जब रात का भय खत्म हुआ, तो प्लाटून को अपना अधिकारी मिला: “उसे शायद ज़िंदा ही बुरी तरह से काटा और नपुंसक बना दिया गया था, और उसकी खाल कैंप के पास चट्टानों पर खूंटों से टंगी हुई थी,” सैनिक और उपन्यासकार जॉन मास्टर्स ने बाद में लिखा. “वे कभी कैदियों को नहीं लेते थे, बल्कि अपने हाथ लगे किसी भी घायल या मृत व्यक्ति को विकृत कर सिर कलम कर देते थे,” उन्होंने आगे कहा. ग़ुस्से में पस्तून महिलाएं भी इस क्रूरता में शामिल हो जाती थीं: “वे कैदियों को हज़ार ज़ख्मों की मौत देतीं, हर जख्म में घास और कांटे ठूंसतीं.”
ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा अफगान सीमावर्ती क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए लड़ी गई लंबी और क्रूर युद्धनीति के सौ साल बाद, पाकिस्तान खुद को एक अंतहीन युद्ध में उलझा हुआ पाता है. इस संघर्ष में होने वाली मौतों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है, जिसे बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के तीव्र हमलों और ख़ैबर पख्तूनख्वा में फिर से सिर उठा रहे जिहादी आंदोलन ने बढ़ावा दिया है.
पाकिस्तान के सैन्य और नागरिक नेतृत्व ने इन हमलों के लिए कठोर बदले की कसम खाई है. लेकिन इस युद्ध में, पाकिस्तान तभी जीत सकता है जब वह अपनी साम्राज्यवादी दमनकारी युद्धनीति को छोड़ दे, जिसने उसकी संस्थागत सोच को जहरीली गंदगी की तरह जकड़ रखा है. इस विद्रोह को कुचलने के लिए सेना की मौजूदगी जरूरी है, लेकिन राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से रचनात्मक प्रयास भी उतने ही अहम हैं. मगर, इस्लामिक रिपब्लिक की प्रेटोरियन गार्ड (सैन्य सत्ता) बार-बार यह साबित कर चुकी है कि वह ऐसे किसी भी प्रयास में विफल है.
अंतहीन नुकसान
इतिहासकार एंड्रयू वाटर्स ने दिखाया है कि साम्राज्य के रणनीतिकारों के लिए वे विद्रोह मुश्किल चुनौती थे, जिन्हें वे कुचलने की कोशिश कर रहे थे. “छोटी सैन्य टुकड़ियां जब लुटेरों या विद्रोही गांवों को दंडित करने के लिए भेजी जातीं, तो बड़ी संख्या में दुश्मन कबीलों से घिर जातीं, जिन्हें बचाने के लिए महंगे राहत अभियानों की जरूरत पड़ती, जिससे संचार मार्ग भी असुरक्षित हो जाते.” इन राहत अभियानों को सुचारू रूप से चलाने के लिए सैन्य चौकियों की जरूरत होती, जिन तक पहुंचने के लिए सड़कों या रेलवे लाइनों की आवश्यकता थी. इन सड़कों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सैनिक तैनात करने पड़ते.
इतिहासकार एलिज़ाबेथ कोल्स्की के अनुसार, उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश शासन के पहले तीस वर्षों में 40 से अधिक दंडात्मक अभियान चलाए गए, जिनमें फसलें जला दी गईं, पशुओं को मार दिया गया, और पूरे गांव नष्ट कर दिए गए. इन अभियानों को आधिकारिक तौर पर यह कहकर सही ठहराया गया कि “वे कड़े शासन और उन सीमावर्ती इलाकों में शांति स्थापित करने के लिए जरूरी थे, जहां पहले कभी कानून-व्यवस्था नहीं थी.”
नतीजतन, हर बार विद्रोही कबीलों को दंडित करने के लिए शुरू किया गया एक छोटा सैन्य अभियान बड़े और खर्चीले युद्ध में बदल जाता, जिसकी लागत औचित्य से परे थी. ब्रिटिश साम्राज्य को अफगानिस्तान की सीमा को स्थिर बनाना जरूरी था ताकि प्रतिद्वंद्वी ताकतों के खतरे से बचा जा सके—लेकिन इसे दिवालिया हुए बिना करना जरूरी था.
