नीदरलैंड यूरोप के उत्तर–पश्चिम में बसा एक छोटा सा देश है. भौगोलिक दृष्टि से उसका काफी सारा हिस्सा समुद्र तल से नीचे बसा है जिससे स्वाभाविक रूप से वह बाढ़ की विभीषिका झेलने का अभिशप्त है. जमीन के लिए समुद्र और नीदरलैंड लंबे समय तक लड़ते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों से नीदरलैंड ने ‘रूम फॉर दि रिवर’– कांसेप्ट से दुनिया को रूबरू कराया जिसके तहत नदी या बाढ़ के पानी के रास्ते को पहचान कर उसे समूद्र तक जाने का रास्ता दिया जाता है. अब दुनियाभर के बाढ़ आपदा पीड़ित देशों के नेता ‘रूम फार द रिवर’ कांसेप्ट समझने के लिए नीदरलैंड का दौरा करते रहते हैं. भारतीय राज्यों के कुछ मुख्यमंत्री और मंत्री भी वहां जाकर इसे समझने की कोशिश कर चुके हैं.
अब असम के सिलचर का एक रोचक घटनाक्रम देखिए– सिलचर में माहिस बिल नाम का इलाका है, जिसका मतलब होता झील या गड्डानुमा इलाका. इस निचले इलाके में बराक नदी का प्रकोप था. तो सरकार ने बेतुखांडी तटबंध बना दिया ताकि नदी का पानी शहर में न घुसे. बात तो ठीक लग रही थी लेकिन इस तटबंध के कारण बारिश के पानी को भी नदी तक जाने का रास्ता नहीं मिला. नतीजतन बाढ़ और भी भयानक होने लगी. सालों तक स्थानीय लोग नदी और बारिश के बीच दीवार बने इस तटबंध का उपाय निकालने की मांग करते रहे.
यह भी पढ़ें: वह दिन दूर नहीं जब नदियों और समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता नजर आएगा
पानी भरने पर लोगों ने तटबंध को तोड़ा
जब मई में इस साल की पहली बाढ़ आई तो शहर में पानी भर गया और लोगों ने तंग आकर बेतुखांडी तटबंध को ही तोड़ दिया ताकि पानी नदी में चला जाए इससे तत्काल राहत भी मिली. लेकिन जब एक ही महीने में दूसरी बार तेज बारिश और बाढ़ आई तो तस्वीर बदल गई और इसी टूटे तटबंध से बराक नदी ने कहर बरपा दिया. इस घटना ने असम के मुख्यमंत्री को इस बाढ़ के लिए जनता को जिम्मेदार ठहराने का मौका दे दिया.
महीने भर के भीतर ‘दूसरी बार’ आई बाढ़ की तस्वीर को थोड़ा समझने की जरूरत है. ‘दूसरी बार’ शब्द वास्तव में भारतीय पर्यावरणीय चुनौती का पहला और बेहद चिंताजनक संकेत है और निश्चत रूप से अभी तक जी-7 के ऐजेंडे में जगह नहीं बना पाया है. ‘नदी को रास्ता देना’ यह विचार हमारे जहन में है ही नहीं.
भू-विज्ञान के हिसाब से हिमालय नया पहाड़ है और यू आकार की घाटी वाला असम, हिमालय का भी नया हिस्सा है. नया यानी कच्चा, गाद, मिट्टी और तेज भूमिकटाव वाला हिस्सा. इस यू आकार कि वजह से तिब्बत, भूटान, अरुणाचल और सिक्किम का ढलान पूरी तरह असम की ओर है जिसका मतलब हुआ सैकड़ों छोटी बड़ी जल धाराएं ब्रह्मपुत्र से मिलने के लिए असम की ओर बढ़ती हैं. यानी और भी ज्यादा गाद और भी ज्यादा भूमि कटाव. असम के ज्यादातर इलाकों में मिट्टी बेहद बारीक है जिसकी तासीर कटाव वाली है. यहां आकर तेज ढलान कम हो जाती है, इतना कि स्लोप 2.82 m/km से घटकर 0.1 m/km तक हो जाता है और पानी अपने लिए नए चैनल तलाश कर बड़ी नदी का रूप धर लेता है. ऐसी कई धाराएं मिलकर भयावह हो जाती है.
