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Thursday, 19 December, 2024
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गुटनिरपेक्षता के पुराने ख्वाबों को भूलकर अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत करे भारत

चीन से संबंध बिगड़ने के बाद अमेरिका के लिए एशिया में भारत ही सबसे ज्यादा संभावना वाला बाजार है. उसी तरह, भारत की आर्थिक जरूरतों के लिए भी अमेरिका से ज्यादा क्षमतावान ट्रेड पार्टनर दूसरा नहीं हो सकता.

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पिछले महीने चीन से तनातनी चरम पर पहुंचने के बीच जैसे ही यह खबर आई कि भारत रूस से 12 सुखोई-30 एमकेआई लड़ाकू विमान खरीदेगा वैसे ही इनकी तुलना चीन के सुखोई-30 एमकेके लड़ाकू विमानों से होने लगी. चीन ने रूस से ही सुखोई फाइटर जेट खरीदे हैं. कुछ विश्लेषणों में भले ही भारत के सुखोई विमानों को चीन के सुखोई विमानों से बेहतर बताया जा रहा हो लेकिन अब ये सवाल तेजी से उठने लगे हैं कि हम वही लड़ाकू विमान क्यों खरीद रहे हैं, जो चीन के पास हैं और जो देश हमारे प्रतिद्वंद्वी को भी हथियार देता है, हम उससे हथियार खरीदते ही क्यों हैं?

बहस अब इस बात पर केंद्रित हो गई है कि तेजी से बदलते समीकरणों के बीच भारत को अब एक ऐसे पार्टनर के साथ अपने रिश्तों को बढ़ाने पर जोर लगाना चाहिए, जो इसकी सामरिक, सैनिक और आर्थिक, तीनों जरूरतों को पूरी कर सके.

यह वो वक्त है, जब भारत और अमेरिका, दोनों के रिश्ते चीन से बेहद खराब हो गए हैं. अमेरिका अपने सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर चीन के साथ पिछले डेढ़-दो साल से एक बेहद उलझी हुई कारोबारी जंग लड़ता आ रहा है और अब कोरोना संक्रमण ने दोनों के रिश्तों में और कड़वाहट घोल दी है. अमेरिका ने इस संक्रमण के लिए खुल कर चीन को जिम्मेदार ठहराया है. दोनों के बीच रोज वार-पलटवार हो रहे हैं. एक दूसरे के वाणिज्य दूतावास बंद करने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं.


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चीन-अमेरिकी रिश्तों का अतीत

चीन और अमेरिका के रिश्ते 1972 में रिचर्ड निक्सन के जमाने में सामान्य हुए थे. इसके बाद ये रिश्ते पहली बार इतने खराब हुए हैं. कारोबारी जंग अब पूरी तरह राजनीतिक, राजनयिक और सैनिक टकराव में तब्दील होती दिख रही है. निक्सन के जमाने में अमेरिका से रिश्ते सामान्य होने का चीन को बड़ा फायदा मिला. अमेरिकी कंपनियों ने चीन की कम मजदूरी वाली फैक्टरियों में सामान बनवा कर पूरी दुनिया के बाजारों पर कब्जा कर लिया लेकिन जैसे-जैसे आर्थिक तौर पर चीन ताकतवर बनता गया उसकी बढ़ती महत्वाकांक्षाएं अमेरिका से टकराने लगीं. वरना राष्ट्रपति बराक ओबामा के जमाने तक दोनों के रिश्ते इतने बढ़िया थे कि वह चीन को एशिया का नेता घोषित करने पर तुले हुए थे लेकिन आज हालात बिल्कुल उलट हैं.

दूसरी ओर, आजादी के बाद शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो चीन से भारत के रिश्ते कभी सामान्य नहीं रहे. दोनों देश कई बार एक-दूसरे के आमने-सामने हुए. असामान्य रिश्तों के बावजूद दोनों देश पिछले लगभग दो दशकों से कारोबार के जरिये एक-दूसरे से बंधे रहे हैं. 1962 के युद्ध के बाद भारत हमेशा चीन के इरादों को लेकर सशंकित रहता है और ये वाजिब भी है. दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद अक्सर झड़प और टकराव में तब्दील हो जाता है. गलवान घाटी का इस बार का टकराव, 1962 के युद्ध के बाद, दोनों के रिश्तों का न्यूनतम बिंदु बन गया है.

