संयुक्त राष्ट्र के एक संगठन ने कहा है कि भारत इस महीने दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है और तमाम प्रकाशनों ने इसे स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया है. कहा जा रहा है कि भारत की आबादी करीब 142.9 करोड़ हो गई है और यह चीन की आबादी के आंकड़े को पार कर गई है. आधुनिक जनगणना शुरू होने के बाद से पहली दफा ऐसा हुआ है.
विश्व बैंक ने भी संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों को ही दोहराया है. हालांकि, वह आंकड़ों के कई स्रोतों के इस्तेमाल का दावा करता है, जिनमें से कोई भी स्रोत संयुक्त राष्ट्र के इस दावे का समर्थन नहीं करते कि भारत की आबादी चीन की आबादी से ज्यादा हो गई है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन और भारत, दोनों ही इस दावे को मंजूर नहीं करते. अनुमान है कि 2023 में भारत की आबादी 138.3 करोड़ हो जाएगी जबकि चीन में पिछले साल दिसंबर में हुई जनगणना के अनुसार उसकी आबादी 141.2 करोड़ है.
अमेरिकी जनगणना ब्यूरो ने सेंसस के आंकड़ों का भारत की नमूना पंजीकरण सिस्टम (जो जन्म तथा मृत्यु दरों का हिसाब रखता है) से मिले आंकड़ों, विस्थापन के आंकड़ों, कोविड के कारण मृत्यु के आंकड़ों और आंकड़ों को जारी करने में संभावित गड़बड़ी से मिलान करने के बाद 2023 में भारत की आबादी 139.9 करोड़ बताई. यह ब्यूरो द्वारा बताई गई चीन की आबादी 141.3 करोड़ से कम है. एक स्वतंत्र डिजिटल डाटा कंपनी ‘वर्ल्डोमीटर’ संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े के ‘विस्तारण’ का इस्तेमाल करके भारत की मौजूदा आबादी 141.8 करोड़ और चीन की 145.5 करोड़ बताई है.
यह मामूली फर्क को लेकर झगड़ने जैसा है, लेकिन आबादी के मामले में भारत ने चीन को अभी पीछे नहीं छोड़ा है तो अगले दो साल में छोड़ देगा और तब भी ‘वही फर्क’ रहेगा, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि आबादी के अनुमानों के मामले में संयुक्त राष्ट्र बराबर गलत रहा है.
उसने 2010 में कहा था कि भारत की आबादी 2021 में चीन की आबादी से आगे बढ़ जाएगी और 2025 में यह चीनी आबादी से 6.3 करोड़ ज्यादा हो जाएगी. जाहिर है, वह गलत साबित होने जा रहा है. 2015 में उसने कहा कि 2050 में भारत की आबादी चीन की आबादी से 170 करोड़ ज्यादा हो जाएगी. यह भी होने वाला नहीं है. सीधी बात यह है कि आबादी के बारे में संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों को सत्यवाणी न मानते हुए उसकी जांच की जानी चाहिए क्योंकि वे सत्य से परे हो सकते हैं.
ज्यादा सही बात है कि चीन की आबादी अपने शिखर पर पहुंच चुकी है जबकि भारत की आबादी बढ़ रही है. कई प्रेक्षकों ने युवाओं की आबादी बढ़ने और काम करने वाले बड़े समवयस्क समूहों के फ़ायदों और एक बार में ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ की ओर ध्यान दिलाया है.
लेकिन पिछले 25 साल में इस लाभ की चर्चा ही ज्यादा की गई है, उसका फायदा नहीं उठाया गया है. जिस देश में वास्तविक उपलब्धियां हासिल करने से ज्यादा उनकी चर्चा की जाती है वहां ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ को गंवाने की कहानी दुर्भाग्य से जारी ही रहने वाली है. चीन ने साफ कहा है कि लोगों की संख्या से ज्यादा उनका स्तर महत्व रखता है.
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भारत में जनसंख्या वृद्धि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में उसकी विफलताओं का ही नतीजा है. आज भी अनपढ़ महिलाएं औसतन तीन बच्चों को जन्म देती हैं जबकि शिक्षित महिलाएं औसतन 1.9 बच्चों को जन्म देती हैं. उत्तर प्रदेश में क्रूड जन्मदर का आंकड़ा केरल के इस आंकड़े से दोगुना ज्यादा है.
मध्य प्रदेश के कुछ भागों में क्रूड मृत्युदर का आंकड़ा केरल के कुछ भागों में इस आंकड़े का आठ गुना ज्यादा है. ऊंची मृत्युदर माताओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहित करती है. यह चक्र तभी टूटता है जब शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर होती हैं.
सकारात्मक प्रगति यह है कि देश की आबादी की दशकीय वृद्धि दर 1960, 1970, 1980 के दशकों में 24 फीसदी से घटकर पिछले दशक में 12 फीसदी हो गई और अभी और भी घटेगी.
दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में प्रजनन दरें प्रतिस्थापन स्तर से नीची हैं. देश के गरीब, अल्प शिक्षित, अल्प विकसित हिस्सों में आबादी अभी लंबे समय तक बढ़ती रहेगी. लेकिन ‘जनसांख्यिकीय लाभ’को तभी बेहतर बनाया जा सकता है जब मानव क्षमताओं का विकास किया जाएगा और करीब दो दशक बाद जन्म तथा मृत्यु दरें समान होने से पहले उसका उत्पादक इस्तेमाल किया जाएगा और जनसांख्यिकीय परिवर्तन का समापन आ जाएगा.
तब तक, मौजूदा रुझान के मद्देनजर भारत एक उच्च-मध्य आय वाला और पूर्व-मध्यवय वाला देश बना रहेगा. भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया, लातीन अमेरिका या चीन वाला जीवन स्तर हासिल करने में अभी कम-से-कम 20 साल और लगेंगे. इन देशों की मौजूदा प्रति व्यक्ति आय (क्रय शक्ति के आंकड़ों की बराबरी के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए) का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से ढाई गुना ज्यादा है.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा, लेखक के विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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