चल रहे एशिया कप के दौरान, इंग्लैण्ड की बार्मी आर्मी ये संकेत देने भर से मुसीबत में आ गई कि एशेज़ भारत-पाकिस्तान मैचों से ज़्यादा अहम थे. इससे दोनों देशों के जुनूनी एक हो गए और माफ न करने की हद तक उन्होंने एकता दिखाई जो- जो इन दिनों में एक दुर्लभ बात है.
जहां भारतीय फैंस ने एक के बाद एक हार के बाद ट्विटर पर अपने ‘ग़म ग़लत’ किए, वहीं ये पाकिस्तानी घुसपैठिए थे जिन्होंने भारतीय वक्ताओं से अनुरोध किया, कि ‘प्लीज़ बाजवा को गाली दीजिए’. ऐसा अनुरोध जिसे ये कहकर ठुकरा दिया गया, ‘हम सोनम बाजवा को गाली क्यों देंगे?’ ऐसा लगता है कि उनके बाजवा और हमारी बाजवा में एक ज़ाहिरी फर्क़ है. फिलहाल के लिए दोनों बाजवा अनुवाद में कहीं खो गए हैं.
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शरीफ लोगों का खेल नहीं
इस सब में जो चीज़ नहीं खोई वो थी दो पड़ोसी ‘दोस्तों’- अफगानिस्तान और पाकिस्तान में एशेज़ का मुकाबला. एक नाख़ून-कुतरने, कोहनियां-टकराने और बल्ला-उठाने वाले मैच में, पाकिस्तान एक विकेट से जीत गया. लेकिन जो बाक़ी रह गई वो थी अफगान गेंदबाज़ फरीद अहमद और पाकिस्तान के आसिफ अली के बीच झड़प. और बेशक, उसके बाद शारजाह स्टेडियम में आई आफत, जिसमें अफगान प्रशंसकों को पाकिस्तानियों पर कुर्सियां फेंकते देखा गया.
पुराने क्रिकेट दीवाने 1981 की उस घटना का ज़िक्र करेंगे, जिसमें पाकिस्तान-ऑस्ट्रेलिया मैच के दौरान जावेद मियांदाद और डेनिस लिली क़रीब क़रीब हाथापाई पर उतर आए थे. एक ने पिच पर दूसरे को उकसाया: लिली ने मियांदाद को लात मारी, और बदले में मियांदाद ने उसे मारने के लिए अपना बल्ला उठा लिया. फिर वो कभी न भूलने वाली घटना जिसमें इंज़मान-उल-हक़ एक समर्थक को मारने के लिए भागे थे, जिसने उन्हें ‘आलू, मोटा आलू, सड़ा आलू’ कहकर उकसाया था. वो 1997 की बात है और पाकिस्तान तथा भारत टोरंटो में खेल रहे थे. इंज़माम पर दो मैंचों के लिए पाबंदी लगा दी गई थी.
अब अफगान प्रशंसक चाहते हैं कि आईसीसी असिफ अली पर पाबंदी लगा दे, जबकि पाकिस्तानी फैंस चाहते हैं कि अफगानिस्तान पर रोक लगा दी जाए. उन अफगान तालिबान समर्थकों को मत भूलिए जो पाकिस्तान को एक ‘आतंकवादी देश’ घोषित करने में लगे हैं, जिसे अफगानिस्तान की राष्ट्रीय टीम से माफी मांगनी चाहिए.
The fight between Asif Ali and the Afghan bowler💥 Very unfortunate
#PAKvAFG pic.twitter.com/AQzxurWNB7
— Nadir Baloch (@BalochNadir5) September 7, 2022
‘अल्लाह ने अफगानियों को सज़ा दी’
ये कोई पहली या आख़िरी बार नहीं है कि क्रिकेट खिलाड़ियों और समर्थकों के बीच ऐसी घटना हुई है. किसी भी तरह का उपद्रव या एक पूरे मुल्क को नाटकीय ढंग से नस्ली आधार पर कलंकित करना, किसी भी तरह माफी के लायक़ नहीं है. लेकिन क्रिकेट जनूनी अंध-देशभक्तों को ग़ुस्सा दिलाने के लिए ज़रा सा धक्का काफी है.
क्रिकेट के इस मिश्रण में ज़रा सा धार्मिक एंगल, जातिवादी कीचड़ और नस्लीय प्रोफाइलिंग डालिए, और मैच के बाद का सीन देखने लायक़ होगा. मसलन शोएब अख़्तर का मानना था, कि अफगानिस्तान की टीम ने ‘बदतमीज़ी’ की और अल्लाह ने उन्हें सज़ा दी: ‘इसीलिए अल्लाह ने एक पठान को दूसरे पठान से छक्का पड़वाया’. हैरत होती है. अपनी घटिया बात को रखने के लिए अल्लाह को क्यों बीच में लाते हो?
