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Saturday, 21 December, 2024
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उत्तर प्रदेश में विपक्षी नेता मायावती नहीं, अखिलेश यादव हैं

मायावती ने बीजेपी की नीतियों के प्रति नरमी दिखाकर मुसलमानों को सपा की तरफ जाने को मजबूर कर दिया है, जिनका रुझान पहले भी सपा की तरफ ही था. यूपी में सपा ही प्रमुख विपक्षी दल है.

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उत्तर प्रदेश की राजनीति लोकसभा 2019 परिणाम आने से लेकर अब के बीच तेजी से बदली है. लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद ऐसा माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी दूसरे नम्बर की पार्टी का स्थान ले सकती है और इस स्थान से समाजवादी पार्टी को बेदखल कर सकती है. लेकिन हमीरपुर विधानसभा उपचुनाव से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सपा ने यूपी के प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत न सिर्फ बनाए रखी है, बल्कि इस स्थान पर उसकी स्थिति मजबूत हुई है. हालांकि, एक उपचुनाव से यूपी जैसे बड़े राज्य में राजनीतिक रुझान का अंदाजा लगा पाना मुश्किल है, लेकिन इससे कुछ संकेत तो मिल ही रहे हैं.

हमीरपुर विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी प्रत्याशी युवराज सिंह को 38.55 प्रतिशत मत प्राप्त हुए और बीजेपी ने इस सीट पर कब्जा बनाए रखा. हालांकि, उसकी जीत का अंतर घटा है. वहीं सपा के प्रत्याशी मनोज कुमार प्रजापति को 29.29 प्रतिशत मत प्राप्त हुए और वह दूसरे स्थान पर रहे. बीएसपी के प्रत्याशी नौशाद अली को सिर्फ 14.92 मत प्राप्त हुए. हमीरपुर में बीएसपी कई दशकों से मजूबत स्थिति में रही है. बीएसपी ने हमीरपुर विधानसभा से मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा था. जिन्हें मुस्लिम समाज में स्वीकार नहीं किया. अगर हमीरपुर में सिर्फ मुसलमानों और दलितों ने भी बीएसपी को वोट दिया होता, तो बीएसपी को इससे ज्यादा वोट मिलते. ऐसा माना जा रहा है कि बीएसपी को इस बार मुसलमानों के वोट कम मिले. सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ होगा?


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मायावती का रुख बीजेपी के प्रति नर्म

केंद्र में नरेंद्र मोदी की वापसी के बाद, बीएसपी प्रमुख मायावती का बीजेपी के प्रति कई मामलों में नरम रूख देखा जा रहा है. अभी हाल के दिनों में तीन तलाक बिल, एनआरसी, यूएपीए, अनुच्छेद-370 जैसे मामलों में बीएसपी ने सरकार का विरोध नहीं किया. इनमें से कुछ मामलों में बीएसपी ने सदन से अनुपस्थित रह कर बीजेपी की मदद की. 370 पर तो बीएसपी खुलकर सरकार के समर्थन में खड़ी रही. मीडिया में ऐसी खबर आई कि तीन तलाक बिल और आर्टिकल 370 पर बीएसपी नेतृत्व से अलग राय रखने के कारण दानिश अली को बीएसपी संसदीय दल के नेता पद से हटा दिया गया. इससे मुस्लिम समाज में गलत संदेश गया. तीन तलाक बिल पर बीएसपी के सतीश मिश्रा ने राज्य सभा में खिलाफ में भाषण दिया, लेकिन मतदान के समय बीएसपी का कोई सदस्य मौजूद नहीं था.

