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Monday, 23 December, 2024
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क्या पाकिस्तानी जनरलों को इमरान ख़ान से करियर में उन्नति चाहिए

पाकिस्तानी जनरल अपने देश को सेना मुख्यालय के पूर्ण स्वामित्व वाला सहायक उपक्रम मानते हैं और खुद को उसके निदेशक मंडल का हिस्सा.

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पिछले कुछ दिनों में पाकिस्तान में असैनिक लोकतांत्रिक शासन के पहले ही झीने हो चुके आवरण के चिथड़े उड़ गए हैं. संसद में दोनों प्रमुख विपक्षी दलों के नेता अब जेल में हैं, पश्तून तहफूज़ मूवमेंट (पीटीएम) के प्रमुख नेताओं का भी यही हाल है. राष्ट्रीय मीडिया सेना की जनसंपर्क इकाई आईएसपीआर और खुफिया संस्था आईएसआई की मीडिया इकाई के कड़े नियंत्रण में है.

यहां तक कि अर्थव्यवस्था भी जनरलों द्वारा चुनी गई एक टीम संभाल रही है. ऐसा शायद ही किसी अन्य लोकतंत्र में हो पाए. सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए बनाई गई एक उच्चस्तरीय कमेटी में सदस्य के रूप में शामिल किए गए हैं.

आईएसआई को लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हमीद के रूप में नया बॉस मिल गया है. खुफिया एजेंसी में दूसरे नंबर का शीर्ष अधिकारी रहने के दौरान उन्होंने राजनीतिक जोड़तोड़ में माहिर प्रमुख सैनिक अधिकारी के रूप में अपनी पहचान बनाई थी. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने जुलाई 2018 के चुनावों से पहले हमीद की पहचान राजनीतिक जोड़तोड़ करने वाले मुख्य किरदार के रूप में की थी, जो उस वक्त मेजर जनरल के पद पर थे.

किसी सामान्य देश में पेशेवर सैनिक माने जाने वाले किसी अधिकारी के खिलाफ इस तरह के आरोप उसके तत्काल निलंबन और जांच शुरू करने की वजह बन जाते. पर चूंकि बात पाकिस्तान की है. इसलिए इसके उलट हमीद को लेफ्टिनेंट जनरल के रूप में पदोन्नति मिल जाती है.

आईएसआई के भीतर, हमीद के अधीनस्थ अधिकारियों में मेजर जनरल अज़हर नवीद हयाद भी होंगे. पिछली असैनिक सरकार के कार्यकाल में एक वीडियो में हयात को सरकार विरोधी इस्लामी प्रदर्शनकारियों को पैसे बांटते दिखाया गया था.

कराची के आस-पास एक बैनर में नए आईएसआई प्रमुख फैज़ हमीद की एक तस्वीर है, जिसमें लिखा है ‘हम आईएसआई से प्यार करते हैं’

हमीद और हयात के करियर विकास से सेना के उस भ्रामक प्रचार की पोल खुल जाती है कि सेना ने अपने रवैये को सुधार लिया है और जनरल बाजवा राजनीतिक दखलअंदाज़ी करने वाले अपने पूर्ववर्ती जनरलों से जुदा हैं.

अपने से पहले के कई जनरलों की तरह ही बाजवा का मानना है कि सेना प्रमुख के रूप में उनका तीन साल का कार्यकाल पाकिस्तान की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है. फील्डमार्शल अयूब ख़ान, जनरल ज़ियाउल हक़, जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और जनरल अशफाक़ परवेज़ कयानी की तरह वह भी सेना प्रमुख के रूप में अपने कार्यकाल का विस्तार चाहते हैं.


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उपरोक्त में से तीन ने देश में मार्शल लॉ लगाया था. सत्ता पर कब्ज़ा किया था और सेना प्रमुख के रूप में अपने कार्यकाल को बढ़ाया था. पर कयानी ने खुफिया एजेंसियों और कमज़ोर सुप्रीम कोर्ट जजों की मदद से ऐसी रानजीतिक परिस्थितियां निर्मित कर दी थीं कि असैनिक सरकार को उन्हें सेवा विस्तार देना पड़ा था. बाजवा भी उसी दिशा में जाते दिख रहे हैं.

पाकिस्तानी सैनिक जनरल अपने देश को सेना मुख्यालय के पूर्ण स्वामित्व वाला सहायक उपक्रम मानते हैं और खुद को उसके निदेशक मंडल का हिस्सा. जनरलों की इस स्कीम में प्रधानमंत्री का दायित्व राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करना नहीं बल्कि निदेशक मंडल की इच्छाओं को लागू करने वाले प्रबंधक की तरह काम करना है.

