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Thursday, 31 October, 2024
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भारतीय मीडिया से उठ गया है लोगों का भरोसा

इस समूची तस्वीर का एक गंभीर असर यह सामने आ रहा है कि समाज का एक बड़ा तबका अब कथित मुख्यधारा के मीडिया से उम्मीद करना छोड़ चुका है.

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पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के बयालीस जवानों की जान जाने के बाद भारतीय वायुसेना के विमानों के पाकिस्तान के बालाकोट में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का हवाला देते हुए जिस दिन केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद एसएस अहलूवालिया ने कहा कि न तो मोदी ने और न अमित शाह ने कभी कहा कि 300 लोग मारे गए, उसके अगले दिन ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उस हमले में 250 से ज्यादा लोगों के मारे की बात कह दी.

हालांकि वायुसेना या भारत सरकार की ओर से मारे गए लोगों की संख्या को लेकर कोई आधिकारिक सूचना नहीं जारी की गई. वायु सेना चीफ ने तो यहां तक कह दिया कि एक्शन के बाद हम बॉडी नहीं गिनते.

लेकिन अमित शाह से बहुत पहले, भारतीय मीडिया की ओर से समूचे देश के लोगों को यही सूचना दी गई कि बालाकोट में वायुसेना के ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ में 300-350 लोग मारे गए. कहीं-कहीं यह खबर 600 लोगों के मारे के रूप में भी सुनी गई. हर टीवी चैनल के पास मारे जाने वालों की अलग अलग संख्या थी. भारत के टीवी और प्रिंट मीडिया और उनके वेबसाइटों ने इस पूरे प्रसंग में इतनी बड़ी तादाद में लोगों के मारे जाने को ‘प्रमुख खबर’ के रूप प्रकाशित-प्रसारित किया. खबर का आधार सिर्फ यह था- ‘सूत्रों के हवाले से’ या ‘सूत्रों के मुताबिक’!

सवाल है कि मीडिया के वे ‘सूत्र’ कौन और कहां के थे, जिनकी जानकारी का जिक्र करना या उस पर कोई आधिकारिक बयान जारी करना भारत सरकार या भारतीय वायु सेना ने जरूरी नहीं समझा. जिस ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को भाजपा लोकसभा चुनावों में मुद्दा बनाने से कोई गुरेज नहीं कर रही है या जिसे भारतीय वायुसेना की ‘एक बड़ी उपलब्धि’ के तौर पर देखा जा रहा है, वह भारत सरकार और भारतीय वायुसेना के आधिकारिक सूचनाओं में स्पष्ट रूप से दर्ज क्यों नहीं है? और यह भारतीय मीडिया के लिए ‘सबसे प्रमुख’ खबर क्यों रही?

हालांकि यहां सवाल यह नहीं है कि बालाकोट में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का स्वरूप क्या था या उसमें कितने लोगों की जान गई! सवाल यह है कि भारतीय मीडिया ने एक ऐसी खबर पर इतना जोर क्यों दिया, जिसका कोई ठोस आधार नहीं था! यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वैश्विक मीडिया में भारतीय टीवी चैनलों पर प्रसारित और अखबारों में प्रकाशित इस खबर को लेकर काफी तीखे सवाल उठाए गए और इसके लिए भारतीय मीडिया को कठघरे में खड़ा किया गया. इसके अलावा, दुनिया भर के कई मीडिया संस्थानों से जुड़े पत्रकारों ने बालाकोट में घटनास्थल का दौरा किया और भारतीय मीडिया में प्रचारित इस खबर का कोई मजबूत आधार नहीं पाया.

जाहिर है, इस खबर के प्रकाशन-प्रसारण से भले ही भारत में आम लोगों को भ्रम में डालने में कामयाबी हासिल कर ली गई हो, लेकिन सच यह है कि दुनिया भर में भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर गहरे सवाल उठे. दरअसल, पिछले कुछ सालों से दुनिया भर में विश्वसनीयता और स्वतंत्रता के मानकों पर भारतीय मीडिया की छवि में लगातार गिरावट जारी है. यह चुनावों के दौरान या सामान्य दिनों में ‘पेड न्यूज’ से उपजी समस्या का अगला चरण है.