सपा ने निभाई विपक्ष की भूमिका

सपा इस मामले में अपनी सैद्धांतिक स्थिति के साथ खड़ी रही, बेशक इससे बिल के पास होने पर कोई असर नहीं पड़ा. इस पूरे घटनाक्रम में बीएसपी के मुकाबले सपा, सरकार की ज्यादा मुखर विरोधी साबित हुई. साथ ही सेकुलरिज्म और भाजपा विरोध के मुद्दे पर सपा की पहचान भी मजबूत हुई है. यूपी की राजनीति के हिसाब से देखें तो बीएसपी ने मुसलमानों के बीच अपनी साख कमजोर की है. यूपी की विपक्ष की वर्तमान राजनीति में मुसलमानों के समर्थन का खासा महत्व है और सपा को इस मामले में बढ़त हासिल हो गई है. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को मुसलमान वोट इसलिए भी मिले थे कि उसका सपा के साथ गठबंधन था. बसपा अगर ये सोच रही है कि मुसलमानों ने उसे अपनी पसंद मान लिया है, तो वह गलतफहमी में है. हमीरपुर के नतीजों से उसकी गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए.

गठबंधन तोड़ने का दाग बीएसपी पर

लोकसभा चुनाव के दौरान सपा और बसपा का गठबंधन होने से यूपी के गैर-भाजपाई मतदाताओं में खुशी की लहर दौड़ गई थी. इस गठबंधन का स्वरूप सामाजिक भी था और इससे कई जातियां एक दूसरे के करीब आ रही थीं. बेशक चुनाव नतीजे इन दलों की उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे, लेकिन इतना तय है कि अगर ये गठबंधन न हुआ होता तो सपा और बसपा को वे 15 सीटें भी न मिलतीं, जो उसे हासिल हुई हैं. आखिर ये नहीं भूलना चाहिए कि 2014 में जब बीएसपी अकेले लड़ी थी, तब उसका खाता भी नहीं खुल पाया था.

इस वजह से जब चुनाव नतीजों के बाद बीएसपी ने एकतरफा पहल करते हुए गठबंधन तोड़ दिया तो इससे दोनों दलों के समर्थक निराश हुए. बीएसपी ने न सिर्फ गठबंधन तोड़ा, बल्कि बीएसपी प्रमुख मायावती ने ये भी कह दिया कि सपा अपने वोट संभाल कर नहीं रख पाती है और न ही आपका वोट ट्रांसफर कर पाती है. सवाल उठता है कि अगर सपा का वोट बसपा को नहीं मिला, तो उसे 10 सीटें कैसे मिलीं? बीएसपी का ये व्यवहार बीएसपी समर्थकों को भी पसंद नहीं आया होगा. इस दौरान सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने शालीनता बनाए रखी और अपनी पार्टी के नेताओं को भी बीएसपी और मायावती के खिलाफ बयानबाजी करने से रोका. इससे अखिलेश यादव का कद बड़ा हुआ है. अभी हाल ही में एक दर्जन से अधिक बीएसपी नेताओं ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन की है. उसके पीछे उन सभी नेताओं की यह दलील है कि मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन को तोड़ दिया है, जिससे सामाजिक न्याय की बीजेपी के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई है.


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युवाओं के बीच भी अखिलेश यादव की लोकप्रियता ज्यादा है. 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के पास दिखाने के लिये ज्यादा उपलब्धियां हैं. अखिलेश सरकार की योजनायें जैसे- लैपटॉप वितरण, एक्सप्रेस-वे, लखनऊ मेट्रो, जनेश्वर मिश्र पार्क, इकाना स्टेडियम और आईटी सिटी जैसी योजनाओं के मुकाबले बीएसपी के पास दिखाने के लिए सिर्फ पार्क और मूर्तियां हैं.

सपा अगर अगले विधानसभा चुनाव के लिए सही तरीके से गठबंधन करती है और चुनावों वादों में किसानों, पशुपालकों, दलितों, युवाओं और अल्पंसख्यकों का ध्यान रखती है, तो उसकी संभावनाएं उज्ज्वल हो सकती हैं. विधानसभा के आने वाले उपचुनाव से यूपी की राजनीति की दिशा और स्पष्ट हो जाएगी.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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