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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतकबूतर पहले नहीं हैं, भारत और पाकिस्तान लंबे समय से हिरण और बंदरों को जासूसी के लिए भेजते रहे हैं

कबूतर पहले नहीं हैं, भारत और पाकिस्तान लंबे समय से हिरण और बंदरों को जासूसी के लिए भेजते रहे हैं

क्या दोनों मुल्कों को टिड्डी में एक आम दुश्मन मिल गया है? क्या टिड्डियां बड़े पैमाने पर तबाही के वो हथियार हैं जिन्हें अब तक छिपाकर रखा गया था? शायद अर्णब गोस्वामी को पता होगा.

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भारत-पाकिस्तानी सीमाएं गर्म हैं और जासूसी कबूतर आख़िरी चीज़ हैं जो वो चाहेंगे. या हिरण या बंदर या टिड्डियां. ये सब एलओसी सियासत को पेचीदा बना देते हैं. उस समय भी जब भारतीय और पाकिस्तानी लीडर्स, आधिकारिक शिखर सम्मेलन के लिए एक दूसरे के देश का दौरा करते हैं, इससे समस्याएं पैदा हो जाती हैं. ज़रा सोचिए कि बिन बुलाए जीव अगर सीमा पार कर जाएं, तो कितनी परेशानी होगी.

लेकिन क्या कभी ऐसा हुआ है कि बिन बुलाए मेहमान, हमारी इजाज़त लेकर आए हों? मुझे तो नहीं लगता. तो फिर क्या झमेला हो गया, अगर एक-दो रंगीन पक्षी बिना वीज़ा के बॉर्डर के पार हो गए? ये कोरोनावायरस संकट के दौरान की तरह नहीं है, जिसमें आप कैसे भी मेहमानों से घिर जाते हैं.

दिल रखिए, अतिथि भगवान का रूप होते हैं

जैसे ही सियालकोट के शक्कर गढ़ से आया, गुलाबी चित्तियों का पाकिस्तानी कबूतर, जम्मू-कश्मीर के कठुआ ज़िले में अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर उतरा, सारे रडार बंद हो गए. लोगों ने कबूतर को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं हुआ. भारतीय अधिकारियों के सामने अब एक बड़ा सवाल ये था कि जासूस होने के अलावा, क्या वो कबूतर एक दहशतगर्द भी था. सभी मुख्यालयों को अलर्ट करने के बाद, कबूतर के शरीर की तलाशी ली गई, ये देखने के लिए कि उसने, कोई बॉडी सूट तो नहीं पहना हुआ था या उसके पिछली तरफ कोई विस्फोटक तो अंदर नहीं छिपा था.

बदक़िस्मती से, कुछ नहीं मिला.

इस सब के बीच पाकिस्तान उच्चायुक्त, इस इंतज़ार में बैठा था कि कबूतर तक काउंसलर एक्सेस की मांग करे, और अगर भारत इनकार करे, तो शायद इस मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय अदालत में ले जाए. या ‘के’ कैदी के लिए संयुग्मन मुलाकात अधिकार चाहते हैं. अफसोस, कि वो नौबत कभी नहीं आई.

जहां तक भारत का सवाल है, वो कबूतर देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा था, इसलिए उसे उड़ा दिया गया. वो कहां गया? कोई नहीं जानता.


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जासूस जो गद्दार बन गया

सच्चाई ये है: जब वो कबूतर भारत की कस्टडी में था, तो उसे पलट दिया गया और अब वो भारत की रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ)के लिए काम कर रहा है जो देश की विदेशी खुफिया एजेंसी है. और कस्टडी के दौरान कबूतर ने खूब गाया. उसने भारत को कुछ नाम दिए. ऐसा नहीं है तो जासूसी के आरोप में, दिल्ली स्थित उच्चायोग से दो पाकिस्तानी अधिकारियों के निष्कासन को क्या कहा जाएगा? कुछ ज़्यादा ही इत्तेफ़ाक़?

अलबत्ता, पाकिस्तान की तरफ से भी मुंहतोड़ जवाब दिया गया- तीन दिन के अंदर दो ड्रोन्स गिरा दिए गए. ये लो भारत! अब जाओ देखो, कि इन पकड़े गए ड्रोन्स के बिना शादियों की वीडियोग्राफी कैसे करोगे.

