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Thursday, 31 October, 2024
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पाकिस्तान सरकार का ताज़ा ‘चूरन’- सब अमेरिका की गलती है, इमरान खान के खिलाफ आया अविश्वास प्रस्ताव भी

प्रस्ताव रखे जाने के बाद से हर सार्वजनिक मौक़े पर, ग़ुस्से में पीएम ख़ान के मुंह से झाग निकल रहे हैं. और जिस पद पर वो बैठे हैं वहां ये शोभा नहीं देता.

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इस हफ्ते खेले गए पाकिस्तान बनाम ऑस्ट्रेलिया टेस्ट मैच की पिच भले ही बेज़ान रही हो लेकिन रावलपिंडी और इस्लामाबाद के जुड़वा शहरों के अंदर और बाहर की सियासत, बिजली के ज़िंदा तार की तरह थी. सियासी चालें, छुपी हुई तरकीबें और लेनदेन, अंजाने साज़िशी हाथ और राज के खत्म होने की गंध- ये सब एक मसाला है इमरान खान या फिर हर उस शख्स के विकेट के लिए, जो ‘खान’ नहीं है. इस मैच में हर कोई आवाज़ लगा रहा है, आसपास खड़े दर्शक भी कि ‘खेल शुरू हो चुका है’.


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172 हैं या नहीं

महीनों तक चली अफवाहों के बाद मुख़ालिफ पार्टियों ने– जिनमें पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) शामिल हैं- 8 मार्च को वज़ीरे आज़म इमरान खान के खिलाफ नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया. ये एक ऐसा कदम है जिसमें विपक्ष ने दावा किया है कि उसके पास जीतने के लिए (और उससे भी ज़्यादा) ‘172 का जादुई आंकड़ा है’. सत्ताधारी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के कुछ ऐसे ‘बेनामी’ मेंबर भी हैं, जो केंद्र में खुश नहीं हैं. फिर पंजाब में कुछ ऐसे ‘नाम वाले’ मुखालिफ भी हैं, जो मुख्यमंत्री उस्मान बुज़दार को बाहर करना चाहते हैं, एक ऐसी मांग जिसकी खान पहले दिन से मुखालफत करते आ रहे हैं, जिसके कारण सब जानते हैं लेकिन उन्हें ज़ोर से नहीं कहा जा सकता.

बरसों तक ‘वसीम अकरम प्लस’ कहे जाने वाले बुज़दार का पीएम खान सूबे में कुछ ऐसे पथ-प्रदर्शक कार्य करने के लिए बचाव करते आ रहे हैं, जिनके बारे में सिर्फ वही जानते हैं. बुज़दार को इसका श्रेय जाता है कि महामारी के शुरुआती दिनों में उन्होंने ये जानने का प्रयास ज़रूर किया कि ‘ये कोरोना काटता कैसे है ’- हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि उनकी ये भारी कामयाबी कहीं नहीं गई.

हां, मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट की अच्छी दोस्त पाकिस्तान मुस्लिम लीग क़ायद और ऐसे ही दूसरे समूहों को भी नहीं भूलना है. वो कहां खड़े हैं? वो वहीं खड़े होंगे जहां रावलपिंडी से चलने वाली बदलाव की हवा उन्हें चाहेगी. फिलहाल वो लोग ‘बुरे सिपाही ’ का नहीं, बल्कि ‘अच्छे सिपाही ’ का रोल निभा रहे हैं. वो इमरान खान सरकार से कहते हैं, ‘हम साथ साथ हैं ’ और विपक्ष से कहते हैं ‘हम आपके हैं कौन ’ और इस तरह वो भविष्य की सियासी पाई में अपना हिस्सा चाहते हैं. सहयोगी भले ही सरकार से अपना समर्थन वापस ले लें, लेकिन उसे हटाने के लिए वो अविश्वास प्रस्ताव तक नहीं जाएंगे. सियासत अभी भी ‘असंभव को संभव’ बनाने की कला है.


