केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 21 मई को एक्स पर घोषणा की कि नक्सलवाद के खिलाफ कई दशकों से जारी जंग में “एक बड़ी जीत” हासिल की गई है. 30 वर्षों में पहली बार महासचिव पद के एक नक्सल नेता—नंबाला केशव राव उर्फ बासवराजू—को निश्चेष्ट कर दिया गया है.
‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ के बाद से 54 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया; 84 ने आत्मसमर्पण किया. इससे यही संकेत मिला कि वामपंथी उग्रवाद अंततः ढलान पर है. सरकार का रुख बिलकुल स्पष्ट है: हिंसा का रास्ता पकड़ने वालों के साथ पूरी सख्ती बरती जाएगी; हथियार डालने वालों और मुख्यधारा में शामिल होने वालों को एक मौका दिया जाएगा.
वामपंथी उग्रवाद के खात्मे की अंतिम तारीख तय कर दी गई है: 31 मार्च 2026. इसलिए लहर पलट गई है. 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिसे भारत की “आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती” कहा था वह नक्सलवाद अब खत्म होता दिख रहा है.
करीब 15 साल पहले नक्सलियों ने नेपाल में पशुपति से लेकर भारत के आंध्र प्रदेश में तिरुपति तक एक ‘लाल गलियारा’ बनाने का नारा उछाला था. 2013 में विभिन्न राज्यों के करीब 126 जिलों में वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा की खबरें आ रही थीं; मार्च 2025 तक ऐसे जिलों की संख्या घटकर 18 हो गई, केवल छह जिलों को ‘सबसे ज्यादा प्रभावित’ घोषित किया गया.
सरकार ने मजबूत राजनीतिक संकल्प के साथ यह दिखा दिया कि वह लोकतांत्रिक रास्ते को खारिज करके बंदूक के ज़ोर पर सत्ता हासिल करने के विचार में भरोसा करने वाले कट्टर माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले मानवाधिकारवादियों के प्रचार के आगे हार नहीं मानेगी. एक दशक से सरकार जिस बहुआयामी रणनीति पर चल रही है वह काफी कारगर साबित हुई है. जमीनी कामयाबी ‘समाधान’ नामक रणनीति पर निरंतर अमल करने से हासिल हुई है. इस रणनीति के तहत गृह मंत्रालय 2017 से एक विस्तृत कार्रवाई कर रहा है जिसके तहत सुरक्षा संबंधी उपायों के साथ-साथ विकास के कदम भी उठाए जा रहे हैं और इस प्रक्रिया के कामकाज के संकेतकों के जरिए प्रगति पर नजर रखी जाती रही है.
नक्सल पहले मजबूत क्यों थे
2010 में जब मैं ‘सीआरपीएफ’ में तैनात था, मुझे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के तहत वामपंथी उग्रवाद से भारत की लंबी लड़ाई की जटिलताओं को समझने का मौका मिला था.
इस मसले की गंभीरता का अंदाजा दंतेवाड़ा में ‘सीआरपीएफ’ की गश्ती टोली की नक्सलियों द्वारा घेराबंदी में एक साथ 76 सुरक्षाबलों के मारे जाने की घटना से लगता है. इस घटना ने उनकी रणनीतिक योजना, तालमेल, उनके हथियारों की विविधता को उजागर कर दिया था. इस तरह के हमलों के कारण केंद्रीय सुरक्षाबलों ने बचाव की मुद्रा अपना ली थी.
बीजापुर और दंतेवाड़ा में जमीनी स्थितियां इतनी गंभीर हो गई थीं कि घेराबंदी या गोलीबारी के खतरों को कम करने करने के लिए ‘आरओपी’ टुकड़ियों को तैनात किया जाने लगा था. इलाके में बारूदी सुरंगें बिछी होती थीं, और ‘आईईडी’ के विस्फोटों का खतरा बना रहता था, सैनिकों की आवाजाही के दौरान अचानक उन पर गोलीबारी हुआ करती थी.
इसका नतीजा यह हुआ कि सुरक्षाबलों ने काफी रक्षात्मक रुख अपना लिया और नक्सल विरोधी ऑपरेशन करने की जगह वे अपने शिविरों में सीमित हो गए. इससे न केवल उनका मनोबल गिरा बल्कि उनमें जनजातीय लोगों का भरोसा भी हिल गया. इसके कारण नक्सलियों की गतिविधियों की खुफिया सूचनाएं भी सूख गईं. जनजातीय लोग नक्सलियों और सुरक्षाबलों में से एक को चुनने पर मजबूर हो गए क्योंकि शासन उन्हें सुरक्षा या मजबूत विकल्प नहीं दे पा रहा था. नक्सल कार्यकर्ता जनजातीय लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गए कि वे ‘जल, जंगल और जमीन’ पर उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं.
इस सबका कुल नतीजा यह हुआ कि बीजापुर और दंतेवाड़ा जैसे इलाकों में नक्सलियों का ही आदेश चल रहा था. वे सरकारी महकमों को सड़क निर्माण, दूरसंचार नेटवर्क के विस्तार, अंदरूनी इलाकों में बिजली पहुंचाने जैसे विकास के काम भी नहीं करने दे रहे थे ताकि उन ‘मुक्त इलाकों’ पर उनकी पकड़ कायम रहे.