बाजवा और हमीद ने इमरान ख़ान को पाकिस्तान लिमिटेड का जनरल मैनेजर बनने में मदद की थी और वे उनसे सिर्फ अपने आदेशों का पालन कराना ही नहीं बल्कि अपने करियर में प्रगति भी सुनिश्चित कराना चाहते हैं. उनके अन्य हितों में ये सुनिश्चित करना शामिल है कि देश के आर्थिक प्रबंधक राष्ट्र के कर्जदाताओं (जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) से अधिक मात्रा में धन जुटाएं और सेना का बजट बढ़ाना जारी रखें, जिनसे कि जनरलों का अनुलाभ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं.

जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का हाल आमतौर पर ठीक नहीं रहा हो और आमजनों पर इसका असर पड़ रहा हो, देश का सैनिक खर्च निरंतर बढ़ता गया है. पाकिस्तान का रक्षा बजट 2014 में 700.2 अरब रुपये था, जो पांच साल बाद 1,100 अरब रुपये के स्तर पर पहुंच गया. पर जनता को धोखा देने के लिए बजट दस्तावेजों में विभिन्न श्रेणियों में पाकिस्तान के रक्षा बजट को कम होता दिखलाया गया है.

रक्षा बजट में सशस्त्र सेनाओ के पेंशन या परमाणु और मिसाइल कार्यक्रमों तथा प्रमुख साजो-सामान के लिए धन के आवंटन को शामिल नहीं किया गया है. यदि सैनिक पेंशन और साजो-सामान पर पूंजीगत व्यय को भी शामिल कर लिया जाए, तो 2014 का रक्षा बजट 1,113.6 अरब रुपये तथा 2019 का 1,882 अरब रुपये का होता.

जेल में बंद नवाज़ शरीफ़ और आसिफ अली ज़रदारी जैसे असैनिक नेताओं के लिए अपने वोट बैंक को पुख्ता रखने के वास्ते सार्वजनिक सुविधाओं, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अधिक संसाधन आवंटित करने की बाध्यता होती है. हालांकि, ऐसे नेता हमेशा पूरी तरह ईमानदार नहीं होते और असैनिक परियोजनाओं में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के आरोपों में भी सच्चाई है.

पर खराब या भ्रष्ट नेताओं तक को चुनते वक्त पाकिस्तानी वोटर अपने हित में काम कर रहे होते हैं. उन्हें कथित रूप से भ्रष्ट नेताओं के कार्यकाल में गरीब देश के संसाधनों कुछ-न-कुछ हिस्सेदारी की उम्मीद रहती है. जबकि, महंगे सैनिक साजो-सामान में जनरलों की दिलचस्पी के कारण उनके कार्यकाल में जनता को कुछ भी हासिल नहीं होता है.

राजनीतिशास्त्री हैरोल्ड लैसवेल ने राजनीति को ये तय करने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया था कि ‘कब और कहां किसे क्या मिलता है’. ऐतिहासिक परिस्थितियों ने पाकिस्तान की सेना को एक अहम राजनीतिक किरदार बना दिया है. पाकिस्तान की स्थापना से पहले से वजूद में रही सेना, ब्रितानी शासकों द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उनकी पैदल सैनिकों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्थापति की गई थी. अब सेना ने खुद को बरकरार रखने के लिए पाकिस्तान की विचारधारा और दिशा तय करने की प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है.

अब जबकि सेना की कभी नहीं खत्म होने वाली भूख के बराबर आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे समाज की ज़रूरतें आ खड़ी हुई हैं, तो सेना चाहती है कि अन्य किरदार या तो उसके आदेशों को मानें या फिर जेल जाने और परिदृश्य से हटाए जाने के लिए तैयार रहें.


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ये सच है कि पाकिस्तान के असैनिक नेताओं को ज़्यादा सहानुभूति मिल रही होती यदि उनका दामन रिश्वत और भ्रष्टाचार के आरोपों से दागदार नहीं रहता. पर अफ़ग़ानिस्तान सीमा से लगे कबाइली इलाके से दो युवा पश्तून सांसदों की गिरफ्तारी से सेना की मंशा पर संदेह खड़े होते हैं कि वो ईमानदार नेताओं की असहमति को भी बर्दाश्त कर सकेगी.

अली वज़ीर और मोहसिन दावर ने जनरलों के आदेश की अनसुनी कर दी थी कि वे लोगों को गायब किए जाने और उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार सुरक्षाकर्मियों की जवाबदेही करने की अपनी मांग को छोड़ दें. दोनों सांसदों की पहचान ईमानदार नेताओं के रूप में है. दोनों अब जेल में हैं और पाकिस्तानी मीडिया को सेना स्वीकृत कथानक के अतिरिक्त उनका उल्लेख करने की भी एक तरह से मनाही है.