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अंपायर तटस्थ है, अंपायर तटस्थ नहीं भी है

पिछले साल मार्च में इमरान खान ने सीनेट की एक सीट गंवाने के बाद कामयाबी के साथ नेशनल असेंबली में अपनी इच्छा से विश्वास मत हासिल किया. एक साल के अंदर कई दशक बीत गए हैं. चीज़ें अब पहले जैसी नहीं लगतीं, तोते की तरह एक मत होने का राग अब हवा हो गया है और उसकी जगह ‘फौज इन चोरों की कभी हिमायत नहीं करेगी’ जैसी बातें होने लगी हैं.

और जो शख्स अपने तमाम राजनीतिक सहयोगियों का समर्थन जुटाने के लिए मारा मारा फिर रहा है, वो हैं वज़ीरे आज़म, साथ ही साथ वो अपने मुखालिफों पर भी गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. वो पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी से वादा करते हैं कि ‘उनकी बंदूक अब ज़रदारी की तरफ है’, वो पूर्व नेता प्रतिपक्ष फज़ल-उर-रहमान को ‘फज़लू’ और ‘डीज़ल’ जैसे नामों से पुकारना चाहते हैं और विपक्षी नेता शाहबाज़ शरीफ के लिए उन्होंने ‘शोबिज़’ और ‘बूट पॉलिश वाला’ जैसी उपाधियां रखी हुई हैं. प्रस्ताव रखे जाने के बाद से हर सार्वजनिक मौके पर गुस्से में मुंह से झाग निकाल रहे पीएम खान बिल्कुल भौंचक्के हैं. और जिस पद पर वो बैठे हैं, वहां ये शोभा नहीं देता.

मायूसी के लिए इस धारणा को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि ‘प्रतिष्ठान अब तटस्थ है’. एक दम सही ढंग से देखा जाए तो चयनकर्ता और अंपायर की वो जोड़ी, जो खान को कुर्सी पर लाईं थी, अब ‘तटस्थ’ है. कितने तटस्थ? इतने ज़रूर हैं कि विपक्ष यहां तक आ गया है और इतना जरूर है कि लगातार कुर्सी जाने का डर सता रहा है. ऐतिहासिक दृष्टि से, पाकिस्तान में प्रतिष्ठान उतना ही तटस्थ रहा है, जितना नेशनल असेंबली के मौजूदा स्पीकर हैं, जिन्होंने अविश्वास प्रस्ताव से पहले की शाम ट्वीट किया: # IStandWithImranKhan. (मैं इमरान खान के साथ खड़ा हूं).


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सब अमेरिका करा रहा है

जो लोग #IStandWithImranKhan. (मैं इमरान खान के साथ खड़ा हूं) की गाड़ी में सवार नहीं हैं, उन्हें विदेशी हाथ माना जा रहा है, जो पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म के खिलाफ ‘आलमी साज़िश’ को अंजाम देने में लगे हैं. खान को ऐसा लगता है, उनके मंत्रियों को यही लगता है और आपको भी यही लगना चाहिए, अगर आपने किसी भी ऐसी चीज़ पर यकीन किया है, जिसे इस जोकर शासन ने आपको बेचा है, जिसमें सबसे ज्यादा बिकने वाला ‘जो करा रहा है अमेरिका करा रहा है ’ वाला ‘चूरन’ शामिल है. उन्होंने यही साज़िश रची है कि खान एक अमेरिका-विरोधी, पश्चिम-विरोधी बागी हैं, जो इन विदेशी ताकतों की राह में बाधा बन गए हैं और वो इनसे छुटकारा हासिल करना चाहती हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी खान से छुटकारा चाहते हैं, ताकि उनसे अब उन फोन कॉल्स के बारे में न पूछा जाए, जो उन्होंने खान को कभी नहीं की.

