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Sunday, 22 December, 2024
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गिलगित-बाल्टिस्तान का ‘दर्जा बढ़ाने’ का पाकिस्तान का कदम भारत-चीन गतिरोध से जुड़ा है

गिलगित-बाल्टिस्तान का पाकिस्तान में 'समावेश' क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे संबंधी क्रियाकलापों को वैधता प्रधान करेगा, और बीजिंग को वहां अपनी पैठ बढ़ाने का अवसर दे सकेगा.

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लगता है कि पाकिस्तान ने खुद को एक और उलझन में डाल लिया है. शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की 15 सितंबर की वर्चुअल बैठक में कश्मीर, जूनागढ़ और अन्य भारतीय क्षेत्रों पर दावा जताने वाला अपना बेतुका मानचित्र लहराने के बाद अब लगता है कि सदी का सबसे बड़ा यू-टर्न लेते हुए पाकिस्तान गिलगित-बाल्टिस्तान को पूर्ण प्रांत का दर्जा देने वाला है. यदि इसे उसके 73 वर्षों के रवैये की पृष्ठभूमि में देखें तो इस बदलाव का यही अर्थ होगा कि कश्मीर विवाद खत्म हो गया है, और दोनों पड़ोसियों के लिए ये बेहतर होगा कि वे एक लाल पेंसिल उठाएं और नक्शे पर नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा में बदल दें. लेकिन मामला यदि पाकिस्तान का हो तो कुछ भी इतना सरल नहीं हो सकता. ऐसा लगता है कि रावलपिंडी दोनों हाथों में लड़्डू चाहता है, खासकर जब लड्डू चीन निर्मित हो.

सबसे पहले तो, गिलगित-बाल्टिस्तान का पाकिस्तान में प्रस्तावित ‘समावेश’ से क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) संबंधी क्रिया-कलापों को वैधता मिलेगी और बीजिंग वहां अपनी पैठ बढ़ा सकेगा. दूसरे, यदि भारत-चीन संघर्ष भड़कता है, और उसी समय पाकिस्तान एक अलग मोर्चा खोलता है, तो कश्मीर सही मायने में एक अंतरराष्ट्रीय मसला हो जाएगा, और परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र को दखल देने पर मजबूर होना पड़ेगा. भारत ने भी इस परिदृश्य पर विचार किया है, लेकिन एक महत्वपूर्ण अंतर ये है कि भले ही पाकिस्तान ने एक बहुरंगी नक्शे के ज़रिए अपने दावों का विस्तार किया हो लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि गिलगित-बाल्टिस्तान उसके पास ही रहेगा. अगर युद्ध होता है, तो कब्जे वाले इलाके विजेता के पास रह जाते हैं. और जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) काम करती है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि जिसका कब्जा हो, उसे बढ़त प्राप्त होती है. यानि स्थिति और भी दिलचस्प हो गई है.


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एससीओ में बड़ा दांव खेलने की पाकिस्तानी कोशिश

पाकिस्तान के व्यवहार को कोरी ढिठाई नहीं माना जा सकता है. याद रहे कि पाकिस्तान द्वारा न केवल कश्मीर, बल्कि सर क्रीक, जूनागढ़, और सियाचिन ग्लेशियर के इलाकों को भी अपना क्षेत्र बताने वाले नक्शे के प्रकाशन पर हल्की हलचल पैदा हुई थी. ट्विटर पर और नौकरशाही में उसकी भद्द पिटी, और बात वहीं थम गई लेकिन उसके बाद पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने उसी नक्शे को एससीओ की बैठक में प्रदर्शित करने का फैसला किया. उसकी ये कार्रवाई संगठन के चार्टर के अनुच्छेद 2 का उल्लंघन थी, जो इस प्रकार नक्शों में छेड़छाड़ की अनुमति नहीं देता है. उस घटना के बाद जहां राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बैठक छोड़ दी, वहीं रूस की झुंझलाहट को इस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है कि वह भारत को 21 मिग-29 लड़ाकू विमानों की बिक्री के अरबों डॉलर के सौदे की उम्मीद कर रहा है.

पाकिस्तान दरअसल एक बड़ा दांव खेल रहा था. चीन के प्रभाव वाले एक बहुराष्ट्रीय मंच पर पेश कर अपने बेतुके नक्शे को वह ‘आधिकारिक’ दर्जा दिलाने की उम्मीद कर था. उल्लेखनीय है कि उस मानचित्र में लद्दाख सीमा को असीमांकित दिखाया गया है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसके उकसावे पर पाकिस्तान ने ये शरारत की होगी.

पाकिस्तान के कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान मामलों के मंत्री अली अमीन ख़ान गंडापुर – भारत का समर्थन करने वाले किसी भी देश पर मिसाइल हमले की धमकी देने वाला व्यक्ति – ने 16 सितंबर को घोषणा की कि इमरान ख़ान सरकार ने गिलगित-बाल्टिस्तान, दुनिया के आखिरी उपनिवेश, को संवैधानिक अधिकार देने का फैसला किया है.

