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Wednesday, 8 October, 2025
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भारत-अमेरिका के व्यापार मामलों में अब सिर्फ गुप्त कूटनीति ही काम कर सकती है

अगर भारत में प्रतिस्पर्धा कमजोर हो जाए तो इसे विदेशों में बचाया नहीं जा सकता. शॉर्ट टर्म कदम सहारा दे सकते हैं, लेकिन सुधारों के बिना, निर्यातक हमेशा कमजोर बने रहेंगे.

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अमेरिका की हालिया टैरिफ ने भारतीय निर्यातकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. वस्त्र, चमड़ा, ज्वैलरी और हीरे-जवाहरात के लिए 50 प्रतिशत ड्यूटी कोई मामूली बाधा नहीं है; यह उनके सबसे अहम बाजारों में से एक से लगभग पूरी तरह से बाहर कर देता है. ऑर्डर कैंसिल हो रहे हैं, कारखाने उत्पादन घटा रहे हैं, और वियतनाम और बांग्लादेश जैसे प्रतियोगी तेजी से इस मौके का फायदा उठा रहे हैं. इसके परिणाम वास्तविक रूप में दिखाई दे रहे हैं—नौकरियों में कमी, मजदूरी में गिरावट और चालू खाता घाटे पर नया दबाव.

तत्काल प्रभाव में, कुछ नीति विकल्प हैं. निर्यात क्रेडिट लाइनों का विस्तार, ASEAN और अफ्रीका की ओर विविधीकरण में तेजी, और संकटग्रस्त निर्यात क्षेत्रों के कर्मचारियों को राहत देना प्रभाव को कम कर सकता है. दिल्ली को वाशिंगटन के साथ व्यापार समझौते के लिए बातचीत जारी रखनी चाहिए, लेकिन केवल गुप्त कूटनीति ही सफल हो सकती है.

इसके लिए शिखर सम्मेलन स्तर की घोषणाओं और दिखावटी समर्थन से बचना होगा. लेकिन ये केवल अस्थायी उपाय हैं. कठोर सच्चाई यह है कि अमेरिका की नीति के अलावा घरेलू गहरी अक्षमताओं के कारण ही भारत शुल्क झेलने में कमजोर है. यह टैरिफ झटका उस कमजोरी को उजागर करता है जिसे हम लंबे समय से नजरअंदाज करते आए हैं.

बिजली क्षेत्र में सबसे ज्यादा टैरिफ

ऊर्जा क्षेत्र पर ध्यान दें. भारतीय उद्योग एशिया में सबसे अधिक बिजली दरें चुकाते हैं, इसका कारण यह नहीं कि बिजली उत्पादन महंगा है, बल्कि इसलिए कि उद्योगों को घरों और कृषि का सब्सिडी देना पड़ता है. कई राज्यों में, उन्हें स्पलाई  लागत से 30 से 40 प्रतिशत अधिक भुगतान करना पड़ता है. औसत 20 प्रतिशत की ट्रांसमिशन हानि जोड़ दें, तो बिजली निर्यात पर छुपा हुआ कर बन जाती है.

जब तक भारत बिजली की दरें सही तरीके से नहीं तय करता और सब्सिडी सीधे लोगों को दी जाती है, न कि उद्योगों से वसूली करके छिपाई जाती है, तब तक निर्यातक दुनिया के बाजार में मुकाबला नहीं कर पाएंगे. डिस्कॉम बचाव पैकेज को दक्षता से जोड़ना चाहिए और सालाना दर निर्धारण स्वचालित और पारदर्शी होना चाहिए. इस सुधार के बिना, हर भारतीय निर्यातक अनावश्यक बोझ उठाता रहेगा.

वियतनाम जैसे देश औद्योगिक क्लस्टर बनाकर हमसे आगे निकल गए हैं. वहां जमीन पारदर्शी रूप से लीज पर दी जाती है. इस्तेमाल के बाद फिर दोबारा दी जाती है. यह आवास, स्कूल और अस्पताल जैसी सामाजिक सुविधाओं से समर्थित होती है. भारत को भी औद्योगिक जमीन को उसके जीवन चक्र के अंत में या फैक्ट्री बंद होने पर दोबारा इस्तेमाल करना चाहिए. यह बिक्री को लीज में बदलकर किया जा सकता है. अगर भारत लागत कम करना और निर्यात के लिए अनुकूल क्लस्टर बनाना चाहता है.