युद्ध का मूल आधार भौगोलिक नियंत्रण है. ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा का क्षेत्रफल 1,01,741 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जबकि पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत बलूचिस्तान 3,47,190 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इन इलाकों में सैन्य तैनाती के सटीक आंकड़े मिलना मुश्किल है, लेकिन विद्वान जाहिद अली ख़ान के अध्ययन के अनुसार, 2009-2010 के प्रमुख सैन्य अभियानों के दौरान पाकिस्तान ने इन सीमावर्ती इलाकों में लगभग 1,40,000 सेना और फ्रंटियर कोर के जवानों को तैनात किया था.
यह संख्या बहुत कम है. नियंत्रण रेखा (एलओसी) की सुरक्षा और कश्मीर में सक्रिय जिहादियों से लड़ने के लिए भारत लगभग 3,20,000 सैनिकों का उपयोग करता है, इसके अलावा करीब 1,00,000 अर्धसैनिक बल भी तैनात रहते हैं. जम्मू और कश्मीर का क्षेत्रफल 42,241 वर्ग किलोमीटर है, जो केवल ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा के आधे से भी कम है.
1947-48 के युद्ध से पाकिस्तान सेना के रणनीतिकारों ने सीखा कि अनियमित युद्ध (गैर-पारंपरिक लड़ाई) के जरिए वे भारत की बड़ी सेना को उलझाए रख सकते हैं और उसके संसाधनों को कमजोर कर सकते हैं. लेकिन आज, वे यह भी समझ रहे हैं कि यह रणनीति उनके लिए भी नुकसानदेह साबित हो सकती है. आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान को रक्षा खर्च बढ़ाना पड़ा है, जिससे मानव विकास पर असर पड़ रहा है, जैसा कि मुहम्मद लुकमान और निकोलाओस एंटोनकाकिस ने दिखाया है.
इसके बावजूद, सेना अपने विशाल सीमा क्षेत्रों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम रही है. पत्रकार इम्तियाज बलोच के अनुसार, बलूचिस्तान के कई प्रमुख सड़क मार्ग या तो विद्रोहियों के कब्जे में हैं या लुटेरों के नियंत्रण में हैं. इसका सबसे आसान समाधान और अधिक सैनिक भेजना हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान ऐसा करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि इससे नियंत्रण रेखा (LoC) पर उसकी स्थिति कमजोर पड़ सकती है.
ब्रिटिश साम्राज्य के योजनाकारों को भी इसी समस्या का सामना करना पड़ा था—और उन्होंने इसका एक समाधान खोजने का दावा किया था.
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हवा से युद्ध
1920 के दशक से, रॉयल एयर फ़ोर्स (RAF) के रणनीतिकारों ने साम्राज्य की कई बगावतों को दबाने के लिए हवाई शक्ति के इस्तेमाल करने की वकालत की, जो इराक से लेकर भारत के उत्तर-पश्चिम तक फैली थीं. एयर मार्शल सर जॉन साल्मंड ने सुझाव दिया कि हवाई बमबारी से झोपड़ियों की छतें उड़ाई जा सकती हैं, जिससे उनकी मरम्मत मुश्किल हो जाएगी, खासकर सर्दियों में. इससे खेती और फसल कटाई बाधित हो सकती है, जो विद्रोही जनजातियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी. इसके अलावा, उनके ईंधन और पशुधन को नष्ट कर आर्थिक रूप से कमजोर किया जा सकता था.
ब्रिटिश साम्राज्य के रणनीतिकारों को लगा कि जबरदस्त ताकत के इस्तेमाल से विद्रोही आत्मसमर्पण के लिए मजबूर हो जाएंगे, और यह जमीनी अभियानों की तुलना में कम संसाधनों में संभव हो सकेगा.