नक्सल गढ़ों पर हमला
नक्सलवाद को नष्ट करने में कामयाबी के लिए विकास और सुरक्षा संबंधी रणनीतियों को श्रेय दिया जा सकता है. सरकार के विकास केंद्रित कदमों ने राज्य की जनता के भरोसे को बहाल करने में बड़ी भूमिका निभाई है. पिछले दशक में सड़कों के जाल और दूरसंचार नेटवर्क में भारी सुधार हुआ है. ‘सीएपीएफ’ ने नागरिक कार्रवाई केजों कार्यक्रम चलाए उन्होंने स्थानीय लोगों का दिल-दिमाग जीता, ‘रोशनी’ योजना ने आदिवासी युवकों को हुनरमंद बनाया और रोजगार दिलाए.
विकास के उपरोक्त कदमों के अलावा सरकार ने सुरक्षा के मोर्चे पर भी काफी नियोजित, समन्वित और संकल्पबद्ध तरीके से काम किए. बड़ा फर्क वास्तव में निम्नलिखित बातों के कारण पड़ा:
मजबूत राजनीतिक संकल्प, केंद्र और राज्य सरकारों का. पहली बार किसी केंद्रीय गृह मंत्री ने मोर्चे पर अगुआई करके एक मिसाल पेश की.
अच्छा तालमेल, केंद्रीय और प्रादेशिक बलों के बीच एकीकृत कमांड ढांचे के जरिए.
डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप (डीआरजी), खेल बदलने वाला साबित हुआ. इसमें मुख्यतः वे नक्सल हैं जो हथियार डाल चुके हैं और जिन्हें इलाके, उसके भूगोल और स्थानीय लोगों की पूरी जानकारी होती है. इसके कारण खुफिया सूचनाएं जुटाने और नक्सलों के खिलाफ बेहतर रणनीति बनाने में मदद मिली.
सुरक्षा शिविरों की स्थापना, अंदरूनी इलाकों में और पुलिस थानों की मजबूती.
टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल, खासतौर से ड्रोनों और उपग्रह से हासिल चित्रों के जरिए निगरानी रखने में.
ऑपरेशन के मामले में सुरक्षाबलों को मिली बढ़त के बाद, बगावत से लड़ाई के अगले चरण में सबको साथ लेकर स्थायी शांति कायम करने पर ज़ोर देना चाहिए.
जमीनी लड़ाई जीतना केवल आधी जीत है. नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ना और पुनर्वासित करना स्थायी शांति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. उन्हें आत्मसमर्पण करने और अपनी शिकायतों को आवाज देने के लिए लोकतांत्रिक साधनों का प्रयोग करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. बदलाव बुलेट नहीं, बैलट के ही जरिए आना चाहिए.
दिल-ओ-दिमाग जीतने की जंग
हालांकि बहुत कुछ हासिल किया जा चुका है और नक्सलवाद को खत्म करने की जो अंतिम तारीख (31 मार्च 2026) गृह मंत्री ने तय की है वह लक्ष्य पूरा होता दिख रहा है लेकिन हम ढील नहीं बरत सकते. हमें हथियार घुमाते कट्टर नक्सलियों पर दबाव बनाए रखना है. वे जबरन वसूली और सुरक्षा देने के नाम पर जो उगाही करते हैं उनके वित्तीय नेटवर्क को तोड़ना है.
नक्सलवाद की समस्या केवल सुरक्षा से जुड़ी नहीं है बल्कि उसका संबंध विकास और शासन व्यवस्था से भी है. सुरक्षाबल जबकि बागियों के ऑपरेशन से जुड़े ढांचे को ध्वस्त करने में जुटे हैं, जब तक व्यवस्थागत मसलों का निबटारा नहीं होता तब तक उनके फिर से एकजुट होने का खतरा बना रहेगा.
वामपंथी उग्रवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों का इतिहास बताता है कि उनमें विकास की भारी कमी रही है. वामपंथी विचारधारा को उपजाऊ जमीन न मिले इसके लिए अगले चरण में जनता केंद्रित शासन, भूमि अधिकार, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, और आर्थिक बेहतरी पर ज़ोर देने की जरूरत होगी. दोहरी कार्रवाई जरूरी है: सुरक्षा संबंधी ऑपरेशन के साथ विकास की एक मजबूत रणनीति भी जरूरी है, जो उग्रवाद के मूल कारणों का इलाज करती हो.
अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात है: एक प्रभावी जवाबी वैचारिक ‘नैरेटिव’. लड़ाई सिर्फ हथियारबंद बागियों से नहीं बल्कि एक विचारधारा से भी है. बासवराजू जैसों को तो खत्म किया जा सकता है लेकिन विचारधारा को नहीं. वे एकजुट न होने पाएं इसके लिए हमें हमेशा सक्रिय रहना पड़ेगा—चौकस, तालमेल के लिए तैयार, और आगे बढ़कर कार्रवाई करने को तैयार. हमें नक्सली प्रचार का निरंतर और प्रभावी जवाब देते रहना पड़ेगा.
दिलों और दिमागोन को जीतने की लड़ाई अंततः बंदूक के बूते नहीं बल्कि विकास और शासन की खामियों को दूर करके, हाशिये पर पड़े तबकों की खातिर निरंतर काम करके जीती जानी चाहिए.
अशोक कुमार एक रिटायर्ड आईपीएस ऑफिसर हैं. वे उत्तराखंड के डीजीपी भी रहे हैं और अभी सोनीपत के राई में हरियाणा खेल विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं. उनका एक्स हैंडल @AshokKumar_IPS है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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