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Friday, 22 November, 2024
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नागरिकता विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट क्या कहेगा – मोदी और शाह को इसकी परवाह नहीं

सुप्रीम कोर्ट यदि हस्तक्षेप करते हुए नागरिकता विधेयक में असंवैधानिक संशोधनों को निरस्त करने का फैसला करता है, तो भी मोदी-शाह को ज्यादा दुख नहीं होगा.

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए 311 और 80 की संख्याओं का कोई खास मतलब नहीं है. ये उन लोकसभा सांसदों की संख्याएं मात्र हैं जिन्होंने विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) विधेयक के क्रमश: समर्थन और विरोध में मतदान किया. इन दोनों नेताओं को इस बात की भी परवाह नहीं है कि इस विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या होगा.

मोदी और अमित शाह के लिए जो संख्याएं वास्तव में महत्वपूर्ण हैं वो हैं. 96.63 करोड़ और 17.22 करोड़ – यानी 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में हिंदुओं और मुसलमानों की संख्या. इसमें आप 2.78 करोड़ ईसाइयों, 2.08 करोड़ सिखों, 0.84 करोड़ बौद्धों और 0.45 करोड़ जैनों को जोड़ लें – वो सारे समुदाय जिन्हें नागरिकता (संशोधन) विधेयक या कैब में हिंदुओं के साथ जोड़ा गया है – तो आप मान जाएंगे कि विधेयक के मध्य रात्रि में लोकसभा में पारित होने के बाद दोनों संतुष्टि भाव के साथ सोए होंगे.

वास्तव में, कैब को राज्यसभा में या सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोके जाने पर भी उन्हें ज़्यादा चिंता नहीं होगी. उनका अघोषित उद्देश्य – जो राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर भी गौर करने पर अधिक स्पष्ट हो जाता है – ये संदेश देना है कि मुसलमानों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है.

यदि संसद में कैब पारित हो जाता है तो इस मामले में फोकस सुप्रीम कोर्ट पर आ जाएगा. वैसे संसद में भी अनुच्छेद 14 के बरक्स विधेयक की संवैधानिकता पर सवाल उठाए गए हैं. पर बहुतों का मानना है कि राज्यसभा द्वारा पारित किए जाने और राष्ट्रपति की स्वीकृत मिलने के बाद जब कैब कानून बन जाएगा तो निश्चय ही उसे दी गई चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी और तब कोर्ट संशोधनों को संविधान-विरुद्ध करार देगा.

सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में, खास कर एसआर बोम्मई बनाम भारतीय संघ मामले में, धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा बता चुका है.

ये सोचना नादानी होगी कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह न्यायिक पुनरीक्षण की इस संभावना से वाकिफ़ नहीं होंगे. उनके कानूनी सलाहकारों ने इस बारे में उन्हें अवगत करा दिया होगा. पर उनकी उम्मीद ये है कि एक बार फिर 96.63 करोड़ हिंदू उन्हें बहुसंख्यक समुदाय के असल रखवाले के रूप में देखेंगे, जोकि हिंदुत्व को लेकर की जानेवाली भाजपा की बयानबाज़ी के कारण पीड़ित होने का भाव रखते हैं.


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कैब के असंवैधानिक होने संबंधी तकनीकी दलीलें भी इस सरकार को एक स्पष्ट वोट-जुटाऊ कदम से नहीं रोक पातीं.

बस इंतजार करें कि कब प्रधानमंत्री या गृहमंत्री कैब का विरोध करने वाली राजनीतिक पार्टियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें हिंदू-विरोधी और मुसलमान-समर्थक करार देते हैं.

प्रस्तावित कानून की समस्याएं

नागरिकता विधेयक की सबसे अहम आलोचना इस बात को लेकर है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 में निर्धारित मानकों पर खरा नहीं उतरता. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के ऐतिहासिक फैसले से शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में स्पष्ट कर चुका है कि संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन करते हुए संसद संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ नहीं कर सकती है.

चूंकि कैब के तहत प्रस्तावित संशोधन संभवत: अनुच्छेद 14 की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकते हैं, जिसमें कि सरकार द्वारा धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव किए जाने की मनाही है, इसलिए एक अच्छे वकील के लिए इन संशोधनों की कानूनी कमियों के बारे में कोर्ट को आश्वस्त करने में ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए. उसे अदालत से सिर्फ ये दरख्वास्त करनी होगी कि कैब का असल मकसद धार्मिक भेदभाव को हमारी कानून व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा बनाना है.

वैसे संविधान से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के हाल के प्रदर्शन पर गौर करने के बाद शीर्ष अदालत की प्रतिक्रिया और समय की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. वो दिन बीत चुके हैं जब हम निश्चय के साथ उम्मीद कर सकते थे कि हमारी शीर्ष संवैधानिक अदालत दोषी करार दिए जा चुके आतंकवादी याकूब मेनन तक की दया याचिका पर विचार के लिए आधी रात को अपने दरवाजे खोल सकती है.

अब अनुच्छेद 370, कश्मीर में इंटरनेट एवं मीडिया पर पाबंदी तता राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद भूमि विवाद जैसे मामलों तक में, जहां संविधान और संवैधानिक मूल्य दांव पर हों, त्वरिच न्यायिक हस्तक्षेप की बात भूल जाएं. यहां तक कि विलंबित हस्तक्षेप की भी गारंटी नहीं दी जा सकती है.

संयोग से, नवीनतम विधेयक में जहां मूल अधिनियम की धारा 6 में संशोधन का प्रस्ताव है, वहीं असम समझौते के अनुरूप तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से आए लोगों के वास्ते नागरिकता के मानदंड निर्धारित करने वाली धारा 6ए को दी गई कानूनी चुनौती अब भी सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के समक्ष लंबित है.


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पीठ के समक्ष विचारणीय विषयों में ये सवाल भी शामिल है कि क्या दूसरे देश के किसी नागरिक को मूल देश की नागरिकता का औपचारिक त्याग किए बिना भारतीय नागरिकता दी जा सकती है. अन्यथा ऐसे मामले दोहरी नागरिकता की श्रेणी में आ सकते हैं जिसकी भारतीय संविधान में अनुमति नहीं है.

वैसे, सुप्रीम कोर्ट यदि हस्तक्षेप करता है और नागरिकता विधेयक में असंवैधानिक संशोधनों को निरस्त करने का फैसला करता है, तो भी मोदी-शाह को ज्यादा चिंता नहीं होगी. भाजपा इस विवादास्पद कवायद के असल मकसद – फूट डालो और राज करो – को पहले ही हासिल कर चुकी है.

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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