इस कहानी की नैतिक सीख: किसी नेता के वित्तीय भ्रष्टाचार नहीं करने पर भी उसको लेकर सेना की सहिष्णुता नहीं बढ़ती है. यदि जनरल भ्रष्टाचार के आरोपों में आपको जेल में नहीं भेज पाएं, तो उनके पास आपके लिए ‘सेना के खिलाफ युद्ध छेड़ने’ और ‘देशद्रोह’ जैसे अपराध भी हैं.

जनरल बाजवा की योजना अयूब ख़ान द्वारा पहली बार 1958 में मार्शल लॉ लगाए जाने के बाद आए लगभग सारे सेना प्रमुखों द्वारा अपनाई गई रणनीति से अलग नहीं है. सेना वैसे किसी भी नेता को खत्म कर देना चाहती है, जो राष्ट्र की निर्णय लेने की प्रक्रिया में सेना के वर्चस्व को गंभीर चुनौती दे सकता हो.

जनरलों की पसंद उनकी छत्रछाया में काम करने वाले महत्वहीन या अनुभवहीन नेता होते हैं. पर जैसे ही ऐसे किसी नेता की खुद की पहचान बनने लगती है या वो राजनीतिक अनुभव हासिल करने लगता है. वे उससे छुटकार पाने को विवश हो जाते हैं. विडंबना ये है कि सेना के हस्तक्षेप का कारण पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता को बताया जाता है, पर वास्तव में खुद सेना ही राजनीतिक अस्थिरता की वजह है.

कानून के शासन के तहत मज़बूत संस्थानों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित होने में पाकिस्तान की नाकामी और इस पर सेना की अगुआई में एक कुलीन तंत्र के शासन ने स्थाई राजनीतिक संकट का माहौल बना दिया है. साजिश, अफवाह और कानाफूसी के सहारे इस कुलीन तंत्र के सदस्य सत्ता के लिए रस्साकशी करते रहते हैं. इस साजिश का एक नया दौर शुरू हो चुका है.

अगला सेना प्रमुख बनने की थोड़ी-सी भी संभावना वाले लेफ्टिनेंट जनरल अपने दोस्तों और समर्थकों को सक्रिय कर रहे हैं कि वे नवंबर में बाजवा की आसन्न सेवानिवृति के बाद उनके पदस्थापन की पैरवी करें. बाजवा और उनकी टीम अपने सेवा विस्तार की आवश्यकता पर जोर देना शुरू कर चुकी है. इस दलील के साथ कि स्थिरता की मौजूदा स्थिति को आगे भी कायम रखने के लिए ऐसा करना जरूरी है. उनके अनुसार स्थिरता सेना के निर्देशों पर चलने वाली असैनिक सरकार स्थापित किए जाने के कारण ही आ पाई है.

पर चार प्रत्यक्ष सैनिक तख्तापलटों और पर्दे के पीछे से निरंतर दखलअंदाज़ियों के बाद पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान अपने कुचक्रों के सहारे देश को स्थिरता और प्रगति प्रदान करने के अपने वायदे से बहुत दूर नज़र आता है. इस बार भी उसके सफल होने की संभावना नहीं है.

सैनिक अधिकारी अनुशासित लोगों से काम लेने के आदी होते हैं. उनकी कमान के सैनिक बिना कोई सवाल पूछे उनके आदेशों का पालने करते हैं. पर असैनिक जीवन और सरकार चलाने में विविधता के प्रबंधन की दरकार होती है. दमन के मौजूदा दौर के बाद भी, पाकिस्तान विविध जातीयताओं, विश्वासों और मतों वाला देश बना रहेगा.

करीब 20 करोड़ लोगों का देश किसी ड्रील सार्जेंट के आदेश पर तीन-तीन के समूह में मार्च नहीं करने लगेगा. जैसा कि जनरलों ने पाकिस्तान मिलिट्री एकेडमी में सीखा होगा. पर अपनी अदूरदर्शिता पर कायम रहने का जनरलों का हठ, ज़रूर ही पाकिस्तान के प्रमुख आर्थिक एवं सामाजिक संकेतकों को बाकी देशों के मुकाबले और नीचे ले जाएगा.

(हुसैन हक़्क़ानी वाशिंगटन डीसी स्थित हडसन इंस्टीट्यूट में दक्षिण एवं मध्य एशिया विभाग के निदेशक हैं. वह 2008-11 की अवधि में अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे. उनकी लिखी किताबों में ‘पाकिस्तान बिटवीन मॉस्क़ एंड मिलिट्री’, ‘इंडिया वर्सेस पाकिस्तान: व्हाई कान्ट वी बी फ्रेंड्स’ और ‘रीइमेजिंग पाकिस्तान’ शामिल हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

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