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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतहाशिये पर पहुंचा घुमंतू: इनकी घुम्मकड़ी में ही छुपी हैं हमारी लोक परंपराएं

हाशिये पर पहुंचा घुमंतू: इनकी घुम्मकड़ी में ही छुपी हैं हमारी लोक परंपराएं

घुमंतू समाज की रंग-बिरंगी जीवनशैली हमेशा से देश दुनिया के लोगों के आकर्षण का केंद्र रहा है, लेकिन हम आपको बता रहे हैं कि इस रंगीनी के पीछे कैसी है बदरंग दुनिया.

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घुमंतू समाज का नाम लेते ही हमारे सामने एक ऐसे समाज की छवि उभरती है जो निरंन्तर घूमते रहते हैं, जिनकी रंग बिरंगी जीवन शैली है. उनका खास तरीके का लोकगीत है और परंपराएं हैं. जिनका हिंदुस्तान की विरासत को संजोने में अहम योगदान रहा है. इनका काम महज खेल तमाशा ओर करतब दिखाना नहीं बल्कि परिवहन, व्यापार और समाज सुधार की अग्रिम पंक्ति में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना भी रहा है. भले ही इनके पास शिक्षा की कोई डिग्री या पद नहीं था, लेकिन इनके द्वारा किया गया काम हमारे द्वारा सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है.

धीरे-धीरे हाशिये पर पहुंचा घुमंतू समाज

वर्तमान परिदृश्य में देखें तो घुमंतू समाज हाशिए पर चला गया है. इनका अतीत महज नाच गाने और करतब दिखाने तक ही सीमित रह गया है. यह आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसमें कहीं न कहीं सरकार, प्रशासन के अलावा मीडिया की भी भूमिका रही है.

आखिर ऐसा क्यों होता है कि घुमंतू समाज के लोगों की समस्याएं मेनस्ट्रीम मीडिया में अपनी जगह नहीं बना पाती. चाहे वो राजस्थान के पाली जिले में मोगिया समुदाय की एक महिला की ईलाज के अभाव में हुई मृत्यु हो या फिर मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा एक सार्वजनिक सभा में घुमंतू समाज के लोगों को मेहमान बताना हो.

2011 की जनगणना के अनुसार पूरे भारत में घुमंतू समाज के अंतर्गत 840 समुदाय हैं जिसमें अकेले राजस्थान से 52 समुदाय आते हैं. इसमें नट,भाट, भोपा, बंजारा, कालबेलिया, गड़िया लोहार, गवारिया, बाजीगर, कलंदर, बहरूपिया, जोगी, बावरिया, मारवाड़िया, साठिया ओर रैबारी प्रमुख हैं.

संस्कृति को जोड़ने वाले

कुछ रिसर्चर और इतिहासकारों का मानना है कि अफ्रीका और यूरोप के जिप्सी समाज इनसे जुड़े रहे हैं. जिन्हें पहले सौदागर कहा जाता था जो ऊंट, गधे, बैल गाड़ी और खच्चर की मदद से व्यापार किया करते थे. यह सभी समुदाय किसान के हितैषी और ग्रामीण समाज के सहयोगी हुआ करते थे.

बंजारे, अरब से अरबी कपड़े, मुल्तान से मुल्तानी मिट्टी और गुजरात के तटीय इलाकों से नमक गधों पर लादकर भारत के अलग-अलग हिस्सों की यात्रा करते थे और अपना भरण पोषण करते थे. राजस्थान के रेतीले मरुस्थली भाग से गुज़रते हुए इसी घुमंतू लोगों ने पानी के स्रोत के रूप में बावड़ी, जोहड़, टांकों का निर्माण किया. इनके पास कोई अभियंता की डिग्री नहीं थी लेकिन इनके द्वारा निर्मित बावड़िया और टांकें उत्कृष्टता के नमूने हैं जो न केवल जल की आपूर्ति की बल्कि जल का पुर्नचक्रण भी करता रहा है. ये लोग व्यापार के ज़रिए दो संस्कृति को जोड़ने का काम करते थे.

