कांग्रेस अध्यक्ष अगले लोकसभा चुनावों में जीतने की कोशिश तक नहीं कर रहे हैं।
एक पर एक की लड़ाई में ज़रूरी नहीं है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेना किसी भी पक्ष के पास हो। दोनों हतोत्साहित हो सकते हैं। जो बेहतर होगा वही जीतेगा।
जब आप दुनिया की सबसे अच्छी क्रिकेट टीमों के बारे में सोचते हैं, तो आप बांग्लादेश के बारे में नहीं सोचेंगे। फिर भी जिम्बाब्वे के साथ मैच हो तो बांग्लादेश आसानी से जीत जाएगा। आपको सबसे अच्छी टीम होने की ज़रूरत नहीं है, आपको केवल अपने प्रतिद्वंद्वी से बेहतर बनने की आवश्यकता है।
2019 के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे अच्छी टीम तो नही है। लेकिन यह कांग्रेस से तो अच्छी ही प्रतीत होती है।
‘कोई भी चलेगा’
करीब 21 प्रतिशत धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों में से कई और मुट्ठी भर वामपंथी-उदारवादियों के लिए कोई भी मोदी/भाजपा से बेहतर हो सकता है, इसलिए राहुल गाँधी स्वीकार्य हैं। आप उनको यह कहते हुए सुनेंगे, “कोई भी चलेगा”।
हमने ऐसा दृश्य पहले भी देखा है, 2014 में उनको ‘मोदी नहीं लेकिन कोई भी’ चाहिए था, उसी तरह जैसे कि अमेरिका के उदारवादियों को ‘ट्रम्प नहीं लेकिन कोई भी’ चाहिए था।
‘ट्रम्प नहीं लेकिन कोई भी’ के साथ समस्या यह थी कि इसका मतलब यह नहीं था कि “हिलेरी एक महान राष्ट्रपति होंगी।“ इसी तरह से जो लोग कहते हैं कि मोदी नहीं लेकिन कोई भी’ उन्हें यह कहते हुए नहीं सुनते की ‘राहुल गाँधी एक महान प्रधानमंत्री बनेंगे।’
इन चार सालों में जहाँ उनकी पार्टी में ऐतिहासिक गिरावट आई है, राहुल गाँधी वोटरों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब नहीं हो पाए है कि उनके पास देशवासियों के लिए एक सपना (विजन) है। गाँधी और उनकी पार्टी वोटरों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रही है कि वे एक बेहतर शासन कायम कर सकते हैं। पिछले चार सालों में कांग्रेस किसी भी बड़े चुनाव में भाजपा को मात देने में नाकाम रही है, जबकि क्षेत्रीय पार्टियों ने ऐसा करने की ताकत दिखाई है।
‘और है कौन?’
प्रधानमंत्री मोदी के बचाव में आजकल अक्सर तीन ही शब्द सुनने को मिलते हैं। “और है कौन?” या “विकल्प ही कौन है?”
ध्यान दीजिए, ऐसी बातें आपको मोदी समर्थकों से ही सुनने को मिलेंगी, उनके आलोचकों से नहीं।
यदि उपरी तौर पर देखा जाये , तो यह सवाल एक बेहतर विकल्प की ज़रूरत की तरफ़ इशारा करता है जो की उपलब्ध नहीं है। राहुल गाँधी वह विकल्प बनने में नाकाम रहे हैं।
अगर असलियत में देखा जाये तो सवाल ये है कि “और है कौन?” और यह सवाल ही अपने आप में इस बात पर सवाल है कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 में अच्छे दिनों का जो वादा किया था वह दिखाए नहीं।
मोदी आज 2014 के मुकाबले में पहले से आधे भी मजबूत नहीं रहे हैं, जब वह कुछ भी कह सकते थे और इससे बच कर निकल सकते थे। उनके विचित्र दावों, उनके द्वारा दिखाए गए सपनों ने उन्हें बिल्कुल उस व्यक्ति के रूप में दर्शाया जिसकी जनता को जरूरत थी। इस तरह का विश्वास उन्होंने प्रेरित किया था की लोगों द्वारा उनको ‘फेंकू’ बुलाना भी उनके ख़िलाफ़ काम नहीं किया।
मोदी केवल इसलिए इस पद पर नहीं शोभित हैं क्योंकि वह अब तक की सबसे ख़राब सरकार यूपीए -2 के खिलाफ प्रचार कर रहे थे, बल्कि इसलिए भी है क्यूँकि उन्होंने गुजरात में अपनी उपलब्धियों को जनता के समक्ष अच्छे से बेचा था।
हालांकि, 2014 की अपेक्षा में मोदी काफी सिमट से गए हैं। वे एक अलोकप्रिय सरकार को चुनौती देने वाला होने का फायदा नहीं उठा सकते हैं। वह अब एंटी इनकंबेंसी का सामना कर रहे हैं। उनके पास अपनी उपलब्धियाँ गिनाने को बची ही नहीं है इसलिए वह कांग्रेस पर ऐसे वार कर रहे हैं जैसे कि कांग्रेस अभी भी सत्ता में हो।
विदेशी नीति से लेकर किसानों तक, नौकरियों से जीएसटी तक, वे सभी मोर्चों पर कमजोर दिख रहे हैं।
सूचना के अधिकार की जाँच से पता चला है कि 2014 की अपेक्षा, जब मोदी ने गंगा की सफाई के लंबे चौड़े वादे किए थे, तब से गंगा अब अधिक प्रदूषित है।
जो उन्होंने बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट का वादा किया था, वह अपने पहले पुल पर काम चालू होने के बाद ठप हो गया। उनकी पार्टी ने दलितों को, बड़े व्यवसाइयों को दूर कर दिया है। समाज का कौन सा वर्ग वास्तव में उनसे खुश है?
