हिंदी पट्टी में कांग्रेस की चुनावी हार का एक अनुमानित कारण INDIA गठबंधन में नई दरारों का उभरना है. आप तर्क दे सकते हैं, जैसा कि कांग्रेस में कई लोग करते हैं, कि ये दरारें उतनी बड़ी नहीं हैं जितना मीडिया ने उन्हें दिखाया है. लेकिन फिर कांग्रेसी तो यही कहेंगे, नहीं कहेंगे क्या?
विवाद से परे बात यह है कि 28 राजनीतिक दलों वाले गठबंधन में कई नेताओं ने इस सप्ताह निर्धारित एलायंस मीटिंग में भाग लेने से बचने की कोशिश की. कुछ, जैसे कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख स्टालिन, जिन्हें चक्रवात के बाद के हालात से निपटना था, उनके पास शायद अधिक महत्वपूर्ण काम थे करने को. लेकिन उनमें से अधिकतर ने बस बहाने ही पेश किए.
वे क्यों नहीं आना चाहते थे? खैर, मूलतः वे कांग्रेस को संदेश देना चाहते थे. ऑफ द रिकॉर्ड, उनमें से ज्यादातर ने हमेशा शिकायत की है कि वे गठबंधन में कांग्रेस के ‘बिग ब्वॉय’ वाले रवैये से नाराज हैं. अब जब कांग्रेस हार गई है, तो वे इस अवसर का उपयोग अपनी नाराजगी दिखाने के लिए कर रहे हैं.
लेकिन एक और कारण है. यदि कांग्रेस का व्यवहार मधुर और तर्कसंगत होता, समस्याएं तब भी होतीं. अधिकांश विपक्षी नेता कांग्रेस से आंशिक रूप से घृणा करते हैं. क्योंकि उनमें से कुछ इसके पूर्व सदस्य हैं. वास्तव में, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य उन विपक्षी नेताओं से भरा पड़ा है जो कभी कांग्रेस का हिस्सा थे – वाईएस जगन मोहन रेड्डी से लेकर के चंद्रशेखर राव (केसीआर) और ममता बनर्जी तक. (और इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया व हिमंत बिस्वा सरमा जैसे भाजपा के स्टार नेताओं की गिनती ही नहीं है.)
पीवी नरसिम्हा राव और प्रणब मुखर्जी ने ममता बनर्जी को कांग्रेस से बाहर कर दिया था. जगन रेड्डी यूपीए के निरर्थक विच-हंट का निशाना बन गए. केसीआर यूपीए में बने रहते अगर सोनिया गांधी ने उनके तेलंगाना राज्य बनाए जाने के अनुरोध को स्वीकार कर लिया होता (उस समय तो यह मांग भी नहीं थी). जैसा कि बाद में पता चला, यूपीए ने उन्हें तेलंगाना राज्य बनाने से पहले ही बाहर जाने दिया ताकि केसीआर इसका श्रेय ले सकें.
ये सभी लोग (भाजपा में शामिल हुए लोगों के बारे में तो बात करने की ज़रूरत ही नहीं) कांग्रेस के ऊपर दादागिरी, खराब व्यवहार और अहंकार का आरोप लगाते हैं. किसी भी राजनीतिक दल में शायद ही कोई गैर-कांग्रेसी राजनेता हो जो कांग्रेस के प्रति गर्मजोशी महसूस करता हो. भारतीय राजनीति वैसे भी मोहभंग हुए पूर्व कांग्रेस सदस्यों और उन कट्टर विरोधियों के बीच बंटी हुई है, जिन्होंने अपना जीवन कांग्रेस के विरोध में बिताया है.
इसलिए, जबकि आज भारतीय राजनीति में कांग्रेस के पास न ही कोई स्वाभाविक सहयोगी नहीं है, बल्कि उसके पास बहुत सारे दुश्मन हैं. इससे किसी भी प्रकार का गठबंधन बनाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है. विपक्षी गठबंधन को काम करने के लिए, आपको या तो दिवंगत हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे स्वतंत्र डील करने वाले या सोनिया गांधी जैसे नेता की आवश्यकता है, जो विनम्रता के साथ अन्य राजनीतिक दलों से संपर्क करने और उन्हें 2004 में यूपीए में शामिल होने का अनुरोध करने के लिए तैयार थीं.
फिर भी, मेरा अनुमान है कि एक बार इस सप्ताह की जोर-आज़माइश खत्म हो जाने के बाद, विपक्षी दल अंततः इंडिया एलायंस के तहत फिर से एकजुट हो जाएंगे. लेकिन वे सभी इस बात पर ज़ोर देंगे कि जिन राज्यों में भाजपा (मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात आदि) से मुकाबला करने की जिम्मेदारी कांग्रेस पर है, वहां पार्टी ने गड़बड़ी कर दी है.
यह भी पढ़ेंः राहुल गांधी ने अपना काम कर लिया है, लेकिन क्या यह पर्याप्त है? लोग मोदी को अभी भी अजेय मानते हैं
एकजुट विपक्ष कुछ नहीं कर सकता
किसी भी गठबंधन की राजनीति, विशेषकर भारतीय समूह के पीछे केंद्रीय धारणा यह है कि सत्ता में पार्टी को हराने के लिए आपको विपक्षी एकता की आवश्यकता है.
लेकिन क्या आप?