गवारीन, ग्रामीण समाज की महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करतीं, वो अपने सर पर बड़ा सा टोकरा रखकर जैसे ही गांव में पहुंचती, महिलाओं का चेहरा खुशी से खिल उठता. क्योंकि गवारीन के पास महिलाओं के अंग वस्त्र, सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री और आभूषण होते थे. उस समय तक पुरुष यह समान नहीं लाता था और महिला की बाज़ार तक पहुंच नही थी. वो केवल समान ही देकर नहीं जाती बल्कि उनको यह भी बताती की शहर की महिलाएं कैसे रहती हैं? उनका खाना- पीना और पहनावा कैसा है? महिलाएं बड़े चाव से उसकी बातों को सुनती क्योंकि उनके लिए शहरी जीवन दूर की बात हुआ करती थी. बावरिया प्रजाती हाथ की चक्की के पाटों को राहता उनको खुरदरा बनाता, सब्ज़ी चीरने के दंराते को तीखा बनाता. क्या यह केवल दुकानदारी है या उससे कहीं आगे की बात है?

मध्य प्रदेश में भोपाल के नज़दीक रहने वाली सोना गवारीन प्रजाती की महिला ने बताया कि अब बेलदारी पर जाती हैं.

पारंपरिक काम तो कब का समाप्त हो गया लेकिन उन्होंने उस टोकरे को अभी भी सेहज कर रखा हुआ है, वह कहती हैं ‘इससे हमारी आत्मा जुड़ी हुई है. अब हमारा सामान कौन खरीदेगा, अब समान बड़े-बड़े मॉल और ब्यूटी पार्लर में आ गए हैं. अब हमारी ज़रूरत समाप्त हो गई है.’

राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तरफ निरंतर यात्रा करने वाले नट और भाट का अस्तित्व लंबे समय से कायम है. ये लोग तो समाज सुधार की अग्रिम पंक्ति के लोग रहे हैं. नट और भाट साथ- साथ गांवों की यात्रा करते, सभी के गांव बंटे होते, हर दिन शाम को गांव की चौपाल में नटनी, ढपली की थाप पर कभी रस्सी पर चलती तो कभी आग के गोले से कूदती. और भाट किसी सामाजिक कुरीति या किसी ऐतिहासिक घटना पर स्वांग करता, नाटक दिखाता जो हमें अंदर तक झकझोर देते.

पुष्कर, राजस्थान के लखन भाट जिसकी उम्र करीब 80 साल रही होगी उन्होंने बताया, ‘एक समय था जब हम गांव की सीमा पर पहुंचते तो गांव में जैसे बहार का जाती थी. गांव नाई हमें अंदर लेकर जाता, जहां आगे बढ़कर गांव की महिलाएं हमारी पूजा करतीं, हमारा बहुत सम्मान होता था. लेकिन आज तो हमें कोई देखना भी पसंद नही करता. जिस समय महिला चारदीवारी से बाहर नहीं निकल सकती थीं उस समय नटनी ढपली की थाप पर रस्सी पर चलने और भाट के नाटक को कैसे महज करतब कहा जा सकता है?

भोपा सारंगी की धुन पर पाबूजी की फड़ बाचता. फड़ एक कपड़ा होता है जिसपर विभिन्न आकृतियां चित्रित होती हैं. जिन्हें देखकर वो कथा सुनाता जिसे आधुनिक समय मे ‘स्टोरी टेलिंग’ कहा जाता है. आख्यान सुनाता, धार्मिक जागरण करवाता, इनको पवित्र लोग माना जाता, नए घर में प्रवेश का मुख्य आधार यही समाज हुआ करता. इनके द्वारा बनाए गए फूस के घोड़े – कला, मनोरंजन और धार्मिक पवित्रता के प्रतीक होते. अजमेर के कायड़ चौराहे के भोपा बस्ती की महिला पूजा ने बताया कि हमारे पूरे टोले से एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता, न भामाशाह कार्ड है, न कोई पेंशन और न मनरेगा. हमारे बच्चों का और हमारा आने वाले समय में क्या होगा? चितौड़गढ़ के चांदमल भोपा सारंगी की धुन पर एक लोक गीत गा रहे थे ‘हो री सजनी सावरियों बालम आयो’ चांदमल ने बताया कि इस गीत में प्रेयसी के लिए यह संदेश है कि तेरा प्रियतम आ गया है ओर वो तेरा इंतज़ार कर रहा है लेकिन तेरे माता- पिता निष्ठुर हैं तो उन्हें सोते हुए छोड़कर भाग जा.

