प्रधानमंत्री ने एक राष्ट्र एक चुनाव पर 19 जून, 2019 को सर्वदलीय बैठक बुलाई. गत् कई महीनों से इस पर चर्चा भारतीय जनता पार्टी की तरफ से की जाने लगी थी और उस पर अब सर्वदलीय बैठक भी हो गयी, जिसका प्रमुख दलों जैसे – कांग्रेस, बसपा, सपा आदि ने बहिष्कार किया. संविधान सभा में इन सारे पक्षों पर पूरे विस्तार से चर्चा हुई थी और तब निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि भारत देश की विभिन्नता को देखते हुए संसदीय प्रणाली ही उचित होगी. संसदीय प्रणाली में क्षेत्रीय संतुलन के साथ-साथ उन जातियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा जो कभी शासन-प्रशासन में रही ही नहीं.
वास्तव में एक राष्ट्र को मजबूती देने का मार्ग ही यही है. राष्ट्रपति प्रणाली को हमारे यहां नहीं लागू किया गया, क्योंकि अमेरिका जैसे देश की तरह एकरूपता नहीं है. वहां पर एक ही भाषा, खान-पान, रीति-रिवाज आदि अन्य तत्व भी मिल जाएंगें जो हमारे यहां नहीं हैं. उत्तर भारत कभी भी दक्षिण भारत के साथ नहीं रहा और ज्यादा से ज्यादा मध्य भारत उत्तर भारत के साम्राज्य के साथ रहा है, लेकिन वह भी स्थायी तौर पर नहीं. उत्तर-पूर्वी भारत भी शायद कभी केन्द्रीय हुकूमत के साथ रहा हो. अशोक, चन्द्र गुप्त मौर्य, समुद्र गुप्त मौर्य, मुगल आदि की हुकूमत दिल्ली और पटना के इर्द-गिर्द ही रही है. अंग्रेजी हुकूमत की शासन-प्रणाली ने परिस्थितियां ऐसी पैदा कीं कि कन्याकुमारी से कश्मीर, गुजरात से उत्तर-पूर्व जुड़ गया, जिसमें रेल, डाक-तार, पब्लिक वक्र्स डिपार्टमेंट, न्यायपालिका, फौज आदि संस्थाओं की वजह से यह संभव हुआ. आजादी के आंदोलन, जिसका नेतृत्व कांग्रेस ने किया, की भी बड़ी भूमिका रही है.
एक राष्ट्र – एक चुनाव के पीछे की सोच क्या हो सकती है? समझना मुश्किल नहीं है. जो लोग सोच रहे हैं कि एक चुनाव से देश की एकता को बल मिलेगा, ऐसा बिल्कुल नहीं है. हाल में ही किस तरह से तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध हुआ है ? कई बार वहां चर्चा उठी कि दक्षिण भारत के राज्यों का अलग से परिसंघ बनना चाहिए. ऐसी बातें क्यों हुईं ? इसलिए कि उन्हें लगता है कि उनके ऊपर उत्तर भारत की चीजें थोपी जाती हैं. संसदीय प्रणाली में ही संभव है कि पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व हो सकेगा. यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि चुनाव में क्षेत्रीय दल या दलितों व पिछड़ों पर आधारित पार्टियां भाग नहीं ले सकेगीं लेकिन उनको खत्म करने का प्रयास इस सोच के पीछे है.
