scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान की भारत के साथ शांति की गुहार उसकी रणनीतिक हताशा को दिखाती है, इससे कोई नतीजा नहीं निकलने वाला

पाकिस्तान की भारत के साथ शांति की गुहार उसकी रणनीतिक हताशा को दिखाती है, इससे कोई नतीजा नहीं निकलने वाला

पाकिस्तान की रणनीतिक दिशा बदलने के लिए, भारत को कुछ आश्वासन देना चाहिए. लेकिन भारत की सेना की संरचना कुछ इस तरह से है कि पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर सके

Text Size:

रणनीतिक रूप से हताशा के कारण पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ भारत के साथ संबंध सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. अपने आंतरिक राजनीतिक-रणनीतिक माहौल से घिरे, शांति प्राप्त करने से पाकिस्तान को तभी लाभ हो सकता है जब वह अपनी वास्तविक और काल्पनिक सुरक्षा चिंताओं के बदले आर्थिक राहत को तरजीह दे. पाकिस्तान को इसकी भौगोलिक स्थिति की वजह से भी रणनीतिक बढ़त मिलती है क्योंकि यह दक्षिण, पश्चिम और मध्य एशिया के लिए क्रॉसिंग प्वाइंट जैसा है. इसके अलावा, अफगानिस्तान के विपरीत, पश्चिम एशिया के ग्लोबल एनर्जी हब के पास इसकी तटरेखा भी पड़ती है.

अब तक, पाकिस्तान ने सुरक्षा बढ़ाने के लिए अपनी जगहों की सौदेबाजी की है, भले ही यह उसके आर्थिक बेहतरी की कीमत पर ही क्यों न हो. अब तक इसका व्यापक रणनीतिक भारत के साथ काल्पनिक खतरे के चारों ओर घूमती रही है. संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसी वैश्विक शक्तियों के लिए एक किराएदार राज्य (ऐसा देश जिसके राजस्व का एक हिस्सा किसी अन्य देश द्वारा निवेश व प्रॉपर्टी का किराया देने से आता है) के तौर पर काम करना इसकी विदेश नीति की प्राथमिकता रही थी, जिसने संरक्षक और ग्राहक जैसे संबंधों का निर्माण किया है. कई वर्षों से—और विशेष रूप से 2020 में अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद—बीजिंग, इस्लामाबाद का मुख्य संरक्षक रहा है. यह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) और आतंकवादी गतिविधियों पर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाइयों के खिलाफ सुरक्षा और अपने सैन्य संसाधनों के आधुनिकीकरण के लिए चीन पर पाकिस्तान की बढ़ती निर्भरता द्वारा व्यक्त किया गया है.

हालांकि, चीन का रणनीतिक कदम इस बात का संकेत देता है कि, खैरात देने के अलावा, यह पाकिस्तान को उसके मौजूदा आर्थिक संकट से उबारने के लिए कुछ नहीं करने वाला. यहां तक कि संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के ऋण भी केवल डिफ़ॉल्ट को ही रोक सकते हैं. अमेरिका द्वारा नियंत्रित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से ऋण मिलने की भी संभावना नहीं लग रही है क्योंकि इसके साथ कुछ ऐसी शर्तें जुड़ी हैं जिसे पाकिस्तान के लिए स्वीकार करना मुश्किल होगा. इसलिए पाकिस्तान एक बुरी स्थिति में फंस गया है.

पाकिस्तान को भारत के साथ शांति बनाने की जरूरत

इसलिए, भारत के साथ शांति स्थापित करने की चाह तभी कारगर साबित होगी जब वह उस शांति का मध्य, पश्चिम और दक्षिण एशिया के बीच व्यापार बढ़ाने के लिए उपयोग कर सके. लेकिन इसके लिए इस हब के केंद्र अफगानिस्तान को भी व्यापक रूप से शामिल करके चलना पड़ेगा. हालांकि तालिबान को सत्ता पाने में मदद करने के उससे इसके संबंध खराब हुए हैं. अब तक, पाकिस्तान जान चुका है कि तालिबान शासित अफगानिस्तान के साथ व्यापार करना काफी मुश्किल भरा हो सकता है.

