हाल ही में मुझे एक पाकिस्तानी पत्रकार का ट्वीट देखने को मिला, जिसमें सिपाह-ए-सहाबा नाम के एक शिया-विरोधी चरमपंथी समूह के बारे में बताया गया था जो कि इस्लामाबाद में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) मुख्यालय के पास इकट्ठा हुआ था. भाषण देते समय वक्ता ने खतरनाक झूठ और नफ़रत फैलाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी. उसने शियाओं को देशद्रोही, हत्यारा और आतंकवादी करार दिया, और खुले तौर पर उन्हें इस्लाम से निष्कासित करने का आह्वान किया.
पाकिस्तानी समाज में शिया विरोधी भावना बहुत गहरी है और शियाओं के प्रति असहिष्णुता की एक पूरी विरासत है. उनका इतिहास शिया समुदायों के उत्पीड़न और सोच-समझकर उनको टारगेट किए जाने से भरा पड़ा है. हालांकि, विडंबना यह है पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए एक होमलैंड की भावना से पाकिस्तान का निर्माण करने वाले मुहम्मद अली जिन्ना खुद एक शिया मुस्लिम थे.
क्या है पृष्ठभूमि: शिया और गैर-देवबंदी सुन्नियों को विधर्मी मानने वाला और देवबंदी इस्लाम से प्रेरित सिपाह-ए-सहाबा पाकिस्तान (एसएसपी), हालांकि आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित है, लेकिन अक्सर नए-नए छद्म नामों के बार-बार उभर कर सामने आ जाता है. इस समूह की विचारधारा स्पष्ट रूप से बहिष्कारवादी है; इसके नेताओं ने खुले तौर पर सांप्रदायिक विभाजन का आह्वान किया है. एसएसपी नेता आज़म तारिक ने एक बार कहा था, “अगर पाकिस्तान में इस्लाम की स्थापना करनी है तो शियाओं को काफिर घोषित किया जाना चाहिए.”
इस्लाम के गहरे मतभेद
यह चरमपंथी दृष्टिकोण दो काफी निकटता से जुड़े विचारों से आता है, पहला, बहिष्कार या तकफिर की धारणा, जो चरमपंथियों को अन्य मुसलमानों को “काफिर” के रूप में घोषित करने की अनुमति देता है. यह सिद्धांत इस्लाम के भीतर अलग-अलग व्याख्याओं के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता है और एक ऐसा माहौल बनाता है जहां केवल एक ही, कठोर व्याख्या के लिए जगह बची रह जाती है. कोई भी दृष्टिकोण जो उनके “सही” रुख से अलग होता है उसे धर्म के विपरीत या धर्म को छोड़ने जैसा माना जाता है.
फिर यह भी माना जाता है कि जो कोई भी विधर्मी या काफिर है, उसे सज़ा दी जानी चाहिए या यहां तक कि वह मौत की सज़ा पाने (वाजिब-उल-क़त्ल) लायक है. ये विचार एक साथ मिलकर एक ख़तरनाक स्थिति पैदा करते हैं, जो एक ऐसे समाज को बढ़ावा देते हैं जहां असहिष्णुता आसानी से हिंसा में बदल जाती है, जिससे विविधता और सामाजिक सद्भाव नष्ट हो जाता है. असहमति के लिए स्थान, संयम या विभिन्न धर्म या विश्वास की बात तो भूल ही जाइए, ऐसे निरंकुश विचारों से बने संप्रदाय या समूह लगभग अधिनायकवादी तरीके से काम करते हैं. उदाहरण के लिए, अल-कायदा ने ISIS की निंदा की है, इसके खुद को खलीफा बताने को नाजायज़ बताया है और समूह को “ख़वारिज” नाम दिया है, जो इस्लाम से भटकने वालों के लिए एक शब्द है. विडंबना यह है कि वैचारिक रूप से सहयोगी के रूप में खड़े होने के बजाय, वे इन आरोपों को एक-दूसरे पर थोपते हैं, जिससे अधिकार और पवित्रता के उनके दृष्टिकोण में जो गहरी खाई है वह उभरकर सामने आती है.
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मुख्यधारा का इस्लामी विचार हिंसा की वकालत करने वाली इन चरमपंथी व्याख्याओं से बिल्कुल अलग है. (कुरान 2:256) के अनुसार सिद्धांततः “धर्म में कोई बाध्यता नहीं है”, जो इस बात पर जोर देता है कि आस्था व्यक्तिगत पसंद और अंतःकरण का मामला है. इस्लामी विद्वानों ने लगातार समाज के भीतर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया है. आज, पूरी दुनिया में तमाम इस्लामी विद्वानों और नेताओं का मानना है कि किसी के धर्म या उसके विश्वास मात्र के आधार पर उसके खिलाफ हिंसा किया जाना जायज़ नहीं है और इसमें बहुदेववाद भी शामिल है.
