अब पाकिस्तान भी ‘मंदिर तो बनेगा’ और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों से रू-ब-रू है. सरकारी महकमे ने इस्लामाबाद के एच-9 इलाके में श्री कृष्ण मंदिर के निर्माण पर पिछले हफ्ते जिस तरह रोक लगा दी, उससे एक बार फिर यह साबित हो गया है कि पाकिस्तान में धार्मिक आज़ादी किस तरह घटती जा रही है. मंदिर बन जाता तो राजधानी में रह रहे 3000 हिंदुओं को पहली बार एक पूजा स्थल मिल जाता. अब इससे उन्हें महरूम कर दिया गया है.
फतवों, मजहबी कट्टरता, धमकियों और सियासी गोटियां चमकाने की कोशिशों के कारण मंदिर निर्माण विवादों में उलझ गया है. इस्लामाबाद के सैदपुर गांव में जो 16वीं सदी का राम मंदिर है वह बस ‘टूरिस्ट स्पॉट’ है, वहां हिंदुओं को प्रार्थना तक करने की इजाजत नहीं है.
मंदिर बनवाना इस्लाम के खिलाफ
वजीरे आज़म के दफ्तर से मंदिर निर्माण के लिए 10 करोड़ रुपये के अनुदान के रूप में जो दोस्ताना पेशकश की गई थी उसके खिलाफ मजहबी और सियासी गुट उठ खड़े हुए. जामिया अशर्फ़िया मदरसा ने फैसला सुनाया कि शरीआ के मुताबिक गैर-मुस्लिमों को अपना नया इबादतखाना बनाने या टूटे हुए इबादतखाने की मरम्मत कराने की इजाजत नहीं दी जा सकती. ‘एक इस्लामी मुल्क में यह एक गुनाह है.’
यही बात संघीय सरकार के सहयोगी और पंजाब एसेम्बली के स्पीकर चौधरी परवेज़ इलाही ने भी कही. उनका कहना था कि इस्लाम के जज्बे के तहत हिंदुओं, सिखों, इसाइयों को अपने मौजूदा पूजा स्थलों की मरम्मत की इजाजत तो दी जा सकती है मगर नया ढांचा बनाने की इजाजत नहीं है.
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कई लोगों को इस बात पर उज्र था कि मंदिर बनाने के लिए करदाताओं के पैसे दिए जा रहे हैं. ऐसे लोग भूल गए कि वे हिंदू भी पाकिस्तान के नागरिकों की तरह टैक्स अदा करते हैं, तो सरकार उनके मंदिर के लिए पैसे क्यों नहीं दे सकती? आखिर बड़े शोर-शराबे के साथ करतारपुर गुरुद्वारे की मरम्मत सरकारी पैसे से ही मुमकिन हो सकी थी. यह चूंकि ‘नेशनल इंटरेस्ट’ यानी मुल्क के फायदे के लिए था इसलिए इनमें से किसी मजहबी या सियासी ढोंगी ने इसके खिलाफ चूं तक करने की हिम्मत नहीं की.
जैसी कि उम्मीद थी, कई मजहबी गुटों के दबाव में शहर के ज़िला प्रशासन ने मंदिर का काम रुकवा दिया. जब इस्लामाबाद हिंदू पंचायत ने सुरक्षा कारणों से मंदिर की चारदीवारी बनाने का काम रोक दिया तो एक टीवी चैनल ने ‘मंदिर के खिलाफ खुली बहस को आगे बढ़ाने’ का बड़े फख्र से दावा किया.
अब किसी को इस बात की फिक्र नहीं है कि घुसपैठ करने वाले वहां जाकर मंदिर की जगह को अपवित्र करते हैं, उसकी नींव में तोड़फोड़ करते हैं, नारे लगाते हैं और वहां पर बड़ी शान से नमाज पढ़ते हुए वीडियो बनाते हैं. जाहिर है कि राजधानी का हिंदू समुदाय, जो पहले से ही खुद को कमजोर महसूस करता रहा है, इन हरकतों से खुद को और ज्यादा असहाय और खतरे में महसूस कर रहा है.
जो गणतंत्र अल्पसंख्यकों को बराबर के अधिकार देने के वायदे करता है उसकी नींव एक मंदिर के कारण हिलती हो तो यह पाकिस्तान की अफसोसनाक हकीकत का ही बयान है.