विडंबना यह है कि जहां पाकिस्तान ने कई दशकों तक तालिबानी तत्वों को अपने यहां शरण दे रखी थी, वहीं तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने पाकिस्तान में हमले करने के लिए अफगानिस्तान की जमीन का प्रयोग किया. तालिबान ने उन पर नकेल कसने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए हैं, और सीमा पार की घटनाएं भी कम नहीं हुई हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि अफगानिस्तान में जो कुछ भी होता है, उसमें पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन यह दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव को दिखाता है जो पैट्रन-क्लाइंट वाली बात से शुरू हुआ था.

2021 में, सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने स्थायी शांति, पड़ोसी देशों में हस्तक्षेप न करने, अंतर-क्षेत्रीय व्यापार और निवेश के माध्यम से कनेक्टिविटी और विकास व क्षेत्र के भीतर आर्थिक हब की स्थापना के आधार पर भू-आर्थिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की बात कही. अब, पीएम शाहबाज ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं. लेकिन आंतरिक रूप से, पाकिस्तान में सत्तारूढ़ दल पूर्व पीएम इमरान खान की पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) के साथ एक राजनीतिक मुकाबले की स्थिति में है.

अगस्त 2023 में पाकिस्तान और 2024 में भारत में चुनाव होने वाले हैं. यह स्पष्ट है कि राजनीतिक रूप से, शाहबाज़ शांति के लिए बुला रहे हैं और यह स्वीकार कर रहे हैं कि इस्लामाबाद ने तीन युद्धों से सबक सीखा है, देशों के एक दूसरे के साथ अशांत संबंधों को बदलने की संभावना नहीं है. बाद में भी, जब तक पाकिस्तान एक विदेश नीति उपकरण के रूप में आतंकवाद के उपयोग को नहीं छोड़ता, भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के संबंध में आशावाद के लिए बहुत कम जगह है.


यह भी पढ़ेंः बॉर्डर पर चीन के खिलाफ भारत का सबसे बड़ा हथियार है- ह्यूमन फोर्स


रणनीति का जाल

भारत और पाकिस्तान के लिए, परमाणु हथियारों की उपस्थिति से राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बल का उपयोग जारी रहेगा. हालांकि दोनों देश इस सच्चाई से पूरी तरह वाकिफ हैं, लेकिन उनका नेतृत्व इस जागरूकता को कायम रखने वाली शांति की स्थिति में नहीं बदल पाया है. कारण यह है कि दोनों देश एक रणनीति के जाल में फंस गए हैं.

पाकिस्तानी सेना का मानना है कि भारत को एक हजार चोट लगने से खून बहने से नई दिल्ली असंतुलित और कमजोर रहेगी. उन्हें लगता है कि भारतीय खतरे से निपटने के लिए यह सबसे अच्छी रणनीति है. पाकिस्तान का यह भी मानना है कि परमाणु हथियार भारत से प्रमुख पारंपरिक सैन्य खतरों से उसकी रक्षा करते हैं और पाकिस्तान द्वारा किए गए आतंकवादी हमलों पर नई दिल्ली की प्रतिक्रिया को सीमित करते हैं.

इन मान्यताओं में फंसकर, पाकिस्तान खुद अपना दुश्मन बन गया है और अपने सैन्य अधिकारियों की भू-राजनीतिक कल्पना के चलते अपनी भौगोलिक क्षमता का गला घोंट दिया है, जो राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए-मुख्य रूप से आतंकवाद के माध्यम से-बल के प्रयोग में डूबा हुआ है. आर्थिक प्रगति इसका मुख्य शिकार रही है, लेकिन अब कम से कम इसकी रणनीतिक दिशा बदलने की बात हो रही है.

ऐसा होने के लिए, भारत को फिर से कुछ आश्वासन देना होगा. लेकिन भारत की सेना की संरचना को इस तरह से बनाया गया है कि वह पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम हो सके. इसके बजाय, इसे मुख्य रूप से अपने क्षेत्र की रक्षा करने और भूमि, वायु और समुद्र पर आधारित लंबी दूरी की मारक क्षमता के जरिए कम से कम दिखावा करने की कोशिश करे. साथ ही पाकिस्तान के किसी क्षेत्र पर कब्जा करके उसे आतंकवाद को खत्म करने के लिए मजबूर करने की धारणा वाली पॉलिसी पर भी पुनर्विचार करना होगा. इसके अलावा, दुर्भाग्य से, ‘अखंड भारत’ और “हम पीओके को वापस लेने के लिए तैयार हैं” जैसे बयानों को बढ़ावा देकर, भारत की घरेलू राजनीति ने पाकिस्तान को भारतीय खतरे को जीवित रखने के लिए और ऊर्जा प्रदान की है.

