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मंगलवार, 29 अप्रैल, 2025
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पाकिस्तान के होश तभी ठिकाने लगेंगे जब उसे घेर कर दुनिया में अलग-थलग कर दिया जाएगा

अगर हमें दीर्घकालिक ‘सकारात्मक शांति’ हासिल करनी है यानी समस्या को जड़ से खत्म करना है तो अंतिम राजनीतिक समाधान ढूंढना होगा.

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अभी हफ्ताभर पहले ही पहलगाम के पास बैसरन घाटी के मनोरम मैदान में सैलानियों और हनीमून मनाने गए जोड़ों की भीड़ पर आतंकवादी हमले ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया. उस हमले ने देश में फिर से देशभक्ति और अंधी राष्ट्रीयता की लहर पैदा कर दी. टीवी न्यूज़ चैनलों पर तमाम रंग के विशेषज्ञ तार्किकता का अक्सर कोई लिहाज़ किए बिना अपनी टिप्पणी और सलाह देने लगे.

सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी (सीसीएस) की बैठक के, जिसमें चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की गैरहाजिरी खल रही थी, बाद सरकार ने तुरंत प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हुए जवाब देने के कई कदमों की घोषणा की जिनमें सिंधु जल संधि को स्थगित करने से लेकर सभी पाकिस्तानी सैन्य सलाहकारों को अवांछित व्यक्ति घोषित करना तक शामिल था. इन सभी कदमों न केवल हालात की गंभीरता को रेखांकित किया बल्कि भावी कार्रवाई के संकेत भी दे दिए. रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री, दोनों ने राष्ट्र के आक्रोश को स्वर देते हुए कड़े बयान दिए और न केवल हमला करने वालों को सज़ा देने बल्कि इसके पीछे छिपे साजिशकर्ताओं को निशाना बनाने के भी संकल्प व्यक्त किए.

इन उपायों का पहले कदम के तौर पर स्वागत किया जा सकता है, लेकिन इन्हें अलग-थलग कदमों के रूप में नहीं देखा जा सकता. हर एक जवाबी कदम का स्पष्ट मकसद और सुपरिभाषित नतीजा होना चाहिए. सबसे पहली शर्त यह है कि वह कदम पाकिस्तान को “सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देने से विश्वसनीय तथा निर्णायक रूप से रोकता हो”. इस तरह के कदम पहले भी उठाए गए हैं, जिनमें 2016 में उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में पुलवामा आतंकी हमले के बाद बालाकोट पर हवाई हमला शामिल है, लेकिन इन जवाबी कार्रवाइयों के बावजूद पाकिस्तान हिंसा के आत्मघाती रास्ते पर चलते रहने से बाज नहीं आया. इसलिए, वक्त की मांग यह है कि गहराई में जाकर मूल तथा केंद्रीय मसले को निबटाया जाए ताकि पाकिस्तान का सत्तातंत्र की समझ में आ जाए कि उसके लिए बुद्धिमानी की बात क्या है.

इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि हमारी सामूहिक जवाबी कार्रवाई ऐसी हो जिससे हमारे समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न न हो.

‘नकारात्मक शांति’ या ‘सकारात्मक शांति’?

आतंकवादी कार्रवाई का मकसद सामान्य नागरिकों को दहशत में डालना और उनकी ज़िंदगी या उनके विचारों को जबरन बदलना होता है. अगर इस ताज़ा आतंकी कार्रवाई के कारण पर्यटन तुरंत बंद हो जाता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ता है, या हमारी राजनीतिक व्यवस्था में दरार पड़ती है तो इसका मतलब होगा कि आतंकवादी और उनके आका अपने मंसूबों में कामयाब हो गए. इसलिए ज़रूरी है कि यह सब न होने दिया जाए. कश्मीर से सैलानियों का पलायन तो समझा जा सकता है, लेकिन देश के विभिन्न भागों में कश्मीरी छात्रों को निशाना बनाना समझ से परे है क्योंकि यह आतंकवादियों के खेल के मोहरे बनना ही है.

जम्मू-कश्मीर में अब तक हमें ‘नकारात्मक शांति’ ही हासिल हुई है. इसके मायने हैं कि हिंसा की वजहों का निबटारा हुए बिना हिंसा अपेक्षाकृत रूप से नहीं हुई. यह दो युद्धरत देशों के बीच अस्थायी युद्धविराम जैसा नहीं है. आतंकवाद और अलगाववाद विरोधी कार्रवाइयां तीन दशक से चल रही हैं और हर साल सैकड़ों आतंकवादी मारे जाते हैं, लेकिन स्थानीय कैडरों समेत आतंकवादी कैडरों की संख्या लगभग जस की तस रही है. अगर आतंकवादी संगठन युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं और उन्हें ‘बंदूक उठाने’ को तैयार कर रहे हैं, तो यह चिंता की बात है. इसलिए आत्म-परीक्षण की ज़रूरत है क्योंकि अगर हमें दीर्घकालिक ‘सकारात्मक शांति’ हासिल करनी है यानी समस्या को जड़ से खत्म करना है तो अंतिम राजनीतिक समाधान ढूंढना होगा.


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दिखावे के लिए नहीं, सफलता के लिए जवाब

यही बात सीमा पार के उन उपायों पर भी लागू होती है जिनकी घोषणा की गई है या जिन पर विचार किया जा रहा है. हर एक प्रस्ताव पर उसके तार्किक अंत को लेकर भी गहन विचार किया जाना चाहिए और उसके लिए ‘रेड टीम’ तैयार की जानी चाहिए. सिंधु जल संधि को स्थगित करना वास्तव में एक बड़ा कदम है, जो हमारे संकल्प को ज़ाहिर करता है.