भारत-अमेरिका दोनों के लिए अच्छा अवसर

इस साल जनवरी तक चीन भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर रहा था. उस पर भारत की कारोबारी निर्भरता काफी ज्यादा रही है. ताजा टकराव के बाद भारत ने चीनी कंपनियों और सामानों पर प्रतिबंध जैसे कदम से जवाबी हमले की कोशिश की लेकिन चीन ने साफ जता दिया कि इससे उस पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला.

यह संयोग ही है कि भारत और अमेरिका दोनों के रिश्ते एक ही वक्त में चीन के साथ खराब हुए हैं. इसलिए विदेश नीति के विशेषज्ञ इसे भारत-अमेरिका के बीच पिछले दो दशक से प्रगाढ़ हो रहे रिश्तों का नया प्रस्थान बिंदु मान रहे हैं. हाल के टकराव के बाद भारतीय विदेशी नीति के रणनीतिकारों का इस बात का बखूबी अहसास हो गया कि चीन अगर भारतीय कारोबारी प्रतिबंधों से बेपरवाह है तो उसकी वजह है उसकी विशाल आर्थिक ताकत. चीन 15 ट्रिलियन डॉलर की इकनॉमी है और भारत महज 2.7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था. लिहाजा भारत के सामने यह साफ हो गया है कि चीन के सामने उसे एक बड़ी आर्थिक ताकत के तौर पर उभरना होगा. यह काम वह सिर्फ अपने बूते नहीं कर सकता. इसके लिए उसे बड़े आर्थिक सहयोगी की जरूरत होगी, जो उसकी अर्थव्यवस्था में निवेश करे और उसकी बनाई चीजों और सेवाओं का सबसे बड़ा ग्राहक भी बन कर उभरे.

वक्त के तकाजे और भारत की जरूरतों ने आज अमेरिका को इसी भूमिका में ला खड़ा किया है. अमेरिका की भी मजबूरी है कि वह चीन के अलावा कोई दूसरा बाजार तलाशे जहां उसकी कंपनियां सस्ते श्रम का इस्तेमाल कर बनाए गए सामानों को उस देश में तो बेचे हीं, उसे दुनिया भर में निर्यात भी करें.

हाल के दिनों में दोनों ओर से महंगे टैरिफ के जरिये अपने-अपने कारोबारों को संरक्षण देने के बावजूद भारत और अमेरिका दोनों ने कारोबारी संबंधों को और मजबूत बनाने की जरूरत को समझ लिया है. यही वजह है कि यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल की 45वीं वर्षगांठ पर आयोजित इंडिया आइडियाज समिट को दोनों ओर से काफी तवज्जो मिली. समिट से पहले गूगल, फेसबुक, एप्पल और वेंचर कैपिटल फर्म- सिल्वर लेक सिकोया कैपिटल ने जिस तरह भारत में बड़े निवेश किए उससे साफ हो गया कि आने वाले दिनों में भारत के साथ अमेरिकी कारोबारी गठजोड़ की शक्ल क्या होगी.

असहज कारोबारी रिश्ते लेकिन वक्त टकराव का नहीं, सहयोग का

2018-19 के दौरान भारत और अमेरिका के बीच आपसी व्यापार बढ़ कर 87.95 अरब डॉलर हो गया. इस दौरान चीन से भारत का आपसी व्यापार 87.07 अरब डॉलर का था. यूएस-इंडिया स्ट्रैटजिक एंड पार्टनरशिप फोरम की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर आर्थिक हालात बेहतर रहे तो 2025 तक अमेरिका के साथ भारत का कारोबार बढ़ कर 238 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है.

लेकिन यह स्थिति तब आएगी, जब भारत और अमेरिका के बीच आदर्श व्यापारिक संबंध होंगे. पिछले कुछ वक्त से दोनों की ओर से एक-दूसरे के सामानों पर ज्यादा से ज्यादा टैरिफ लगाए जाने से साफ हो गया है कि इनके आपसी कारोबार की दिक्कतें भी कम नहीं हैं.