यह लोक गीत उस धरती पर है जहां महिला पैदा होते ही मार दी जाती थी. आज भी उसे 18 वर्ष से पहले ही ब्याह देते हैं.

न जाने क्यों उसको देखकर और सुनकर ऐसा लग की कला का तकनीकी पक्ष कुछ भी हो लेकिन उसका मर्म मुक्ति है और यदि कला में मुक्ति की धुन नहीं है केवल सौंदर्य है तो वो कला नही लस्ट है.

चांदमल ने बताया कि आज लोक कलाओं में किसी की रुचि नहीं है, पहले टेलीविज़न ओर अब मोबाइल ने हमें अपने लोगों से अलग कर दिया और लोगों को अपने अतीत से दूर कर दिया है.

कालबेलिया केवल सांप पकड़ने का या नृत्य का ही काम नहीं करते बल्कि ग्रामीण समाज में बच्चे के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक का आधार यही लोग थे, बच्चे के जन्म पर पिलाई जाने वाली जन्म घुट्टी जो कि बच्चे में प्रतिरोधक क्षमता बनाती यही लोग जंगल से लेकर आते थे.

जानकारी और औषधियों का पिटारा घुमंतू

विभिन्न जड़ी बूटियों की जानकारी जितनी इन लोगों को होती है शायद ही किसी अन्य समुदाय को हो. हमारा आयुर्वेद का काफी ढांचा इसी तरह के समाज के उपयोगी ज्ञान से बना है. इनके द्वारा तैयार की गई हरड़ की फांकी आज भी चलती है जो पेट में गैस, कब्ज़, जी मिचलाने इत्यादि के लिए न केवल करगार बल्कि बेहतरीन इलाज है. यह समुदाय सर्प दंश का ईलाज बड़ी खूबी से करते हैं. इनके नृत्य को तो हम सब देख ही रहे हैं. इंदौर के नज़दीक एक गांव में देवो नाथ कालबेलिया लोक गीत गा रहा था जो दिल को छू रहा था.

‘मोटर धीरा धीरं हांक, हाल बदन मैं जाय
ई मोटर मैं ,कूंन कूंन बैठी, कूंन गावः गीत.
कूंन सुहागन जलवा धोके , कूंन गावे गीत…

देवो नाथ कहते हैं, ‘हमारे साथ यह कैसा न्याय है? हमारे नृत्य को तो राष्ट्रीय धरोहर बना दिया लेकिन उसको चलाने वालों को दुत्कार दिया.’

जागा केवल पीढ़ियों के रिकॉर्ड ही नही रखते बल्कि हमारे पुरखों से संवाद करवाते, हमारे इतिहास लेखन का आधार तैयार किया. इनके द्वारा जुटाई गई जानकरी सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक स्रोत के रूप में हमारे पास है. हमारे पुरखों का सीखा हुआ ज्ञान, जिसका हमें कोई मूल्य नहीं चुकाना उसका आधार जागा रहा. जो हर वर्ष हमारी स्मृति को नया बनाता. मेरठ के रामरतन जागा कहते हैं, ‘ग्रामीण भारत में शादी का आधार हमारी जानकारी हुआ करती थी. आज शादी के लिए विभिन्न साइट्स आ गईं लेकिन क्या ये साइट्स पुरखों से भी बात करवाएंगी?