इससे विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और विचारधाराओं के लोगों के बीच सह-अस्तित्व के लिए जगह बनती है, लेकिन हम अन्य समुदायों के प्रति संघर्ष और असहिष्णुता भी देखते हैं, और कभी-कभी अल्पसंख्यकों का पलायन भी होता है. समाज में धार्मिक ग्रंथों की परेशान करने वाली व्याख्याएं मौजूद हैं, जो कि समय-समय पर काफी मुश्किल हालात पैदा कर देती हैं. समुदाय के भीतर इन व्याख्याओं की निरंतरता इस्लाम की अधिक समावेशी, आधुनिक व्याख्या के साथ नए सिरे से जुड़ाव की मांग करती है. आगे का काम न केवल समुदायों के भीतर सहिष्णुता को बढ़ावा देना है, बल्कि ऐसे सुधारों का समर्थन करना भी है जिससे दो समुदायों के बीच सामञ्जस्य बढ़ाने की इस्लाम की क्षमता को मजबूत किया जा सके.
मुस्लिम वर्ल्ड
जबकि पाकिस्तानी समाज के एक कट्टरपंथी हिस्से में शियाओं को प्रति नफरत हमेशा से मौजूद थी, पर सिपाह-ए-सहाबा नाम के इस प्रतिबंधित संगठन द्वारा इस तरह के दिए जाने वाले भाषण आकस्मिक नहीं हैं. यह इन सांप्रदायिक विभाजनों का लाभ उठाने के लिए एक रणनीतिक दृष्टिकोण की ओर इशारा करता है, जिससे पाकिस्तान को अपने लोगों की नज़र में मुस्लिम दुनिया के नेता के रूप में स्थापित किया जा सके. ईरान के सर्वोच्च नेता, अयातुल्ला खामेनेई ने हाल ही में वैश्विक मुस्लिम मुद्दों पर ज्यादा से ज्यादा अपनी उपस्थिति दर्ज करा के और सक्रिय रूप से ट्वीट करके खुद को मुस्लिम उम्मा के नेता और पैरोकार के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है, जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक विभाजन को कम करना है. यह दृष्टिकोण मुस्लिम हितों के लिए एक नेता के रूप में देखे जाने के पाकिस्तान के लंबे समय से चले आ रहे लक्ष्य पर दबाव डाल सकता है. कुछ पाकिस्तानी नेता ईरान के कार्यों को मुस्लिम दुनिया में उनके प्रभाव के लिए एक चुनौती के रूप में भी देख सकते हैं.
यह पाकिस्तान के आंतरिक मुद्दों से ध्यान हटाने का एक सुविधाजनक तरीका भी हो सकता है, जो सांप्रदायिक आधार पर एकता बनाने का प्रयास कर रहा है. यह संभव है कि इस तरह की रणनीति कुछ समय के लिए काम कर सकती है, लेकिन इससे उसके अपने सामाजिक ताने-बाने के बिगड़ने का जोखिम है, जिसके परिणामस्वरूप उसके अपने राष्ट्र को दीर्घकालिक नुकसान हो सकता है. एक बार फिर, पाकिस्तान ने एक खतरनाक खेल खेलने का विकल्प चुना है. वह अपने ही बनाए खेल में खुद को मोहरा पाएगा.
इसके विपरीत, जब मैं भारत को देखती हूं, तो मैं आभारी महसूस करती हूं और थोड़ा राहत महसूस करती हूं कि भारत ने एक अलग रास्ता चुना है, जो किसी गहरे विचार के पक्ष में विभाजन के खिलाफ खड़ा हुआ दिखता है. भारत एक ऐसा स्थान है जहां शिया और सुन्नी मुसलमान एक-दूसरे के साथ मिलकर प्रार्थना करते हैं, और जहां मुस्लिम और यहूदी समुदाय एक साथ रहते हैं. खुले तौर पर अपने धर्मों का पालन करते हैं.
जबकि समय-समय पर संघर्ष और तनाव सामने आते हैं, लेकिन वे नियम के बजाय अपवाद हैं, जो एक वैविध्यपूर्ण, और बहुलवादी या अनेक विश्वासों वाले समाज के रूप में भारत के लचीलेपन को दर्शाता है. मैं भाग्यशाली और आशावान महसूस करती हूं कि यह सद्भाव बढ़ता रहेगा, जिससे हम अन्य जगहों पर देखे जाने वाले दुखद सांप्रदायिक विभाजन से बचेंगे.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय अमाना एंड खालिद’ नामक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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