परिवहन और लॉजिस्टिक्स के हालात भी एक जैसे

परिवहन और लॉजिस्टिक्स भी यही कहानी बताते हैं. भारत में माल ढुलाई की लागत बढ़ी हुई है क्योंकि पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 45–55 प्रतिशत टैक्स है, जिसमें केंद्रीय उत्पाद शुल्क और राज्य कर शामिल हैं. इनको सही करना और डीजल की कीमत को वैश्विक मानकों से जोड़ना, साथ ही GST बेस बढ़ाना, प्रतिस्पर्धा के लिए जरूरी है. लॉजिस्टिक्स निर्मित निर्यात की लागत का लगभग 18 से 20 प्रतिशत निगल जाते हैं.

वियतनाम में यह आंकड़ा 10 से 12 प्रतिशत है; मलेशिया में 8 से 10 प्रतिशत। यहां ट्रक दिन में केवल उतनी दूरी तय करते हैं जितनी चीन या वियतनाम में आधी. बंदरगाह पर सामान 3 से 5 दिन रुकता है, जबकि मलेशिया या वियतनाम में यह एक दिन से कम है. हर अक्षमता लागत बढ़ाती है. इसी वजह से भारतीय निर्यात की फैक्टरी गेट पर लागत प्रतियोगियों की तुलना में 7–10 प्रतिशत अधिक होती है. इसका समाधान औद्योगिक हब, एक्सप्रेसवे, हाईवे, रेलवे और बंदरगाह के बीच सीधी कनेक्टिविटी, आधुनिक गोदाम, कोल्ड चेन और तकनीक-आधारित लॉजिस्टिक्स बनाना है. इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि निर्यात क्लस्टर में स्कूल, अस्पताल और संचार व्यवस्था हो ताकि कामगार यहां आएं और टिकें.

सामान बनने के बाद भी कंपनियों को नियमों की जटिलता से गुजरना पड़ता है. डिजिटलीकरण के बावजूद प्रक्रियाएं मंत्रालयों और राज्यों में बिखरी हुई हैं. व्यवसाय पोर्टल, अनुमोदन और निरीक्षण में हफ्तों बिता देते हैं. GST प्रणाली, जिसे सरल बनाने के लिए लाया गया था, छोटे व्यवसायों के लिए बहुत जटिल हो गया है. एक एकीकृत नेशनल कंप्लायंस ग्रिड जरूरी है, जो केंद्र और राज्य की प्रणालियों को एक डिजिटल वर्कफ़्लो में जोड़ दे. अनुमोदन एल्गोरिदम आधारित होने चाहिए और वास्तविक उच्च जोखिम मामलों के लिए ही भौतिक निरीक्षण होना चाहिए. राजस्थान MSME (Facilitation & Development) Act 2019, जो छोटे व्यवसायों को कई पूर्व-स्थापना अनुमोदनों से मुक्त करता है, एक मॉडल है जिसे अपनाया जा सकता है.

आखिरकार, निर्यातक ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते जहां कच्चे माल तक पहुंच अनिश्चित हो. कपास, सोना, थोक दवाएं, कृषि उत्पाद—सभी पर अचानक नीति बदलाव होते हैं: निर्यात प्रतिबंध, शुल्क बढ़ाना, स्टॉक रखने की सीमाएं. ये अचानक बदलाव विश्वास को कमजोर करते हैं और कंपनियों को दीर्घकालीन अनुबंध करने से रोकते हैं. इसके लिए आवश्यक है कि वाणिज्य और वित्त मंत्रालय पांच साल का स्थिर फ्रेमवर्क घोषित करें, जो स्थिरता प्रदान करे. वियतनाम ने कपास के लिए यह किया ताकि अपने वस्त्र निर्यात सुरक्षित कर सके; मलेशिया ने पाम ऑयल के लिए किया. भारत अब अस्थिर नीतियों के साथ नहीं चल सकता.

अमेरिकी टैरिफ्स कोई अपवाद नहीं हैं; यह चेतावनी है. अगर घरेलू स्तर पर प्रतिस्पर्धा कमजोर हो गई तो भारत अपनी प्रतिस्पर्धा विदेशों में बचा नहीं सकता. अल्पकालिक उपाय प्रभाव को कम कर सकते हैं, लेकिन केवल संरचनात्मक सुधार स्थायी मजबूती ला सकते हैं. इनके बिना, भारत के निर्यातक हमेशा कमजोर रहेंगे. “ट्रंप टैंट्रम” सिर्फ संदेश पहुंचाने वाले हैं. संदेश स्पष्ट है: सुधार वैकल्पिक नहीं है. यह जरूरी और अनिवार्य है.

लेखक भारत सरकार के पूर्व फाइनेंस सेक्रेटरी और इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, जयपुर के अध्यक्ष हैं. लेख में व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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