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Saturday, 27 April, 2024
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भारत के साथ बुरे फैसले करता रहता है पाकिस्तान, इसकी असुरक्षा की भावना शांति को नुकसान पहुंचा रही है

पाकिस्तान द्वारा चयनित विकल्प अभी तक खराब ही रहे हैं. उसके पास बेहतर विकल्प भी हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वह उन्हें अपनाए ही.

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भारत-पाकिस्तान संबंधों के सामान्यीकरण की दिशा में दिख रही मामूली प्रगति कोई महत्वपूर्ण बदलाव ला सकेगी, ये अभी स्पष्ट नहीं है. लेकिन ये बात बेहद स्पष्ट है कि पाकिस्तान के साथ संबंधों में बेहतरी एक सीमा तक ही हो सकती है. भारत और पाकिस्तान के बीच शक्ति के भारी और निरंतर बढ़ते असंतुलन के कारण पड़ोसी देश हमेशा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहेगा और इसके परिणामस्वरूप वह भारत से मुकाबला करने की अपनी कोशिशों को नहीं छोड़ेगा. इस पर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए.

पाकिस्तान द्वारा चयनित विकल्प अभी तक खराब ही रहे हैं. उसके पास बेहतर विकल्प भी हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वह उन्हें अपनाए ही.

नरेंद्र मोदी सरकार ये उम्मीद कर सकती है कि अंतत: पाकिस्तान के प्रभावशाली वर्ग को शायद ये महसूस हो कि भारत के साथ तीव्र प्रतिस्पर्धा उनके देश को गरीबी और पिछड़ेपन के भंवर से निकलने नहीं देगी. और शायद यह अहसास पाकिस्तान को अपना रास्ता बदलने के लिए प्रेरित करे. हो सकता है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा अपने हालिया भाषण में इसी ओर इशारा कर रहे हों, हालांकि स्पष्टतया यहां संदेह की बहुत गुंजाइश है.


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साझा खतरे की अनुपस्थिति

क्या पाकिस्तान की रणनीतिक सोच बदल गई है? सापेक्ष शक्ति संतुलन जैसी संरचनात्मक परिस्थितियां राष्ट्रों के व्यवहार को काफी प्रभावित करती हैं, लेकिन ये परिस्थितियां अपरिहार्य नहीं होती हैं और न ही राष्ट्रों के बीच शत्रुता तय होती हैं. विभिन्न वजहों से, इन परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्र परस्पर सहयोगी बन सकते हैं. दशकों तक लड़ाई लड़ने के बाद फ्रांस और जर्मनी मुख्यतया इस वजह से सहयोगी बन गए कि सोवियत संघ के रूप में यूरोप में एक बड़ा साझा खतरा पैदा हो गया था. आज इस बात को भुलाया जा चुका है कि दो विश्व युद्धों के बीच के दौर में कनाडा और अमेरिका एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध की योजना पर काम कर रहे थे. आज उनके बीच दुनिया की सबसे लंबी अरक्षित थल सीमा है और दोनों की एक साझा मिसाइल प्रतिरक्षा व्यवस्था है, क्योंकि वे हिटलर के जर्मनी और फिर सोवियत संघ के खिलाफ परस्पर सहयोगी बन गए थे. हमारे क्षेत्र के लिए अभी तक ऐसा कोई साझा खतरा नहीं उभरा है जो कि भारत और पाकिस्तान को साथ ला सके. वैसे, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, भले ही ये अभी मुमकिन नहीं लगता हो.

लेकिन एक साझा खतरे के उभार के बिना भी, पाकिस्तान का दृष्टिकोण संभवतः एक और कारक की वजह से बदल सकता है: अपने से लगभग 10 गुना बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश की ताकत की बराबरी करने का असंभव सा लक्ष्य. इस वजह से इस्लामाबाद में और रावलपिंडी में भी, पाकिस्तान के रवैये पर पुनर्विचार की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. पुनर्विचार का मतलब ये नहीं होगा कि पाकिस्तान अपनी क्षमताओं के दायरे में भारत को संतुलित करने की कोशिश बंद कर देगा. वास्तव में, भारत के सभी पड़ोसी, उनके लिए जब भी संभव हो भारतीय शक्ति को संतुलित करने का प्रयास करते हैं. नई दिल्ली को ये मानकर चलना चाहिए कि दक्षिण एशिया में भारत के भौतिक वर्चस्व के कारण पड़ोसियों का ऐसा रवैया अपेक्षित है, और इसे सहन भी करना चाहिए जब तक कि कुछ खास हदों को पार नहीं किया जाता हो, जैसे कि आतंकवाद को प्रायोजित करना या विरोधी ताकतों को अपने यहां पांव जमाने के लिए सुविधाएं देना. जाहिर तौर पर कहीं अधिक बड़ा और मजबूत होने के कारण पाकिस्तान की स्थिति श्रीलंका जैसे भारत के अन्य पड़ोसी देशों से अलग है. वैसे यह अंतर केवल मात्रात्मक भर है, क्योंकि पाकिस्तान के लिए भी भारत की ताकत की बराबरी का प्रयास करना बहुत ही कठिन कवायद है.