जोगी जब हाथ मे सारंगी लेकर घर आता तो गली-मोहल्ले के लोग एकत्रित हो जाते. कंधे पर झोला टांगे, कान में मुरकी पहने हर बार कुछ न कुछ सुनाता जैसे हरियाणा और राजस्थान में उनका एक चर्चित लोक गीत था-

छपनिया महाराज तेरे काजली रानी
अराः ब तो खुद पड़ी समंदर मैं पी गी पालरो पानी

हरियाणा के महेंदरगढ़ के माधोनाथ जोगी ने बताया कि जोगी इस लोक गीत में इतिहास की एक घटना का ज़िक्र कर रहा है वो कह रहा है कि जब छपनिया (छप्पन गांवों में) अकाल पड़ा तो वहां के सामंत ने अपने धान के कोठार खोल दिए थे उसकी रानी इस बात से नाराज़ थी कि हम अपना जीवन कैसे जिएंगे? और उसने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली. जो ऐतिहासिक तौर पर सही बात है.

यह लोग मौखिक इतिहास की परंपरा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का काम किया करते, जीवन को संयम के साथ जीने का संदेश देते और बदले में एक मुट्ठी आटा लेकर जाते.

साठिया और रैबारी गाय और ऊंट के ज़रिए कृषि, व्यापार और परिवहन को बढ़ावा देने का काम करते रहे हैं, राजस्थान में मारवाड़ी और जम्मू-कश्मीर में गुर्जर बकरवाल लोग भेड़ और बकरी पालते. कर्नाटक और महाराष्ट्र में अलग-अलग नामों से बोला जाता. यह कृषि के लिए अच्छी नस्ल के बैल, सामान के परिवहन के लिए ऊंट तैयार करते.

गाड़िया लोहार, कृषि कार्यों के लिए केवल लोहे के उपकरण ही तैयार नहीं करता था बल्कि गाय भैंस के सींग ओर खुरों को ठीक करने जैसा बारीक और महीन काम बड़ी ही सूझ-बूझ के साथ करता था. उसकी नक्काशी और गोदना कला की रचनात्मकता को दर्शाती है.

भीलवाड़ा के राम सिंह गड़िया लोहार ने बताया, ‘अब समय बदल गया है, पारंपरिक पैसा समाप्त हो गया है. लोग मशीनों से काम करवाना ज़्यादा पसंद करते हैं. हम भी कहीं बस जाना चाहते हैं. लेकिन हमारी न सरकार सुनती हैं ओर न कोई संस्था. अब तो गांव में डेरा भी नहीं डालने देते, हम जाएं तो जाएं कहां? हमारे बच्चों का क्या होगा?’

दाड़ी लोग शादी विवाह के मौके पर मंगल गान से लेकर घर मे छप्पर डालने का काम किया करता है. बहरूपिया अलग अलग रूप बनाकर लोगों का मनोरंजन करता उसकी वाकपटुता मन को मोह लेती. बाजीगर हाथ की सफाई तो कलंदर जंगल के जीवन को समाज के साथ जोड़ता, कहीं -कहीं बाजीगर और कलंदर को एक ही बोला जाता है. बावरिया किसान की फसल रखवाली से लेकर राजा के शिकार के समय हांका लगाता था.

गड़बड़ी कहां हुई?

इन सभी समुदायों के जीवन का आधार खेती हुआ करती थी. किसान अपनी फसल उपज का 1/10 वां हिस्सा इन समुदायों के लिए अलग निकालकर कर रख लेता था. और समय-समय पर उनके हिस्से को उन समुदायों को देता रहता लेकिन जैसे-जैसे हमारा सामाजिक आर्थिक ढांचा बदला, हमारी खेती का स्तर गिरा, किसान की हालत बदत्तर हुई वैसे-वैसे वो जुगलबन्दी टूटती गई. जिससे घुमंतू समाज में पिछड़ता गया और उसकी पारंपरिकता पीछे छूट गया.