धार्मिक अल्पसंख्यकों की उपेक्षा
अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव पाकिस्तान में कोई रातोरात नहीं शुरू हो गया. मुल्क की एक पहचान बनाने की कोशिश के तहत दशकों से अल्पसंख्यकों की उपेक्षा ही इसकी जड़ में है. एक ओर इतिहास की किताबों में महमूद गजनवी जैसे मंदिर विध्वंसकों का महिमामंडन, दूसरी ओर पाकिस्तान को दुनिया के सामने बहुलतावादी देश के रूप में पेश करने की ख़्वाहिश एक फरेब ही है. आप कहें कुछ, और करें कुछ यह नहीं चल सकता.
पाकिस्तान को इन कुछ बुनियादी सवालों का सामना करना ही पड़ेगा. वह अपने अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ कैसा रिश्ता रखना चाहता है? पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों और पाकिस्तान की राज्यसत्ता के बीच क्या सामाजिक करार है? अगर उसका संविधान सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी देता है, तो सरकार दबाव बनाने वाले गुटों को उनके साथ तीसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव करने की छूट क्यों देती है?
दोहरे पैमाने
जो पाकिस्तानी न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न को मस्जिद में जाते देख बेहद फख्र महसूस करते हैं, वे यह नहीं चाहते कि उनके अपने नेता अपने यहां के अल्पसंख्यकों के हक में बात करें. अगर नवाज़ शरीफ, बिलावल भुट्टो या प्रधानमंत्री इमरान खान मजहबी आज़ादी की बात करते हैं तो उनकी आस्थाओं पर फौरन सवाल उठाए जाते हैं. वे अगर अल्पसंख्यकों की ओर हाथ बढ़ाते हैं तो इसे उन्हें खुश करने की शर्मनाक हरकत बताया जाता है, मगर अर्डर्न की पहल को उनकी महानता माना जाता है.
जिस तरह का ढोंग चल रहा है वह हास्यास्पद ही है. 2017 में नवाज़ शरीफ जब कराची में होली में शामिल हुए थे तब उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया था. ‘होली के मौके पर नवाज़ शरीफ के भाषण ने पाकिस्तान की सैद्धांतिक नींव को हिला दिया है.’ यह समझ पाना मुश्किल है कि ये नींव कितनी कमजोर है. आज इमरान खान के चेहरे की फोटो हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीर पर चिपका कर सोशल मीडिया पर पोस्ट की जा रही है.
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पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ बुरे बर्ताव हालांकि तभी से जारी हैं जबसे खुद पाकिस्तान वजूद में आया है, लेकिन इस्लामवादियों को खुश करने के मामले में इमरान खान की सरकार और उनकी पार्टी का रेकॉर्ड भी कोई छुपा हुआ नहीं है. ईश-निंदा के मामले में नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग सरकार के खिलाफ धरने का समर्थन करने से लेकर जाने-माने अर्थशास्त्री आतिफ़ मियां को आर्थिक सलाहकार नियुक्त करने के फैसले और फिर उसे इसलिए रद्द करने कि वे अहमदिया हैं, या आसिया बीबी की माफी के बाद तहरीक-ए-लब्बैक के गुंडों के साथ करारनामे पर दस्तखत करने से लेकर अहमदियों को नेशनल माइनॉरिटी कमीशन में न शामिल करने तक इसकी लिस्ट बहुत लंबी है. यह लिस्ट सरकार के इरादों की कमजोरी को ही उजागर करती है.
लेकिन जब बात दुनिया में कहीं भी और खासकर भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी के खिलाफ आवाज़ उठाने की आती है तब इमरान खान की सरकार की आवाज़ सबसे तेज सुनाई देती है. धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति बर्ताव के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सबक सिखाने की इमरान खान सरकार की जो सोच है उसमें अगर हर कड़े कदम को वापस लेना और मुल्लाओं को खुश रखना ही शामिल है तब फिर ‘नया पाकिस्तान’ को पुराने से अलग कैसे माना जा सकता है?
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
अपने फर्जी प्रगतिशील वायदे करके, समझ नहीं आता पाकिस्तान बेवकूफ किसे बनाता है, दुनिया को या खुद को? अपनी वास्तविक सांस्कृतिक पहचान को ठुकराने वाले मुल्क और समुदाय से उम्मीद भी क्या लगाई जाए। कभी अरबी, कभी तुर्की। कभी चीन के दोस्त कभी अमेरिका के दोस्त। क्या होगा पाकिस्तान का?