असदुद्दीन ओवैसी ने हाल ही में संसद में शपथ लेने के बाद ‘जय फिलिस्तीन’ का नारा लगाकर विवाद खड़ा कर दिया. हालांकि इस नारे को लोकसभा के रिकॉर्ड से हटा दिया गया है, लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि क्या इससे ओवैसी को “विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने” के लिए संसद से अयोग्य ठहराया जा सकता है.
मुझे नहीं लगता कि इस नारे से किसी को आश्चर्य होना चाहिए, क्योंकि यह ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) की लंबे समय से चली आ रही विचारधारा से पूरी तरह मेल खाता है. हालांकि, यह कदम दृढ़ विश्वास की तुलना में हताशा से उपजा हुआ ज्यादा लगता है.
चलिए पिछले साल की 7 अक्टूबर की तारीख पर वापस चलते हैं. उस दिन, हमास ने इज़रायली नागरिकों के खिलाफ एक जघन्य आतंकवादी हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 1,200 लोगों की भयानक तरीके से मौत हो गई. सभी आयु वर्ग के 251 नागरिकों को बंधक बना लिया गया, जिनमें से कई हमास की कैद में हैं. यही घटना वह कारण है जिसकी वजह से इज़रायल, हमास-नियंत्रित फिलिस्तीन के साथ युद्ध में उतर गया है.
हमास की निंदा करने में विफलता
फिलिस्तीन की प्रशंसा करते हुए, ओवैसी 7 अक्टूबर के बर्बर हमले की निंदा करने में विफल रहे. इसके बजाय, उन्होंने एक्स पर साझा किया, “प्रार्थना करता हूं कि #Palestine के कब्जे वाले क्षेत्रों में शांति बनी रहे”. यहां तक कि अन्य AIMIM सदस्य, जो टीवी बहसों में हिस्सा लेते रहे हैं, उन्होंने कभी भी हमास द्वारा आम नागरिकों पर की गई हमले की निंदा नहीं की. वे हमेशा विषय से इधर-उधर की बात करने लगते हैं.
लेकिन जब इज़रायल ने गाजा में ज्यादा घातक तरीके से इसका जवाब दिया, तो हममें से कई लोगों की तरह ओवैसी ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट और भाषणों के जरिए इज़रायल के युद्ध अपराधों की पूरे दम-खम के साथ निंदा की.
अधिकांश भारतीय नागरिकों ने 7 अक्टूबर के आतंकवादी हमलों और प्रतिक्रिया में इज़रायल के युद्ध अपराधों की निंदा की. हमने दोनों पक्षों के नागरिकों को मरते देखा और इजरायल को धरती से मिटाने के हमास के लक्ष्य का समर्थन नहीं किया. न ही हम चाहते थे कि फिलिस्तीनी बच्चे मरें. हमारे लिए, इजरायली और फिलिस्तीनी बच्चे एक जैसे हैं.
लेकिन ओवैसी के लिए ऐसा नहीं है. इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष पर उनका रुख पाकिस्तान और उसके नागरिकों जैसा है, जो हमास की तरह इज़रायल को जड़ से खत्म करना चाहते हैं. यहूदी विरोधी भावना पाकिस्तानियों के अंदर कूट-कूट कर भरी है और उनका राष्ट्र इजरायल की संप्रभुता को मान्यता नहीं देता है.
यह नई दिल्ली के द्वि-राज्य समाधान के आधिकारिक पक्ष के सीधे विरोध में है, जिसके तहत फिलिस्तीन और इजरायल दोनों के अस्तित्व के अधिकार को मान्यता दी जाती है. जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, भारत ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक मंचों पर इस स्थिति को बनाए रखा है.
इसलिए, यह स्पष्ट है कि ओवैसी का रुख किसी भी मानवीय चिंता से अधिक पाकिस्तान की स्थिति के अनुरूप है. हमास और उनके साथ जुड़े इस्लामी विद्वानों का विचार है कि इजरायल को मिटा दिया जाना चाहिए क्योंकि यहूदी ‘वाजिब-उल-क़तल’ हैं और जो कोई भी इस स्थिति को नहीं अपनाता, वह उनका कट्टर दुश्मन है. इसलिए, हिंदुओं, उदारवादी मुसलमानों, यहूदियों और ईसाइयों का वह वर्ग जो द्वि-राज्य समाधान का समर्थन करता है, उनका दुश्मन बन जाता है.
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पाकिस्तान जैसा है ओवैसी का रुख
यह केवल हमास और फिलिस्तीन का मुद्दा नहीं है जहां ओवैसी का दृष्टिकोण पाकिस्तान के साथ मेल खाता है. अहमदिया मुस्लिम समुदाय पर भी उनका रुख इसका एक और उदाहरण है. पाकिस्तान में, अहमदिया खुद को मुसलमान घोषित नहीं कर सकते और ओवैसी इसे पसंद करते हैं. उन्होंने अहमदिया समुदाय को इस्लाम के एक संप्रदाय के रूप में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की है.