ऐसे में लगातार बाढ़ का संकेत क्या है. वास्तव में गंगा सहित हिमालयीन नदियों में हर साल बाढ़ आती है, बाढ़ तटबंधों में कमजोर करती है, पीछे से लाई गई गाद को तटों पर फैलाती है और मिट्टी को लगातार काटती है. अब अगले साल आने वाली बाढ़ से ठीक पहले नदी को करीब 10 महीने का समय मिलता है तटों को दुरुस्त करने में. अब इस 10 महीने के समय को यदि घटाकर आठ महीने या छह महीने कर दिया जाए तो तट नई बाढ़ को झेलने लायक नहीं हो पाएगा. कोड़ में खाज यह कि बाढ़ छह आठ महीने तो छोड़िये एक महीने में ही दो बार आ रही है, पिछले कुछ सालों से यह लगातार हो रहा है.
ब्रह्मपुत्र लगातार अपना इलाका बढ़ा रही है
कुल मिलाकर असम की ब्रह्मपुत्र नदी तेजी से बनते समुद्र का शुरुआती चैप्टर है. जो महज पचास – सौ सालों में पूर्वी भारत के एक बड़े हिस्से को लील लेगा. इसका असर दुनिया के सबसे बड़े पर्यवारणीय विस्थापन के रूप में सामने आएगा और काजीरंगा जैसे विशाल जैव विविधता वाले क्षेत्र हमेशा के लिए गायब हो जाएंगे. इस बाढ़ को रूटीन स्टोरी समझने की गलती करने के बजाए पिछले सौ सालों में हुए तीन बड़े सर्वे पर एक नजर डाल लेनी चाहिए जो बताता है कि कैसे ब्रह्मपुत्र नदी अपना इलाका लगातार बढ़ा रही है. पहला सर्वे 1912 से 1928 तक चला था जिसमें ब्रह्मपुत्र का नदी का प्रवाह क्षेत्र 3870 वर्ग किलोमीटर बताया गया, दूसरा सर्वे 1963 से 1975 के बीच चला था जिसमें नदी का इलाका बढ़कर 4850 वर्ग किलोमीटर हो गया और तीसरा सर्वे 2006 से प्रारंभ किया गया जिसमें ब्रह्मपुत्र ने अपना इलाका 6080 वर्ग किलोमीटर कर लिया है. यानी महज सौ सालों में तकरीबन दोगुना.
इसी परिप्रेक्ष्य में एक नजर जी-7 देशों की उस शपथ पर डाल लेनी चाहिए जिसमें बड़े–बड़े पर्चों के माध्यम से कहा गया है कि 2030 तक जैव विविधता नुकसान को रोकेंगे, हरित क्षेत्र बढ़ाएंगे और समुद्र और नदियों में जाने वाले प्रदूषण को रोकेंगे और वन्यजीव की रक्षा करेंगे. पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने जी-7 समिट में दिए अपने भाषण में भारतीय पर्यावरणीय कोशिशों का जिक्र किया है लेकिन वे असम की और देखने से चूक गए. बाकि सेंट्रल वाटर कमीशन का डाटा है जिसकी तरफ वैसे भी कोई देखना नहीं चाहता कि औसतन 26 लाख लोग हर साल असम में बाढ़ से प्रभावित होते है जिसका अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ता है. अभी भी ढाई लाख से ज्यादा लोग राहत शिविरों में है. साठ हजार पालतू जानवर इस बाढ़ में बह गए और जंगली जानवरों का अब तक कोई डाटा सामने नहीं आया है. यह आंकड़े हमारे चेहरे पर कालिख की तरह हैं जो जी-7 के रेड कारपेट से नहीं हटने वाले.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: हर साल की तरह असम में फिर जलप्रलय- क्यों उत्तरपूर्व में बाढ़ की समस्या गंभीर होती जा रही है?