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मान लिया जाए कि सारी विधानसभाओं और लोक सभा का चुनाव एक साथ कर लिया जाता है तो जरूरी नहीं है कि सभी विधान सभाओं में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिले. हो सकता है मिली-जुली सरकार बने, जो मध्य में गिर जाए तो उसका क्या होगा ? क्या 5 सालों तक वहां राष्ट्रपति शासन से काम चलाया जाएगा ? जिस पार्टी के पास धन, प्रचार-तंत्र, मीडिया, साधन, होगा वह तेजी से पूरे देश में प्रचार में हावी हो जाएगी और साधनहीन और पिछड़े-दलित आधारित दल कमजोर होते चले जाएंगें. ऐसी परिस्थिति में आग अंदर सुलगने लगेगी और अनेकता में एकता को खासा आघात पहुंचेगा. वास्तव में एक राष्ट्र -एक चुनाव के पीछे कुछ और भी छुपा है, जैसे कि एक दल और एक नेता. यह कहा जा रहा है कि इससे खर्च में कटौती होगी तो यह हास्यास्पद बात है, क्योंकि अभी हाल ही में जो 7 चरणों में आम चुनाव हुआ, क्या उन्होंने इसका विरोध किया ? चुनाव 2 या 3 चरणों में भी हो सकते थे, तो खर्च में भारी कटौती अपने आप ही हो जाती.
एक राष्ट्र – एक चुनाव व्यावहारिक नहीं रह गया है. संविधान परिस्थितिवश भी बनता और बिगड़ता है. 1957 में पहली बार केरल की सरकार गिरा दी गयी थी और उसके बाद कई बार ऐसा हुआ, जिसकी वजह से लोक सभा के साथ विधान सभा के चुनाव एक साथ होने का ताल-मेल लगातार बिगड़ता गया. तमाम तरह के सुझाव आने लगे हैं कि भले ही बहुमत न रहे फिर भी 5 साल की अवधि तक सरकार चलती रहे. सैद्धांतिक रूप से तो यह सही प्रतीत होता है लेकिन व्यावहारिकता में जनतंत्र के खिलाफ है.
मूलभूत समस्या से भटकाने के लिए यह ख्याल अच्छा है. बेरोजगारी, किसानों की समस्या और अन्य मूलभूत समस्याओं से कुछ दिनों तक के लिए तो ध्यान हटाया ही जा सकता है. तमाम तर्क भी दिए जा सकते हैं कि चुनाव खर्च में कटौती नहीं करने दिया जा रहा है, जिससे कल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसा बच सकता है. यह भी चर्चा चलायी जा सकती है कि देश के जो लोग इसके समर्थन में नहीं हैं, वे देशद्रोही हैं.
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तमाम और तर्क गढ़े जा सकते हैं कि तमाम समस्याओं का हल यह हो सकता था लेकिन विपक्ष सहमत नहीं है. एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि बार-बार चुनाव से सरकारी तंत्र व्यस्त हो जाता है, जिसकी वजह से शासन-प्रशासन का काम नहीं हो पाता है.
एक राष्ट्र – एक चुनाव से सौ गुना ज़रूरी है की समान शिक्षा के लिए मोदी जी इतनी इच्छा दिखाएं तो राष्ट्र कहा पहुंच जाएगा. आज़ादी के बाद से अब तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया और न ही बहस चली. सबसे ज़्यादा निवेश की पावती अगर है तो शिक्षा में साधन व्यय करने से. एक बार सब लोग शिक्षित हो जाएं तो फिर उस देश को आगे जाने से कोई रोक नहीं सकता. बेहतर शिक्षा के लिए मध्यम वर्ग के लोग ज़िंदगी की कमाई लगा देते हैं और उसके नीचे के तपके की तो हैसियत नहीं होती कि वह अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ा सके .अच्छे सरकारी स्कूल बहुत ही कम हैं जहां ज़्यादा बच्चों को पढ़ने का मौक़ा मिल जाए .
केंद्र सरकार अंधी नक़ल अमेरिका और यूरोप की कर रह है कि सरकारी उद्योग बेच दिए जाएं लेकिन वहां की शिक्षा वयस्था से सीख नहीं ले रही है कि सरकारी स्कूल इतने अच्छे हैं कि निजी स्कूल के लिए कोई मारा मारी नहीं है. जिस दिन भारत में समान शिक्षा हो जाएगी उस दिन हम भी चीन और जापान बन जाएंगे लेकिन उससे चुनाव में फ़ायदा इतना ज़्यादा नहीं दिखता.
(पूर्व सांसद, राष्ट्रीय चेयरमैन, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ, ये लेख उनके निजी विचार हैं.)