हाजी मिर्ज़ाली खान वज़ीर, जिन्हें फ़क़ीर ऑफ़ इपी के नाम से जाना जाता था, के नेतृत्व में विद्रोहियों से लड़ते समय, हवाई हमलों में अक्सर उन्हीं गांवों को निशाना बनाया गया, जहां से उनके लड़ाके आते थे. इतिहासकार एंड्रयू एम रो के अनुसार, इंग्लैंड में तीन महीने की छुट्टी से लौटे सार्जेंट अल्बर्ट हॉलोवे ने तोची नदी के किनारे एक गांव पर सैकड़ों गोलियां चलाईं. बाद में, उन्होंने भिट्टानी क्षेत्र पर कई बार बमबारी की, जिसमें 20-पाउंड और 112-पाउंड के बम गिराकर जनजातियों के पशुधन को नष्ट किया गया. उनके लॉग में लिखा था: “मवेशी इधर-उधर भागे, कुछ मारे गए. ऊंट और भेड़ें तितर-बितर हो गए.”
हैरानी की बात नहीं थी कि जनजातीय लड़ाके इन नई युद्ध तकनीकों के अनुकूल हो गए. उन्होंने रात में चलना शुरू कर दिया ताकि हवाई निगरानी से बच सकें. पहाड़ों की चोटियों से उन्होंने नीचे उड़ने वाले विमानों को गिराने में भी महारत हासिल कर ली. पकड़े गए पायलटों का हश्र अक्सर बेहद क्रूर होता था.
RAF को आखिरकार “गोली चिट्स” जारी करनी पड़ी—”गोली” पश्तो में गेंद को कहते हैं—जो यह वादा करती थी कि अगर पकड़े गए पायलटों को बिना विकृत किए वापस किया गया तो इनाम दिया जाएगा.
जीवन बर्बाद
हवाई हमलों की क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश हुकूमत वज़ीरिस्तान पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं पा सकी. इतिहासकार सना हारून बताती हैं कि “आख़िरकार, ब्रिटिश सरकार ने वज़ीरिस्तान में भत्तों में भारी बढ़ोतरी करके कबीलों को अपने साथ मिला लिया—1919 में यह राशि लगभग 1.3 लाख रुपये थी, जो 1935 तक बढ़कर 2.8 लाख रुपये हो गई.” इसके अलावा, ख़ासदार योजना के तहत लगभग 19 लाख रुपये स्थानीय कबीलों द्वारा गठित मिलिशिया को हथियार और आर्थिक सहायता देने में खर्च किए गए. फ़क़ीर ऑफ़ इपी को कभी पकड़ा नहीं जा सका, और वह पाकिस्तान में ही रहे, बंटवारे का कड़ा विरोध करते हुए.
साम्राज्य के भीतर कई रणनीतिकार समझते थे कि उत्तर-पश्चिम में स्थिरता लाने के बेहतर तरीके हो सकते थे. उदाहरण के लिए, इस क्षेत्र में व्यापार मार्गों का विस्तार और सुरक्षा सुनिश्चित करना कबीलों के लिए आय के नए स्रोत खोल सकता था, जिससे वे कृषि संकट के समय मैदानों पर हमले करने की ज़रूरत से बच सकते थे. एक वैकल्पिक कृषि अर्थव्यवस्था विकसित करने में समय लगता, लेकिन यह कहीं अधिक टिकाऊ समाधान साबित होता.
ब्रिटिश साम्राज्य ने कभी ऐसी व्यवस्था बनाने की परवाह नहीं की, जो लंबे समय तक स्थिर रह सके—यह समझना मुश्किल नहीं है. लेकिन जो अधिक चौंकाने वाला है, यह है पाकिस्तान सरकार का अपने ही लोगों के प्रति लापरवाह रवैया. उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के सबसे पिछड़े हिस्सों में से एक हैं, जहां बुनियादी ढांचे और शिक्षा में वह निवेश नहीं किया गया जो देश के अन्य हिस्सों को आगे बढ़ाने में मददगार साबित हुआ. सेना ने लोकतांत्रिक राजनीति को विकसित होने देने के बजाय जिहादी गुटों और कबायली सरदारों के सहारे शासन करने का रास्ता चुना.
यह संकट संकेत दे रहा है कि एक तोड़ की स्थिति करीब आ रही है. और अगर इसे और क्रूरता से टालने की कोशिश की गई, तो यह पाकिस्तान को एक ऐसे मोड़ तक ले जा सकता है जहां से वापसी संभव नहीं होगी.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटर एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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