एक महीना पहले लॉकडाउन लागू करते हुए सरकार ने सबसे पहले जो घोषणाएं की थी. उनमें नियोक्ताओं से की गई यह अपील भी शामिल थी कि वे अपने कर्मचारियों के वेतन में कोई कटौती न करें (भले ही उनका कारोबार कितना भी प्रभावित क्यों न हुआ हो). इसके बाद से वेतन भुगतान को लेकर ऐसी खबरें आती रही हैं, जिनकी अपेक्षा नहीं थी. आधा दर्जन राज्य सरकारों ने कर्मचारियों के वेतन में या तो कटौती की घोषणा की है या देर से भुगतान की. यहां तक कि कोविड-19 वायरस से सफलता से लड़ने के लिए केरल की जिस वामपंथी सरकार की काफी तारीफ हो रही है. उसने भी अगले पांच महीने तक कर्मचारियों के वेतन में 20 प्रतिशत के बराबर कटौती करने की घोषणा की है.
केंद्र सरकार ने संसद के अवकाश के दौरान अपनी तरफ से घोषणा की कि संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के वेतन में 30 प्रतिशत की कटौती की जा रही है और महत्वपूर्ण बात यह है कि स्थानीय क्षेत्र के विकास की सांसद निधि को भी स्थगित किया जा रहा है. अब इसने केंद्रीय कर्मचारियों को दिया जाने वाला महंगाई भत्ता रोकने की घोषणा की है. हालांकि कर्मचारियों ने ‘पीएम केयर्स फंड’ में गैर-स्वैच्छिक दान दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में भी यही स्थिति है.
उदाहरण के लिए, एअर इंडिया ने कर्मचारियों के भत्तों में कटौती की है और वह उनके वेतन में भी कटौती करने पर विचार कर रही है. इसके विपरीत इंडिगो ने ‘सरकार की इच्छा’ पर वेतन में कटौती को रद्द कर दिया है.
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एक समय था जब समाजवादी भारत में इस तरह की कटौतियों की कोई गुंजाइश नहीं होती थी. मजदूर संघ यह सब सुनने को भी तैयार नहीं होते थे. भले ही कंपनी दिवालिया हो रही हो (कई तो हुईं भी, जैसे मुंबई की कपड़ा मिलें और पश्चिम बंगाल की इंजीनियरिंग इकाइयां). सरकार द्वारा नियुक्त वेतन बोर्ड पारंपरिक उद्योगों में इतनी वेतन वृद्धि के फैसले सुनाया करते थे. जिन्हें लागू कर पाना नियोक्ताओं की क्षमता से बाहर होता था. श्रम अदालतों को किसी उपक्रम की आर्थिक स्थिति से कुछ लेना-देना नहीं रहता था. हालांकि, एक संसदीय समिति ने यही करते हुए सिफ़ारिश की कि नये लेबर कोड के मुताबिक, ‘प्राकृतिक आपदाओं’ के दौरान वेतन भुगतान नहीं किया जा सकता है, जबकि इस कोड को पढ़ने की जहमत किसी ने नहीं उठाई है. फिर भी सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को सुरक्षित माना जाता था, क्योंकि उनमें वेतन और पेंशन की गारंटी मानी जाती थी. लेकिन, लगता है कि अब ऐसा नहीं रह गया है.
पक्की नौकरी, वेतन, पेंशन (कामचलाऊ मगर सुरक्षित जीवन) का वह सुरक्षित संसार पूरी श्रमिक आबादी के केवल छठे हिस्से को ही नसीब था. बाकी अनौपचारिक क्षेत्र में थे, जहां जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति थी और आपको उपयुक्त नियुक्ति पत्र मिल गया तो आप खुद को किस्मत वाला मानिए. हालांकि, इसे पूरी तरह ‘श्रमिक सामंतवाद’ नहीं कहा जा सकता लेकिन इस बात के संकेत उभर रहे थे कि यह विभाजन असहनीय होता जा रहा था.
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कोविड-19 ने इस प्रक्रिया को तेज किया है. इस अतार्किकता को बढ़ाने वाली स्थिति यह है कि सरकार की निर्णय प्रक्रिया का बोझ उठाने वाले ‘ए’ श्रेणी के अधिकारियों को श्रम बाज़ार के लिहाज से कम भुगतान किया जाता है, जबकि ‘सी’ श्रेणी के श्रमजीवियों को बाजार के लिहाज से दो या तीन गुना ज्यादा भुगतान किया जाता है. खाद्य निगम के कुलियों को इसके अध्यक्ष या प्रबंध निदेशक से ज्यादा भुगतान होता था. यह सब नहीं चल सकता था और ऐसा समय आया जब दो सरकारी टेलिकॉम कंपनियों के कर्मचारियों को महीनों तक वेतन नहीं मिला और अब उनमें से 75 प्रतिशत ने आश्चर्यजनक रूप से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना को स्वीकार करने में ही अपनी भलाई देखी है. तो सार्वजनिक क्षेत्र में सुरक्षित भविष्य का सच यह है!
इस बीच पेंशन की देनदारी तेजी से बढ़ी है. भला हो लोगों के जीने की उम्र में वृद्धि, महंगाई के साथ पेंशन में वृद्धि, वेतन आयोग की उदारता के अलावा नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा चुनावी वादा पूरा करने के लिए ‘वन रैंक, वन पेंशन’ लागू करने के फैसले का, रक्षा बजट में भी पेंशन की देनदारी का हिस्सा बढ़ा है. नतीजा यह है कि सेना में पेंशन का बिल वेतन के बिल से ज्यादा हो गया है. रेलवे में पेंशन तथा वेतन का बिल (स्थिर राजस्व वाले संगठन के लिए निर्धारित उत्पादन-आधारित बोनस समेत) बढ़कर उसकी कुल लागत के दो तिहाई भाग के बराबर हो गया है. सेनाओं में यह बिल करीब 60 फीसदी तक पहुंच गया है जबकि सरकार पैसे की कमी के कारण हथियारों की खरीद पर रोक लगाने को मजबूर है.
उथलपुथल में पड़ी अर्थव्यवस्था की हकीकत का सामना होने पर इस तरह की अतार्किकता को सुलझाना ही होगा. लेकिन आज हमें नाप में जो छोटा जूता पहनने के लिए मजबूर होना पड़ा है वह हमारे पैरों को अलग तरह से काटेगा. अपने कर्मचारियों को वेतन देने में असमर्थ राज्य सरकारों से बिजली खरीदने के लिए अग्रिम भुगतान करने को कहा जा सकता है (बकाया बिलों के कारण इस सेक्टर का बुरा हाल है). दिल्ली के नगर निगम अपने कर्मचारियों को वेतन देने में महीनों पीछे चल रहे हैं लेकिन उन्होंने प्रॉपर्टी टैक्सों में महंगाई के मुताबिक संशोधन 15 वर्षों से नहीं किया है. अगर कोविड-19 इस तरह के तमाम मामलों में कुछ तार्किकता बहाल कर सके तो इस पर पूरी तरह से विनाशकारी होने की तोहमत नहीं लगेगी.
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