अमेरिका ने भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस यानी जीएसपी (GSP) लिस्ट से हटा दिया है, जिससे उसका लगभग 5.6 अरब डॉलर का सामान अमेरिकी बाजार में बगैर ड्यूटी के पहुंच जाता था. भारत की ओर से अमेरिकी कॉर्डियक स्टेंट और घुटने के प्रत्यारोपण में इस्तेमाल में होने वाले डिवाइस की कीमतों पर कैप लगाने के खिलाफ उसने यह कदम उठाया था. अमेरिकी ई-कॉमर्स कंपनियों पर डेटा लोकलाइजेशन के नियम सख्ती से लागू करने से भी अमेरिका के भीतर नाराजगी थी. अमेरिका ने दूसरे देशों के साथ भारत के स्टील और एल्युमिनियम पर टैरिफ बढ़ा दिया तो उसने भी अमेरिकी बादाम, दालों, अखरोट और सेब पर टैरिफ बढ़ा दिए.

हार्ले डेविडसन बाइक पर भारत में हाई ड्यूटी का मामला तो खासा चर्चित रहा. ट्रंप के कहने पर मोदी सरकार ने इस पर लगने वाली ड्यूटी 100 फीसदी से घटा कर 50 फीसदी कर दी लेकिन ट्रंप संतुष्ट नहीं हुए. पिछले कुछ साल से अमेरिका अपने कृषि और डेयरी प्रोडक्ट्स के लिए भारत से मार्केट खोलने की अपील कर रहा है लेकिन वह इसकी इजाजत नहीं दे रहा है.


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संरक्षणवादी नीतियों से आगे बढ़ने का समय

पिछले दो-तीन साल से पीएम नरेंद्र मोदी लगातार दुनिया के अलग-अलग मंचों पर फ्री ट्रेड का हवाला देकर भारत में निवेशकों को बुला रहे हैं लेकिन सरकार एक के बाद एक संरक्षणवादी कदम उठा रही है. वह आयातित सामानों पर टैरिफ बढ़ा रही है, आरसीईपी जैसे बड़े ट्रे पार्टनरशिप से खुद को दूर रख रही है और घरेलू उद्योग के संरक्षण देने के लिए आयातों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा रही है. और यह सब भारत को आत्मनिर्भर बनाने के नारे के साथ हो रहा है. दूसरी ओर ट्रंप भी ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नाम पर दुनिया के तमाम देशों के खिलाफ टैरिफ वॉर छेड़े हुए हैं.

अमेरिका ने हाल में भारत के लिए एच-1बी वीजा में कटौती कर दी है. अमेरिका में पढ़ रहे स्टूडेंट्स के वीजा खत्म कर दिए. ऑनलाइन क्लास लेने वालों को वापस लौटने को कहा. भारत पर ईरान से तेल न खरीदने का दबाव बनाया.

ऐसे में यह सवाल उठता है कि ऐसे नरम-गरम रिश्तों के बीच क्या भारत और अमेरिका आपसी कारोबार को परवान चढ़ा कर चीन के खिलाफ कोई मजबूत समीकरण बना पाएंगे? इस सवाल का जवाब भले ही आसान न हो लेकिन अमेरिका और भारत दोनों को यह समझ में आ गया है कि सिर्फ सामरिक नजदीकियों से बात नहीं बनेगी. दोनों देशों को एक बड़े और मजबूत कारोबारी गठबंधन से जुड़ना पड़ेगा. चीन से संबंध बिगड़ने के बाद अमेरिका के लिए एशिया में भारत ही सबसे ज्यादा संभावना वाला बाजार है. उसी तरह, भारत की आर्थिक जरूरतों के लिए भी अमेरिका से ज्यादा क्षमतावान ट्रेड पार्टनर दूसरा कोई और नहीं हो सकता. एक जमाने में चीन ने भी अमेरिका का सहारा लिया था. यही रणनीति अपनाने की बारी अब भारत की है.

(लेखक आर्थिक मामलों के पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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