ईशनिंदा के लिए भी यही बात लागू होती है. ओवैसी ने जहां “सिर तन से जुदा” नारे की निंदा की, वहीं उनकी पार्टी के सदस्यों ने 2022 में नारा लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया और पैगंबर मोहम्मद पर अपमानजनक टिप्पणी करने वाले भाजपा विधायक राजा सिंह की मौत की मांग की. ओवैसी ने सोशल मीडिया पर यह शेयर किया कि कैसे उन्होंने तीनों सदस्यों को कानूनी सहायता प्रदान की, जिससे उनकी निंदा महज दिखावटी साबित हुई.
सांसद ओवैसी कभी भी गोहत्या पर प्रतिबंध को लेकर कटाक्ष करने का मौका नहीं छोड़ते, यह भी दूसरे धर्मों का अपमान करने के पाकिस्तान के रवैये से मेल खाता है.
इसलिए, ओवैसी के “जय फिलिस्तीन” के नारे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. पाकिस्तान सिर्फ एक राज्य नहीं है: यह एक विचार और मनःस्थिति है. ओवैसी का रुख – मजबूरी में कुछ अपवादों को छोड़कर – पाकिस्तान के रुख के समान है.
मैंने कभी भी यह स्वीकार करने में संकोच नहीं किया कि भारतीयों के बीच, ऐसे विचार अभी भी कायम हैं, और ओवैसी की विचारधारा उन्हें दर्शाती है. हालांकि, वह सभी भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
दरअसल, 2024 के लोकसभा चुनाव में AIMIM को सिर्फ़ एक सीट मिली और ज़्यादातर मुस्लिम वोट इंडिया ब्लॉक को मिले. शायद यही वजह है कि ओवैसी ने “जय फिलिस्तीन” का नारा लगाया. यह मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने का एक बेसब्री से भरा हुआ प्रयास था, जिसके विफल होने की संभावना सबसे ज़्यादा है, ठीक वैसे ही जैसे ओवैसी ने चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश में इसी तरह के प्रयास किए थे.
नूपुर शर्मा के लिए सवाल
फिर भी, इस ध्रुवीकरण के कुछ अवांछित परिणाम भी हुए. ओवैसी के झांसे में आकर, दक्षिणपंथी ऑप-इंडिया संपादक नुपुर शर्मा ने अपना वीडियो शेयर किया, जिसमें प्रत्येक भारतीय मुसलमान की राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर सवाल उठाया गया. उनके अनुसार, 24 मुस्लिम सांसदों में से अकेले ओवैसी ही भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
चूंकि नुपुर शर्मा ने मेरी देश भक्ति पर सवाल उठाया है, इसलिए मेरे पास उनके लिए एक प्रश्न है.
धर्मनिरपेक्षता के विचार का इस्तेमाल अक्सर भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा मुसलमानों के बीच सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए किया जाता रहा है. हिंदू समुदाय संविधान के अनुरूप अधिक प्रगतिशील मूल्यों को अपनाता रहता है, जबकि राजनीतिक दल अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता का उपयोग करते हैं.
ओवैसी जैसे राजनेताओं के पास हिंदुओं में मजबूत राजनीतिक सहयोगी और करीबी दोस्त हैं जो धर्मनिरपेक्षता के समर्थक होने का दावा करते हैं. मेरा सवाल यह है कि आपके साथी हिंदू बुद्धिजीवी, पत्रकार और राजनेता ओवैसी जैसे लोगों को अपने खेमे का हिस्सा क्यों बनने दे रहे हैं, जो मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं और उसका बचाव कर रहे हैं?
मैं यह मानने से इनकार करती हूं कि हिंदुओं का ऐसा वर्ग किसी भी तरह से महत्वहीन है; वास्तव में, वे अधिकार वाले पदों के मज़े ले रहे हैं. फिर, नूपुर शर्मा ने कभी उनकी वफादारी पर सवाल क्यों नहीं उठाया?
कुछ समय के लिए सत्ता में स्थान पाने या उस जगह पर बने रहने के लिए भारत-विरोधी हितों और पाकिस्तान-समर्थक रुख अपनाने वाले हिंदू समुदाय के लोगों को आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है. और शर्मा व उनके साथियों को भारतीय मुसलमानों पर उंगली उठाना बंद कर देना चाहिए, जबकि मुस्लिम पहचान की राजनीति के पीछे असली वजह शिक्षा जगत, फिल्म जगत और राजनीति जगत के शक्तिशाली हिंदू हैं.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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