गुलाबी चित्तियों वाले पाकिस्तानी कबूतर से शुरूआती पूछताछ में पता चला, कि वो उस जासूसी रिंग का हिस्सा था, जिसने भारत में अपना काम 1970 में ‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर ’ के साथ शुरू किया था. परिंदों पर आधारित इस असरदार मैसेजिंग का नतीजा, 1971 में दोनों मित्र देशों के बीच, लड़ाई की सूरत में सामने आया. 1974 में पाकिस्तानी युद्धबंदियों के देश वापस लौटने के समय, इन चालबाज़ों ने 93,000 हंसों को ये कहते हुए विदा कर दिया ‘ओ हंसिनी, ओ मेरी हंसिनी, कहां उड़ चली ‘.

बहुत से लोगों के लिए, ‘कबूतर जा जा जा’ प्रेम पत्र की अदला-बदली थी. लेकिन दरअसल ये एक ऊंची आवाज़ थी, तमाम जासूस कबूतरों के लिए कि वो ठिकानों पर वापस आ जाएं, इससे पहले कि भारत की क्रिकेट टीम, 1989 में पाकिस्तान का दौरा करे. आख़िर किसी को तो अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने वाले, सचिन तेंदुलकर पर नज़र रखनी थी.

स्रोत : ट्विटर

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कारगिल युद्ध के दौरान ख़ामोशी रही, और कबूतरों की जगह अस्ली हथियारों ने ले ली. भारत की ओर से उनमें से कुछ, पाकिस्तान के वजीरे-आज़म के लिए संदेश लाए थे: ‘रवीना टंडन की तरफ से नवाज़ शरीफ के लिए.’ बस यही था. हालात सामान्य होने के बाद ‘पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके’ ने सभी जासूस पक्षियों को एक कर दिया. फिर उनकी एकता का नतीजा 2001 में, भारत-पाकिस्तान सैनिक गतिरोध की शक्ल में सामने आया.

जासूस घर में भरे जानवर

ये सिर्फ परिंदे ही नहीं हैं जो जासूसी स्टेशंस चलाते हैं और वीज़ा की बंदिशों के बगैर भारत और पाकिस्तान आते जाते रहते हैं.

बंदर और हिरण भी हैं जो अकसर सरहद पार कर जाते हैं और दोनों मुल्कों के लिए परेशानी खड़ी कर देते हैं. हम तो कहेंगे कि ये एक अच्छी परेशानी है. 2011 में, भारत का एक बंदर चोलिस्तान में पाया गया था. शुरू में तो उसने स्थानीय लोगों को चकमा दिया लेकिन फिर बंदर को पकड़कर, उसे बहावलपुर चिड़ियाघर में रख दिया गया, और बॉबी  नाम दे दिया गया.

पिछले साल ही, सीमा से लगे कसूर के गाव में, लंगूरों का एक समूह देखा गया था. इन लंगूरों ने, जो सेल्युलर टावर्स और मस्जिदों की मीनारों पर भी चढ़ गए थे, लोगों के उत्साह में इज़ाफ़ा कर दिया. उसने क्या संदेश घर वापस भेजा होगा? ऐसा मुमकिन है कि उन्होंने भारत की 5 अगस्त 2019 की कार्रवाई का रास्ता साफ किया हो.

भारत के हिरण अकसर पाकिस्तान आते रहते हैं- बेशक, बिना कागज़ात के. एक को 2016 में लोकल लोगों ने पकड़कर, पुलिस के हवाले कर दिया था. लेकिन वो बहुत अच्छे से ट्रेनिंग पाया हुआ था, इसलिए उस कैद से निकल गया, जहां उसे रखा गया था. या, क्या उसे कोई ज़मीनी मदद मिली थी? हमें लगता है कि यही मामला रहा होगा. ऐसी और भी मिसालें रहीं हैं जिनमें भारत के हिरण, ज़ुल्मो-सितम से बचने के लिए, भागकर पाकिस्तान चले गए. इसलिए हाल ही में उनमें से 18, सरहद पर बसे गांवों में पहुंच गए.


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टिड्डियां अब शहर में नई दहशतगर्द हैं और भारत-पाकिस्तान दोनों उनसे ख़ौफ़ खाए हुए हैं. कौन जाने टिड्डियां बड़े पैमाने पर तबाही के हथियार हो सकती हैं. वो फसलों को तबाह कर रही हैं और मारने की उनकी महारत उससे बिल्कुल अलग है जो हमने कबूतरों, बंदरों या हिरणों में देखी है. क्या दोनों मुल्कों को टिड्डी में एक आम दुश्मन मिल गया है? राष्ट्रहित में ‘अच्छी टिड्डियां’ और ‘बुरी टिड्डियां’ हो सकती हैं. क्या टिड्डियां बड़े पैमाने पर तबाही के वो हथियार हैं जिन्हें अब तक छिपाकर रखा गया था? शायद अर्णब गोस्वामी को पता होगा.

(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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