विपक्षी एकता का सामान्य तर्क वोट शेयर के संदर्भ में तैयार किया जाता है. उदाहरण के लिए, तर्क यह है कि विपक्ष 1977 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को हराने में सक्षम था क्योंकि वह वोटों के विभाजन से बचने के लिए जनता पार्टी की छत्रछाया में एक साथ आया था.
इस तर्क का समकालीन वर्ज़न दो कारकों पर आधारित है. पहला यह कि भाजपा की जीत का एकमात्र कारण यह है कि विपक्षी वोट बंट गया.
लेकिन क्या सचमुच वही मामला था? आइए मान लें कि इंडिया एलायंस ने छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में एक गुट के रूप में चुनाव लड़ा था. क्या इससे बहुत फ़र्क पड़ता? छत्तीसगढ़ में बीजेपी को 46 फीसदी वोट मिले, जो कांग्रेस से 4 फीसदी ज्यादा है. क्या कोई विपक्षी दल था जिसका वोट कांग्रेस को स्थानांतरित किया जा सकता था?
मध्य प्रदेश में, 8 प्रतिशत का भारी अंतर था. क्या कोई गठबंधन 48.56 फीसदी वोट पाने वाली पार्टी को हरा सकता था?
केवल राजस्थान में, जहां भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर के बीच का अंतर केवल 2 प्रतिशत था, शायद इस अंतर को पाटा जा सका.
दूसरा वैरिएबल यह विश्वास है कि वोट को दूसरे को ट्रांसफर किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, यदि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करती है, तो सभी कांग्रेस मतदाता उन निर्वाचन क्षेत्रों में सपा उम्मीदवार को वोट देंगे जहां कोई कांग्रेस उम्मीदवार नहीं है (गठबंधन व्यवस्था के हिस्से के रूप में).
लेकिन क्या वे ऐसा करेंगे?
पिछली बार जब इन दोनों दलों ने 2017 में उत्तर प्रदेश में गठबंधन किया था, तो उन्हें पता चला कि वोट का ट्रांसफर नहीं होता. सभी सपा समर्थकों ने कांग्रेस उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया. और इसके विपरीत भी हुआ यानि सभी कांग्रेस समर्थकों ने सपा को वोट नहीं दिया.
तो, इंडिया एलायंस का चुनावी तर्क क्या है? आप इसे जिस भी तरीके से देखें, जरूरी नहीं कि अंकगणित भाजपा के खिलाफ और गठबंधन के पक्ष में काम करे.
INDIA गुट का झगड़ा एक दिखावा है
जहां तक मैं देख सकता हूं, इंडिया एलायंस में शामिल होने के केवल दो फायदे हैं. पहला यह है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में त्रिशंकु संसद की अप्रत्याशित स्थिति में, मिसाल से पता चलता है कि राष्ट्रपति को सरकार बनाने की कोशिश करने के लिए इंडिया एलायंस को बुलाना होगा, भले ही भाजपा सबसे बड़ी पार्टी हो. लेकिन अगर बीजेपी ने भी चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया तो यह फायदा भी बेमानी होगा.
यह दूसरा फायदा है जिससे कुछ फर्क पड़ सकता है. जब भी लोगों से राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच चयन करने के लिए कहा जाता है, तो उनमें से अधिकांश मोदी को चुनते हैं. इसलिए, भाजपा हमेशा पसंदीदा विकल्प रहेगी क्योंकि सर्वेक्षण से पता चलता है कि ज्यादातर लोग राहुल को पीएम बनाने के विचार को लेकर उतने उत्साहित नहीं हैं.
हालांकि, अगर इंडिया एलायंस चुनाव को कम प्रेसिडेंशियल बना सकता है और मोदी व राहुल के बीच कोई विकल्प नहीं दिखता है, तो शायद लोग प्रदर्शन और नीतियों के आधार पर वोट देंगे, यह मानते हुए कि मोदी का विकल्प कोई व्यक्ति नहीं बल्कि अनुभवी नेताओं का गठबंधन है.
यह तभी काम कर सकता है जब भारतीय गठबंधन के सहयोगी एकजुट हों और मिलकर काम करने में सक्षम हों. भारतीय जानते हैं कि गठबंधन कैसे टूट सकता है. फिलहाल, एलायंस के नेताओं का व्यवहार यह संकेत नहीं देता कि वे कांग्रेस के साथ खुशी से काम कर सकते हैं. वहीं कांग्रेस के बिना कोई भी विपक्षी मोर्चा नहीं बन सकता.
तो हां, INDIA एलायंस में झगड़ा हो सकता है. लेकिन सच कहूं तो यह उतनी बड़ी बात नहीं है जितना मीडिया इसे बना रहा है. भले ही पार्टियां अपने मतभेद सुलझा लें, मुझे संदेह है कि उनकी एकता से अगले चुनाव के नतीजों पर कोई फर्क पड़ेगा.
फिलहाल तो मोदी को सिर्फ मोदी ही हरा सकते हैं. 2024 का चुनाव बीजेपी की हार के साथ ही ख़त्म होगा अगर मोदी गलतियां करें या उनकी लोकप्रियता अचानक कम हो जाए. आपस में झगड़ने वाले INDIA एलायंस के नेता दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः विदेशों में भारतीय मूल के राजनेताओं पर गर्व करना बंद कीजिए, उनमें से कई लोग नकली और नस्लवादी हैं