बाकी पश्चिमी दुनिया बस नए पाकिस्तान में बह रही शहद और दूध की अनदेखी नदियों से जलती है. और मत भूलिए कि खान ने किस धुन में, न जाने किस चीज़ को ‘हरगिज़ नहीं’ कहा था, या इस विचार को बेचा था कि अमेरिका हवाई ठिकाने चाहता था और हमने कहा ‘हरगिज़ नहीं’ और फिर हमने एक नीति बयान जारी किया कि ओह हमने अमेरिका को हवाई ठिकाने मांगने से रोक दिया. वो हुआ कैसे? क्या वो मुझसे पूछने के लिए टाइप कर रहे थे, ऐसा करने से पहले ही हमने उन्हें व्हाट्सएप पर ब्लॉक कर दिया?

लोगों को लगातार समझाने के बाद कि वो पश्चिम को बाकी हर किसी से ज़्यादा जानते हैं, वज़ीरे आज़म अब संभावित रूप से अपने निकाले जाने को लेकर ‘दुनिया भर की साज़िश’ का एक नैरेटिव तैयार करना चाहते हैं. उसे हासिल करने के लिए वो यूरोपीय संघ के दूतों को डंक मारने से गुरेज़ नहीं करेंगे, जिनसे एक जलसे में उन्होंने पूछा कि क्या वो पाकिस्तान को अपना गुलाम समझते हैं. ये उस पत्र के जवाब में था जिसे यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पाकिस्तान को लिखा था. बाद में, पीएम हमसे कहते हैं कि उन्होंने ईयू के खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा, तब फिर क्या हम सब किसी भ्रम में थे? या, क्या आलमी ताकतों ने उनसे वो कहलवाया जो हमने सुना? चकराने वाली बात ये भी है कि पीएम खान ने कहा कि वो दुआ कर रहे थे कि अविश्वास प्रस्ताव पेश हो जाए- अब क्या इसके पीछे विदेशी हाथ है या दुआ के हाथ हैं?

वित्त मंत्री शौकत तरीन ने, जिनके पास शायद ‘क्या हम गुलाम हैं’ का जवाब है, पीएम द्वारा ईयू दूतों को सार्वजनिक तौर से ऐसा कहने पर नाराज़गी का इज़हार किया. दूसरे मंत्री तोते की तरह ‘विदेशी हाथ’ की साज़िश का राग अलाप रहे हैं और ऐसी पोस्टें साझा कर रहे हैं, जिनमें विपक्षी नेता ईयू और अमेरिकी झंडों के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं. इसके नतीजे में यूके ने एक के पीछे एक उच्च-अधिकारियों की कई बैठकें रद्द की हैं. लेकिन गिन कौन रहा है जब फोकस मॉस्को यात्रा की गैर-मौजूद कूटनीतिक उपलब्धियों की शेखी बघारने पर हो.

समझ में आ सकता है कि सरकारी सोशल मीडिया #ExpelAmericanAmbassador (अमेरिकी राजदूत को बाहर निकालो) क्यों चलाता है, दिक्कत सिर्फ ये है कि इस वक्त पाकिस्तान में कोई अमेरिकी राजदूत नहीं है.

पीएम इमरान खान की सियासी तकदीर का फैसला होने में अभी बहुत समय बाकी है और सभी संकेत इस ओर इशारा करते हैं कि वो आखिर तक लड़ेंगे. और उन्हें लड़ना भी चाहिए, भले ही वो अंत में अकेले रह जाएं. अगर पार्लियामेंट लॉजेज़ में बीती रात की पुलिस कार्रवाई और विपक्षी सदस्यों की पकड़-धकड़ से कोई संकेत मिलता है, तो वो ये कि इस चाल को नाकाम करने के लिए सरकार कोई भी साधन इस्तेमाल कर सकती है. भले ही इसका मतलब विपक्षी सांसदों का गायब हो जाना या अफरा-तफरी मच जाना हो. आखिर, इमरान खान सरकार अराजकता की पैदावार ही तो है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक पाकिस्तान में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @nailainayat. व्यक्त विचार निजी हैं.


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