चूंकि अब इनका पारंपरिक पैसा पीछे छूट गया इसलिए अब इन समाजों को भी एक जगह पर बसना होगा इसके लिए रहने को घर चाहिए, बच्चों को स्कूल, स्वास्थ्य के लिए अस्पताल ओर अनुपूरक पोषण के रूप में आंगनबाड़ी. रोज़गार के अवसर और पूरक के रूप में मनरेगा भी चाहिए.

लेकिन इस मोर्चे पर हम फेल हो गए हैं, भारत मे घुमंतू समाज के लाखों की संख्या में बच्चे स्कूल से बाहर हैं, अकेले राजस्थान में दो लाख, मध्य- प्रदेश में तीन लाख और छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा तीन लाख से अधिक है. घर के नाम पर फटा तंबू है. न विधवा पेंशन का पता हैं न आंगनवाड़ी का. अजमेर में घुमंतू समाज का मनरेगा के जॉब कार्ड तो बना लेकिन न जॉब मिली और न ही भत्ता. त्रासदी यह है कि उन्हें जीते जी ही मरने के बाद की अपनी ज़मीन तलाशनी पड़ती है. पक्के मकान की तो बात ही छोड़ दीजिए. जो समाज हमारे वजूद का आधार रहा, आज वो ही समाज अपने वजूद की तलाश में हैं.

संभावना क्या हैं

आज से 10-15 साल के बाद यह बच्चे क्या करेंगे? जबकी इन बच्चों में असीम संभावनाएं हैं. इनको ज़रा सा तराश दिया जाए तो शायद हिंदुस्तान का नक्शा बदल सकता है. नट बच्चे खेलों में बेहतरीन कर सकते हैं. और यह कला उनको गॉड गिफ्टेड है अगर उसे जरा सा तराश दिया जाए तो हम चीन, ब्राजील इत्यादि देशों से बहुत आगे निकल सकते हैं.

भोपा बच्चे सारंगी बेहतरीन बजाते हैं, भाट लोग गजब के कलाकार हैं, कठपुतली नचाना से लेकर नाटक करना. बहरूपिया की वाक्पटुता. बंजारे बेहतरीन शिल्पकार, नक्काशी जानते हैं. लोहार लोहे का काम बड़ी बारीकी और सूझबूझ से करते हैं. कालबेलिया को सर्प दंश के इलाज के लिए एंटी विनेम बनाने में लगा सकते हैं.

क्या करें

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि इनका ज्ञान, तटस्थ ज्ञान नहीं है बल्कि इनकी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है अगर यह लोग ही नही बचेंगे तो न इनका ज्ञान बचेगा ओर न ही यह समृर्द्धशाली परम्परा और रंग-बिरंगी संस्कृति बचेगी. घुमंतू समाज के लिए ठीक उसी तरह का केंद्र बनाने की ज़रूरत है जैसे कि वडोदरा में प्रो. गणेश देवी के नेतृत्व में आदिवासी जीवन की कला, साहित्य, परम्परा ओर जीवन शैली को सहेजने के लिए काम किया गया है.

घुमंतू बच्चों के लिए रेसिडेंशियल स्कूल उपयोगी हो सकता है. उनको आधुनिक शिक्षा मिले लेकिन इसका यह मतलब नही है कि वो अपने पुरखों और समाज के उपयोगी ज्ञान से अलग हो जाएं. उनको उसकी भी समझ हो इसका भी ध्यान रखना होगा. घुमंतू की मुख्य समाज के साथ होने वाली जुगलबन्दी तथा इनकी जीवन शैली पर गंभीर शोध कार्य करने और उसे मुख्यधारा के समक्ष लाने की अत्यंत आवश्यकता है. किसान की स्थिति को सुधारें बगैर घुमंतू समाज के हितों और जीवन शैली का संरक्षण संभव नही है.

(लेखक स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट है)

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