‘कबाइलियों’ के 1947 के हमले के बाद वृहद कश्मीर से अलग हुए इस क्षेत्र की अप्रैल 1949 के ‘कराची समझौते‘ के ज़रिए एक और सर्जरी की गई थी. एक पाकिस्तानी मंत्री, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के ‘राष्ट्रपति’ और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधि के बीच हुआ यह समझौता 1990 तक गोपनीय रहा था. समझौते के तहत तथाकथित ‘आज़ाद कश्मीर’ के आकार से भी पांच गुना बड़ा क्षेत्र काटकर उसे तब नार्दर्न एरियाज़ का नाम दिया गया था. उसे वैधानिक रूप से अधर में लटका कर रखा गया था – संवैधानिक रूप से यह न तो पाकिस्तानी ‘क्षेत्र’ था और न ही ‘कश्मीर’ का हिस्सा, बल्कि उसे पूरी तरह से इस्लामाबाद स्थित कश्मीर मामलों के मंत्रालय के अधीन रखा गया था.

पिछले 73 सालों से यही स्थिति थी, यहां तक कि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने भी इस क्षेत्र की स्थिति में किसी भी बदलाव की अनुमति देने से इनकार कर दिया, क्योंकि यह कश्मीर मसले पर पाकिस्तान के ‘सैद्धांतिक’ रुख से असंगत होता. प्रकट रूप से नवंबर के स्थानीय चुनावों में लोगों का भरोसा जीतने के उद्देश्य से पाकिस्तान ने अपनी कश्मीर नीति के इस प्रमुख घटक में बदलाव का फैसला किया है. हालांकि दो बड़े विपक्षी दलों, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन), और उनके नेताओं के लिए बनी विषम परिस्थितियों को देखते हुए यह कारण वाजिब नहीं लगता है. इसके अलावा, असैन्य सरकार के पास सेना की सहमति के बिना इस तरह के निर्णय लेने की क्षमता भी नहीं है. और सेना गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों को कोई अधिकार देने की बिल्कुल भी इच्छुक नहीं है. दूरगामी महत्व के इस नीतिगत परिवर्तन के दो संभावित कारण हो सकते हैं.

चीनी गतिविधियों को आसान बनाना

सबसे पहले, गिलगित-बाल्टिस्तान पर पाकिस्तानी कब्जे को वैध बनाने का मतलब ये है कि चीनी निवेशकों के लिए उद्योग स्थापित करने या जमीन अधिग्रहित करने में आने वाली बाधाएं दूर हो सकेंगी. क्योंकि कोई भी ढंग का बैंक उस इलाके की परियोजनाओं को ऋण नहीं देना चाहेगा जहां जमीन के टाइटल में स्वामित्व (पाकिस्तानी/कश्मीरी/स्थानीय) को लेकर अस्पष्टता हो. वास्तव में, कश्मीर मामलों के मंत्री अली अमीन खान गंडापुर ने ये भी घोषणा की थी कि चीनी वित्तपोषित मोकपोंदास स्पेशल इकोनॉमिक जोन का काम अब शुरू हो सकेगा. यह परियोजना आधिकारिक रूप से 250 एकड़ और अनधिकृत रूप से 500 एकड़ क्षेत्र में स्थापित होगी. इससे पहले, डोगरा काल के पुरातन नियमों के तहत भूमि का अधिग्रहण करने की कोशिश की गई थी, जिसमें बिना मुआवजे के सामुदायिक भूमि का अधिग्रहण करने की छूट है. इस प्रयास का विरोध होना स्वाभाविक था. पास ही स्थित दियामर में एक अन्य परियोजना के लिए अधिग्रहण बिल्कुल अलग प्रावधानों के तहत किया गया था. अलग-अलग नियमों के कारण बनी भ्रम की स्थिति परियोजनाओं के कार्यान्वयन में देरी की वजह भी बनी है, जिनमें चीनी-वित्तपोषित गिलगित केआईयू हाइड्रोपावर प्लांट का काम, और चीनी नागरिकों द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले भी शामिल हैं. पूर्व उपनिवेश को पूर्ण संवैधानिक दर्जा देकर इन विसंगतियों को दूर किया जा सकता है.

हालांकि इसके पीछे एक और संभावित कारण भी हो सकता है, जो कि इस फैसले के समय से जुड़ा हुआ है.

एलएसी पर संघर्ष और पाकिस्तान पर इसकी छाया

लद्दाख में भारत और चीन के बीच संघर्ष नियंत्रण से बाहर हो सकता है, यह बात किसी से छुपी नहीं है. याद रहे कि रक्षा प्रमुख (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत भी दो संभावित मोर्चों पर लड़ाई के बारे में आगाह कर चुके हैं. ऐसा लगता है कि पाकिस्तान यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है कि, यदि भारत और पाकिस्तान (और चीन) कश्मीर में खुले युद्ध में भिड़ते हैं, तो वैसे में कश्मीर का यह हिस्सा संवैधानिक रूप से सुरक्षित रहे, और अचानक शत्रुता भड़कने की स्थिति में पारित संयुक्त राष्ट्र के किसी भी मध्यस्थता प्रस्ताव के दायरे से बाहर रहे.

चीन के समर्थन से, पाकिस्तान इस आधार पर कश्मीर मुद्दे को सुरक्षा परिषद के एजेंडे में शामिल करने की तीन कोशिशें कर चुका है कि जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के बाद दोनों परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध का खतरा बढ़ गया है. हर बार, सुरक्षा परिषद ने इसे एक द्विपक्षीय और चर्चा के लिए अप्रासंगिक मुद्दा करार दिया. लेकिन जब इसमें दो के बजाय तीन परमाणु शक्तियां शामिल होंगी, तो संयुक्त राष्ट्र को तत्परता से हस्तक्षेप करना पड़ सकता है.
इनमें से कोई भी, या दोनों ही, परिदृश्य इन घनिष्ठ मित्रों के पक्ष में जाता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)


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