ऐसी आलोचना के सामने, मोदी समर्थकों का यही आखिरी जवाब होता है ‘और है कौन?’
कोशिश भी नहीं कर रहे
पिछले कुछ सालों में पूरे देश में किसानों ने अनगिनत विरोध प्रदर्शन किए हैं, जिनमें से कुछ वाम-पंथी किसानों के संगठनों द्वारा प्रेरित किए गए हैं। पटेल आंदोलन के कारण नहीं बल्कि किसानों के असंतोष के कारण गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र में भाजपा ने अधिक संख्या में सीटें हरी थी।
यदि भारत में बलवान विपक्ष होता तो हमें दिल्ली में किसानों के भयंकर विरोध देखने को मिलता, जिससे सरकार घुटनों पर आ जाती, जैसा कि 2011 में लोकपाल आंदोलन ने यूपीए -2 के साथ किया था। अगर गांधी के बजाय हमारे पास असली विपक्षी नेता होता, तो वह देश भर से किसान नेताओं को इकट्ठा करके रामलीला मैदान में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ जाता।
इसके बजाए, गांधी यहाँ वहाँ जाते हैं, खासकर राज्य चुनावों के दौरान, किसानों को संबोधित करते हैं और फिर यूरोप के लिए निकल जाते हैं। उन्होंने किसानों के अधिकारों के बारे में मंदसौर में एक भाषण दिया और फिर वह लंदन या कही और चले गए थे। अगर वह जून में किसानों के लिए आंदोलन करते और यूरोप छुट्टियाँ मनाने ना जाते, तो वह मोदी सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्यों की वृद्धि के लिए क्रेडिट ले सकते थे।
कांग्रेस पार्टी के प्रतिष्ठित वक्ताओं ने कर्नाटक में अपनी नाक कटने से बचा ली लेकिन एक अच्छे गठबंधन कैबिनेट के गठन की देखरेख करने के बजाय गांधी विदेश में थे। उन्होंने एक इफ्तार पार्टी दी लेकिन विपक्षी नेताओं को आमंत्रित करना भूल गए। उन्होंने कहा कि कोका-कोला शिकंजी से बना है जिसने लोगों को उनकी ‘पप्पू’ छवि के बारे में याद दिलाया।
उनके नेतृत्व में, उनकी पार्टी ने कठुआ और उन्नाव बलात्कार के मामलों के खिलाफ मध्यरात्रि में विरोध किया। विरोध प्रदर्शन इतनी बुरी तरह आयोजित किया गया था कि प्रियंका गांधी उन लोगों पर भड़क उठीं जो धक्का मुक्की कर रहे थे। गांधी इंडिया गेट पर कायदे से एक ढंग का विरोध प्रदर्शन भी आयोजित नहीं कर सकते हैं। क्या वे वास्तव में देश चला सकते हैं?
एक अच्छा विरोध प्रदर्शन करना और इफ्तार पार्टी आयोजित करना, या एक अच्छा भाषण देने के लिए पहले से योजना तैयार करने की आवश्यकता होती है। लेकिन एक ही ऐसी चीज है जिसकी गांधी अछी योजना बनाते हैं और वह है उनकी यूरोप की छुट्टियां।
कांग्रेस कार्यकारिणी समिति भंग होने के ढाई महीने बाद, गांधी अभी तक एक नई कमेटी का निर्माण नहीं कर पाए हैं। यह पार्टी के सर्वोच्च निर्णय लेने वाला निकाय है।
लगभग 10 महीने हो चुके हैं कि बिहार में कांग्रेस का कोई प्रमुख नहीं है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि भाजपा इस तरह के एक महत्वपूर्ण राज्य, या किसी भी राज्य को तक बिना नेतृत्व के छोड़ देगी?
उत्तर प्रदेश में गांधी क्या भूमिका निभा रहे हैं? बिहार में चल रहे राजनीतिक मंथन में उनका क्या हस्तक्षेप है? राजस्थान में गेहलोत बनाम पायलट गुटवाद को सुलझाने के बारे में वह क्या कर रहे हैं?
कम से कम 200 लोकसभा सीटों पर भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला होगा। ये वही सीटें हैं जिनपर बीजेपी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देगी, जैसा कि 2014 में किया था।
शायद मोदी 2014 की तुलना में कम शक्तिशाली दिख रहे होंगे, लेकिन गांधी भी उन्हें हराने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
गांधी सोचते हैं कि जब भी लोग बीजेपी से ऊब जाएंगे तब सत्ता उनकी गोद में आकर गिर जाएगी। यदि यह 2024 या 2029 में होता है, तो ऐसा ही ठीक। वह कड़ी मेहनत क्यों करें?
Read in English: Only reason why Narendra Modi will return in 2019 is Rahul Gandhi