वैश्विक मीडिया रिपोर्ट के मानकों पर भारत की यह स्थिति बनी हुई है और यह किसी भी देश के सभ्य समाज के लिए चिंता का मामला होना चाहिए. हालत यह है कि 2018 में ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉडर्स’ के अध्ययन में भारत के मीडिया के स्तर में और गिरावट दर्ज की गई और इसे 138वें स्थान पर पाया गया. यानी एक बार फिर भारतीय मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित खबरों को काफी हद तक संदिग्ध माना गया.

हालांकि अब शायद इस बात का खयाल रखना छोड़ दिया गया है कि किसी खबर का असर न केवल आम लोगों के सोचने-समझने की प्रक्रिया पर पड़ता है, बल्कि उनकी सामाजिक गतिविधियां और व्यवहार तक उससे प्रभावित होते हैं. अलग-अलग समुदायों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति से संबंधित खबरों को कई बार इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि लोगों के बीच दूरी बढ़ती है और आखिरकार सामाजिक विभाजन जैसी स्थिति पैदा होती है. क्या इसका असर राजनीति पर नहीं पड़ सकता है?


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मामला केवल किसी खबर के विश्वसनीय होने या न होने को लेकर ही नहीं है. मीडिया की चिंता से उसका बुनियादी सरोकार गायब होता गया है. ऐसा लगता है कि समाज के कमजोर पक्ष या हाशिये के समाज की आवाज बनना जहां उसकी जिम्मेदारी है, वहां इसने सत्ताधारी तबकों या मजबूत सामाजिक वर्गों के हित की राजनीति को मजबूत करने की भूमिका चुन ली है.

साफ देखा जा सकता है कि समाज के दलित-वंचित तबकों के अधिकारों के हनन को लेकर मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया का रवैया बेहद उपेक्षा से भरा हुआ है. अगर कभी खानापूर्ति करने की जरूरत लगती भी है तो दलितों के खिलाफ अपराध और दमन की खबरों को झलक की तरह रख दिया जाता है, लेकिन उनके लिए जिम्मेदार लोगों-तबकों के बारे में नहीं बताया जाता! दलित-वंचित जातियों-तबकों के सामाजिक-राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों के हनन को वाजिब जगह नहीं मिलती है.

सवाल है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या भारतीय मीडिया के ढांचे में कोई गड़बड़ी है? कुछ सामाजिक विश्लेषकों ने करीब बारह साल पहले ‘मीडिया स्टडी ग्रुप’ के अध्ययन के जरिए इस ओर ध्यान दिलाया था कि भारतीय मीडिया में नौकरी करने वाले पत्रकारों और खासतौर पर फैसला लेने वाले पदों पर चूंकि सामाजिक रूप से हाशिये की जातियों और वर्गों की भागीदारी न के बराबर है, इसलिए इसका असर खबरों के चुनाव और उनकी प्रस्तुति पर पड़ता है.

लेकिन मीडिया-जगत में संचालन की स्थिति में मौजूद लोगों या संस्थानों को इस अध्ययन या ऐसे सवालों पर गौर करना जरूरी नहीं लगा. इतने सालों बाद भी मीडिया के आंतरिक ढांचे में कहीं भी दर्ज करने लायक बदलाव नहीं दिखाई देता है. यह बेवजह नहीं है कि यहां के मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया में, वे टीवी चैनल हों या अखबार, समाज के ज्यादातर हिस्से को आवाज या नुमाइंदगी नहीं मिल पाती है.


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इस समूची तस्वीर का एक गंभीर असर यह सामने आ रहा है कि समाज का एक बड़ा तबका अब कथित मुख्यधारा के मीडिया से उम्मीद करना छोड़ चुका है. वह अब समांतर स्तर पर उभरे वेबसाइटों, सोशल मीडिया के मंचों और दूसरे माध्यमों का सहारा ले रहा है. टीवी चैनलों या अखबारों में जगह नहीं मिलने के बावजूद अब हाशिये के तबके अपना मजबूत प्रतिरोध दर्ज कर रहे हैं. यह खुद को मुख्यधारा मानने वाले मीडिया संस्थानों या संगठनों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए कि न सिर्फ वैश्विक पैमानों पर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि देश के भीतर एक बड़ा तबका अब उन पर भरोसा नहीं कर पा रहा है!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. बहुत ही ज्ञानवर्धक सामग्री पढ़ने को मिली,उम्मीद है कि आगे भी इसी प्रकार की जानकारियां प्राप्त होगी।आपको हृदय की गहराइयों से बहुत बहुत धन्यवाद।

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