लेकिन सवाल यह है कि इसे लागू कैसे किया जाएगा?

नदी का पानी प्रकृति के नियम के विरुद्ध जाकर खुद बहना बंद नहीं करता. हाल के दौर में पानी का स्टोरेज करने के और नदी के रुख को बदलने के उपाय किए गए हैं, लेकिन ऐसे काम अभी पूरे नहीं हुए हैं. सवाल यह भी है कि पहले से ही सूखे जैसी स्थिति का सामना कर रहे पाकिस्तान की आबादी पर इसका क्या असर पड़ेगा? यह उनकी अर्थव्यवस्था पर निश्चित ही बुरा असर डालेगा, लेकिन यह बोझ उसी आबादी को ढोना पड़ेगा, जो पहले ही घोर कठिनाइयों का सामना कर रही है. पूरी संभावना यह है कि इस तरह की घोषणा से उन्हीं तत्वों को फायदा होगा, जो भारत-विरोधी भावनाओं को भुनाकर ज़िंदा हैं. यह खासकर बलूच बगावत जैसे आंतरिक समस्याओं से अपने अवाम का ध्यान हटाने पर आमादा, संकटग्रस्त पाकिस्तानी सत्तातंत्र के लिए भी लोगों को एकजुट करने का मुद्दा बन सकता है. परीक्षा के दौर में इस तरह के फैसले मुश्किल भरे होते हैं.

यह सलाह भी दी जा रही है कि कराची की घेराबंदी करने के लिए भारतीय नौसेना का इस्तेमाल किया जाए. यह कहना तो आसान है मगर करना मुश्किल है. हममें यह करने की क्षमता हो सकती है, लेकिन इस तरह की घेराबंदी की कैसे जाएगी? विदेशी झंडे वाले जहाजों को जबरन रोका नहीं जा सकता और न उनका रास्ता बदला जा सकता है. अगर कोई जहाज अपने रास्ते पर ही चलता रहे तो उसके मामले में उपाय सीमित रह जाते हैं. कई देशों के चालक दल वाले किसी हथियार विहीन नागरिक व्यापारिक जहाज पर संभवतः गोली नहीं चलाई जा सकती. तो, किसी कार्रवाई की घोषणा करके उसे अंजाम न दे पाना खुद को शर्मसार करना ही होगा. इसलिए, सभी विकल्पों पर सावधानी से विचार करना और कोई कदम उठाने का फैसला करने से पहले चुनौतियों का आकलन करना ज़रूरी है, चाहे मामला नागरिक दायरे का हो या सैन्य दायरे का और संघर्ष के नियमों, अंतिम नतीजों और संघर्ष से बाहर निकलने के विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए.

सख्त जवाब देना बहुत ज़रूरी है, लेकिन वह जवाब ऐसा हो जिसके साथ सफलता का आश्वासन जुड़ा हो. वह जवाब कब, कहां और किन साधनों के ज़रिए दिया जाएगा यह सब तय करना हमारा काम है.

दुखती रग पर चोट

सबसे अहम मुद्दा यह है कि हम उन जगहों पर हमला करें जिनके कारण पाकिस्तान अपना रास्ता बदलने को मजबूर हो जाए. उसके व्यवहार में वांछित बदलाव लाने के लिए उसकी किन दुखती रगों पर चोट की जाए? गद्दी के पीछे किसकी ताकत है? इस तरह के फैसले पाकिस्तानी सत्तातंत्र की अंदरूनी छोटी-सी मंडली करती है, इसलिए हमें उसे ही निशाना बनाने पर ज़ोर देना होगा.

पेंटागन के पूर्व अधिकारी माइकल रुबिन ने आतंकवाद को बढ़ावा देने की उनकी भूमिकाओ के कारण पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर की तुलना ओसामा बिन लादेन से की है. एक अच्छी शुरुआत करने के लिए हम उन लोगों और संगठनों के नाम ले सकते हैं, उन पर प्रतिबंध लगा सकते हैं और अपनी अंतर्राष्ट्रीय साख का इस्तेमाल कर सकते हैं. आतंकवाद को शह देने वालों के करीबी लोगों को उन देशों से जबरन निकाला जा सकता है जहां वह पढ़ाई वगैरह कर रहे हों. हमें वहीं चोट करनी है जहां उसे सबसे ज्यादा दर्द पहुंचे.

जाने-पहचाने अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी का अंतर्राष्ट्रीय वारंट जारी करने का अच्छा परिणाम मिलेगा; जैसा कि फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते के मामले में निकला, जिन्हें इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट द्वारा जारी किए गए वारंट पर मार्च 2025 में गिरफ्तार किया गया. पाकिस्तान के नेतृत्व के होश तभी ठिकाने लगेंगे जब उसे ऐसे घेर लिया कि वह कहीं भाग न पाए और पूरी दुनिया में अलग-थलग पड़ जाए.

इन लोगों की पहचान करना और उनके खिलाफ कार्रवाई करना असली चुनौती है. हमें सिर कलम करना है, चाहे यह कानूनी जंग से हो या सैन्य उपायों से. इसी के साथ हम सबको एक अवाम के रूप में अपना संतुलन नहीं खोना है, ताकि अनजाने में हम आतंकवाद के इस खेल के मोहरे न बन जाएं. हमें सरकार को भी समय देना होगा ताकि वह उपयुक्त जवाब सोच और दे सके.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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