबसे लम्बी सीमा भारत से ही मिलती है और उसके नागरिक सबसे ज्यादा भारत ही आते-जाते हैं. वहां सबसे ज्यादा वह उर्दू ही बोली जाती है जो भारत में पैदा हुई थी. वहां के सिनेमाहालों में सबसे ज्यादा भारतीय फिल्में ही दिखाई जाती हैं. जो विदेशी चैनल देखे जाते हैं, उनमें भी भारतीय चैनल पहले स्थान पर हैं.

पाकिस्तानियों की रसोई में जो कुछ पकता है, वही सब आम उत्तर भारतीय भी खाते-पीते हैं. वहां सबसे ज्यादा भारतीय शायर मशहूर हैं. शाहरुख, सलमान, सचिन और मनमोहन को हर पाकिस्तानी जानता है. राहत फतेह अली खान और आतिफ अलसम के बारे में तो पता ही नहीं चलता कि वे भारत के हैं या पाकिस्तान के? अफगानिस्तान, ईरान और चीन भी पाकिस्तान के पड़ोसी हैं, लेकिन वहां पड़ोसी मुल्क सिर्फ भारत को कहा जाता है. वहां जनकवि हबीब जालिब अरसे से अपने शासकों की बेवजह कश्मीरराग की खिल्ली उड़ाने के लिए मशहूर हैं- हंसीं आंखों मधुर गीतों के सुन्दर देश को खोकर, मै हैरां हूं वो जिक्र-ए-वादी-ए-कश्मीर करते हैं!

सवाल है कि इस स्थिति के बावजूद दोनों देशों में क्या बने बात, जहां बात बताये न बने जैसे हालात क्यों हैं? अगर इसका एक अर्थ यह है कि पड़ोसी के साथ ही उसे अपनी भाव-भूमि पर लाने का हमारा संकल्प भी कुछ कमजोर है तो पुलवामा हमले के बहाने जो अंध राष्ट्रवादी व युद्धोन्मादी भावनाएं भड़काई जा रही हैं, वे इस कमजोरी का कुछ ज्यादा ही भोंडा प्रदर्शन नहीं हैं? तब और चारा क्या है? सिवाय इसके कि हम इस कुटिल पड़ोसी से निपटने के लिए कुछ ज्यादा होमवर्क करें. अपने घर को इस तरह संभालकर रखें कि उसमें उन उद्वेलनों के लिए कोई भूमि उर्वर न रह जाये, जिनका लाभ उठाकर पाकिस्तान हमें ‘आतंकवाद का अनचाहा निर्यात’ करता रहता है.

इसके लिए हमें अपनी सीमाओं की ही नहीं, अपनी सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक सुरक्षाओं को भी चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा. आखिरकार हमारे देश में सब ठीक-ठाक रहे, इसका जिम्मा हमारा खुद का है और इसके लिए हम किसी बदनीयत पड़ोसी की सदाशयता पर निर्भर नहीं रह सकते.


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ऐसे में देश के सत्ताधीशों से पूछा ही जाना चाहिए कि उन्होंने पाक को सबक सिखाने की यह सबसे उपयुक्त राह के साथ तमाम धार्मिक व साम्प्रदायिक उद्वेलनों को खुला क्यों छोड़ रखा है? अगर इसलिए कि उनके कुछ लोग कह रहे हैं कि इमरान खान से बातचीत का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उनकी सरकार की जान पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के पिंजरे में बसती है, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए कि किस कूटनीति या राजनय के तहत इमरान सरकार को किनारे करके पाक सेना या आईएसआई को संबोधित किया जा सकता है?

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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