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फिर भी, पाकिस्तान अपनी रक्षा के लिए आगे भी एक सक्षम सैन्य बल बनाए रख सकता है. पाकिस्तानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा संभवत: भारत को अपने देश के अस्तित्व के लिए खतरा मानता है, हालांकि परमाणु ताकत होने की वजह से पाकिस्तान को अस्तित्वगत संकट का डर नहीं होना चाहिए. और भारतीय शक्ति को संतुलित करने के लिए पाकिस्तान की सहयोगी देशों पर निर्भरता भी जारी रहने वाली है. यह उम्मीद करना मूर्खता होगी कि पाकिस्तान चीन की मदद लेना बंद कर देगा, विशेष रूप से अब जबकि बीजिंग के पास इस्लामाबाद के प्रयासों में सहायता के भौतिक साधन भी हैं.

खुद का ही नुकसान करता पाकिस्तान

पाकिस्तान को भारत के साथ बराबरी करने की कोशिश में खुद को थकाने की जरूरत नहीं है. यदि जीडीपी के पैमाने पर देखा जाए तो बराबरी की मरीचिका को हासिल करने के निरर्थक प्रयास में पाकिस्तान ने दशकों तक सेना पर भारत के मुकाबले कहीं अधिक खर्च किया है. और, अपने बिगड़ते आर्थिक और सामाजिक हालात के बावजूद वो अब भी ऐसा करना जारी रखे हुए है. हालांकि, पाकिस्तान की तमाम मुश्किलों की वजह उसका बेहिसाब रक्षा खर्च ही नहीं है— उदाहरण के लिए, अपेक्षाकृत कम सैन्य खर्च करने के बाद भी सामाजिक विकास के पैमानों पर भारत की स्थिति कोई बेहतर नहीं रही है — लेकिन भारत के साथ प्रतिस्पर्धा की तीव्रता कम करके पाकिस्तान कम से कम अपनी कतिपय घरेलू समस्याओं से बेहतर निपट सकता है. उम्मीद है, पाकिस्तान के नेताओं और अभिजात वर्ग को इस बात का अहसास हो सकेगा कि भारत के साथ प्रतिस्पर्धा की कोशिश एक निरर्थक कवायद है.

पाकिस्तान पर इस प्रतिस्पर्धा के अन्य नकारात्मक प्रभाव भी देखे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, पाकिस्तान आतंकवाद का एक बड़ी रणनीति के तौर पर इस्तेमाल करता है, जिसकी असल वजह उसकी अपेक्षाकृत कमजोरी है. पर समस्या ये है कि एक बड़ी रणनीति के रूप में आतंकवाद की भी सीमित उपयोगिता ही है क्योंकि यह भारत के साथ सैन्य या आर्थिक असंतुलन को कम करने की दृष्टि से किसी काम का नहीं है. 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले जैसे हमलों को टेलीविज़न पर लाइव देखकर पाकिस्तान में कुछ लोगों को भले ही मानसिक तुष्टि मिलती हो, लेकिन ऐसे हमलों से पाकिस्तान को कोई रणनीतिक फायदा नहीं मिलता है.

वास्तव में, कुल मिलाकर इन हमलों का नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है क्योंकि इनसे आतंकवाद के प्रायोजक के रूप में पाकिस्तान की पहचान पुख्ता होती है. और भारत की अपेक्षाओं से बहुत कम ही सही, लेकिन इनसे जुड़े कुछ नकारात्मक परिणाम भी हैं, जैसे फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के समक्ष पाकिस्तान के लिए पेश मुश्किलें.

इस प्रतिद्वंद्विता के गंभीर घरेलू परिणाम भी उतने ही अहम हैं, क्योंकि इसके कारण पाकिस्तान में सैन्य और सुरक्षा बलों की भूमिका बढ़ी है, जबकि लोकतंत्र और सिविल सोसाइटी कमजोर हुए हैं, और ये स्थिति अंततः पाकिस्तान को भारत की तुलना में और पीछे ले जाती है. हैसियत से अधिक प्रतिबद्धताओं में उलझने पर राष्ट्रों को होने वाले नुकसान पर पॉल कैनेडी द्वारा पेश दलील के तीन दशक बाद आज पाकिस्तान साबित कर रहा है कि उनका सिद्धांत महाशक्तियों के अलावा अन्य देशों पर भी लागू हो सकता है.

भारत को लेकर पाकिस्तान के असुरक्षा भाव को समझा जा सकता है और ये भाव दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी है. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में अपनाए गए उसके रवैये ने दुर्भाग्यवश पाकिस्तान को और कमजोर बनाकर असुरक्षा की उसकी भावना को बढ़ाने का ही काम किया है. लेकिन मौजूदा मुश्किल परिस्थितियों में भी पाकिस्तान के पास पहले के मुकाबले बेहतर विकल्प चुनने का अवसर है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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