नज़रिये की उसकी ये समस्या पहली बार सामने नहीं आई है. इससे पहले, 2019 विश्व कप के दौरान अख़्तर ने शेख़ी बघारी थी, कि ज़्यादातर अफगान खिलाड़ियों के पास पाकिस्तानी शिनाख़्ती कार्ड्स थे, ये दिखाने के लिए कि वो पेशावर के शर्णार्थी शिविरों में पैदा हुए थे. और अब, जब वो देहरादून और नोएडा के मैदानों पर प्रेक्टिस करते हैं, तो उन्हें पाकिस्तान के अहसान भी याद रखने चाहिए. ज़रा सोचिए ये हैं हमारे ‘क्रिकेट के हीरो’ और साथी खिलाड़ियों के बारे में इनके विचार. अब आप आम लोगों से क्या उम्मीद करेंगे?
अच्छे बनाम बुरे नमक हराम
आम लोग भी पीछे नहीं रहते. वो ट्विटर पर हमें बताते हैं कि अफगान खिलाड़ियों ने जो किया वो क्यों किया- वो ‘नमक हराम’ हैं. ये एक बोध है, भले आप वैचारिक विभाजन के किसी भी ओर हों. पाकिस्तानी वास्तव में ख़ुद को अफगानिस्तान का मसीहा समझते हैं. उस अकेले कारण से अफगानियों को अपने ऊपर हुई कृपा का हिसाब रखना चाहिए, क्योंकि वो कृपा ऊपर आसमान से नहीं आती, बल्कि उनके दोस्त पड़ोसी की ओर से आती है.
बस ज़रा पाकिस्तान की कुछ भावनाओं को देखिए: ‘हमने तुम्हें अपने मुल्क में जगह दी’, ‘हमने तुम्हें नौकरियां दीं’, ‘देखो हमने तुम्हारे लिए क्या क्या किया, फिर भी तुम नमक हरामों की तरह बर्ताव करते हो’, और ‘तुम्हें शर्म आनी चाहिए नमक हरामियों’. नहीं, ये भावना क्रिकेट-केंद्रित नहीं है. ये अफगान-केंद्रित है. दिलचस्प ये है कि ‘नमक हरामी’ की इस सारी बात में, ये भुला दिया जाता है कि दशकों तक इन्हीं अफगान शर्णार्थियों के नाम पर अरबों डॉलर की सहायता ली जाती रही थी. और बाद में आतंकवाद के खिलाफ डबल-क्रॉसिंग युद्ध में ख़ूब फायदा उठाया. लेकिन हमेशा याद रखिए कि एक अच्छा ‘नमक हराम’ होता है, और एक बुरा ‘नमक हराम’ होता है.
एक गुमनामी की हालत में, कुछ पाकिस्तानियों ने अफगान लोगों के उनके साथ सलूक पर सवाल उठाए. उन्होंने पूछा कि अफगान लोग हिंदुस्तानियों के साथ दोस्ताना रवैया रखते हैं, उनके साथ क्यों नहीं जो उनके तत्काल पड़ोसी हैं. वो एक चीज़ भूल जाते हैं कि स्वयंभू उपनिवेशवादियों की तरह, पाकिस्तान सरकार ने एक ऐसे सत्ता परिवर्तन का समर्थन किया, जिसने एक साल पहले तालिबान को देश के पीछे लगा दिया. मत भूलिए किस तरह इमरान ख़ान और उनके मंत्रियों ने अपनी पूरी ताक़त दुनिया को ये समझाने में लगा दी, कि ये नए तालिबानी नेता कितने बदले हुए, हैण्डसम, और टैडी-बियर जैसे थे. पाकिस्तान के शीर्ष खुफिया प्रमुख अपनी राजधानी में खड़े चाय की चुस्कियां लेते हुए कह रहे थे, ‘फिक्र मत कीजिए, सब ठीक हो जाएगा’. अपने घरों के अंदर फंसी जवान अफगानी लड़कियों से पूछिए, कितना ठीक हुआ है. उससे पहले ये भी पूछिए कि रणनीतिक गहराई के प्रति उत्साही पाकिस्तानी लोगों के लिए, तालिबान को पाकिस्तान के अंदर लाना कितना ठीक रहा है. कुछ भी हो, पाकिस्तान की हालत मशहूर कोयला मीम के राजा साहब जैसी है, जो चिल्ला कर कह रहे हैं: शंकर, हम तुमको पाला हूं.
(लेखिका पाकिस्तान की स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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