क्या भारत को एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए?

स्वाभाविक रूप से, भारत के घरेलू राजनीतिक विमर्श का बढ़ता बहुसंख्यक तनाव जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा वैसे-वैसे और ज्यादा तीक्ष्ण होता जाएगा. फिर भी, हमें असहजता से मिलने वाली शांति में सुधार करने का प्रयास करना चाहिए, जैसा कि 2021 के युद्धविराम के जरिए किया गया था. इसलिए, अगला कदम संभवतः क्षेत्रीय विवाद को समाप्त करना हो सकता है. यह एक संभावना है जिस पर अनौपचारिक रूप से चर्चा की गई है और अगस्त 2023 में पाकिस्तान के चुनावों के बाद यह राजनीतिक आकर्षण बन सकता है- बशर्ते इसे अपनी सेना से समर्थन मिले. इस तरह के कदमों के लिए पूर्व शर्तें स्वाभाविक होंगी, लेकिन इसे कूटनीतिक रूप से ही हल किया जाना चाहिए.

क्या भारत को क्षेत्रीय विवाद और कश्मीर मुद्दे को स्थगित करने में समस्या हो सकती है? यह निश्चित रूप से सत्ताधारी पार्टी के वैचारिक मान्यताओं के खिलाफ है. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कद को देखते हुए, भाजपा की वैचारिक मान्यताएं उनके लिए इस विचार का समर्थन करने में बाधा नहीं बनना चाहिए. विशेष रूप से, क्या वह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस विचार का समर्थन करेंगे? लेकिन उस पर फैसला लेने के लिए पाकिस्तान के आगामी चुनावों के नतीजों का इंतजार करना चाहिए. अभी के लिए, फिलहाल ‘वेट-एंड-वॉच’ की स्थिति बेहतर होगी.

तनाव की ऐतिहासिक विरासत को शायद केवल मैनेज किया जा सकता है, हल नहीं किया जा सकता है. क्षेत्रीय विवाद जारी रहेंगे. इसलिए, उन्हें शांत रखना एक व्यावहारिक समाधान है जो भू-राजनीतिक विचारों को बल देने वाले भू-आर्थिक लॉजिक की नींव रख सकता है. दुर्भाग्य से, इस संबंध में वैश्विक रुझान प्रतिकूल है. क्या दक्षिण एशिया- जहां के देश भी वैश्विक स्तर पर बड़े/मध्यम पावर्स के बीच बढ़ते तनाव में उलझे हुए हैं- इस प्रवृत्ति को कम कर सकते हैं? पर यह काफी असंभव सा लगता है.

शाहबाज को पाकिस्तान की छवि सुधारने के लिए लोगों का समर्थन मिल रहा हो या नहीं. भारत को शांति वार्ता में प्रगति की संभावना तलाशने से नहीं चूकना चाहिए. यह कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी रणनीति के जाल में कैद हैं और बढ़ते क्षेत्रीय और वैश्विक तनावों से प्रभावित हैं, हमें इसमें बाधा नहीं डालनी चाहिए. यहीं पर कूटनीति काम आती है. यह देखते हुए कि दक्षिण एशिया आर्थिक एकीकरण विजन से 25 प्रतिशत मानव जाति के भविष्य पर प्रभाव पड़ेगा. ऐसे में यह अपेक्षा रखना कोई गलत भी नहीं है.

इसका निष्कर्ष यह निकलता है: ऐतिहासिक रूप से लंबे तनाव के बावजूद, भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारने के लिए उठाए गए छोटे कदम भी दुनिया में शांति और स्थिरता के बड़े संदर्भ में गिने जाएंगे.

[लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं]

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की प्रतीक्षा न करें, सबसे पहले थिएटर कमांड सिस्टम लाओ


 

share & View comments