अफस्पा पर सुप्रीम कोर्ट के दो अवलोकन आतंकवाद का मुकाबला करने वाले सैनिकों के मनोविज्ञान और परिचालन-संबंधी गतिविधियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं.
पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट ने 300 से अधिक सेना के अधिकारियों और सैनिकों की याचिका को खारिज कर दिया था, जिन्होंने सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम (अफस्पा) को कमज़ोर करने का मुद्दा उठाया था. सैकड़ों सैन्य अधिकारियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जाने के पीछे जुलाई 2016 का निर्णय था, जिसमें अदालत ने सेना और पुलिस के लिए ‘निरपेक्ष उन्मुक्ति की अवधारणा’ से इंकार कर दिया था.
मैं न तो निर्णय की खूबी में जा रहा हूं और न ही यह मानता हूं कि हम मानवाधिकारों के उल्लंघनों को अनदेखा करते हैं. मैं केवल सही परिप्रेक्ष्य में अफस्पा पर सेना की चिंताओं को रखने का प्रयास करूंगा.
पहला मुद्दा ‘सैन्य बल के अत्यधिक उपयोग’ से संबंधित है. अदालत ने पाया कि यदि पीड़ित एक दुश्मन है, भले ही अत्यधिक सैन्य बल का उपयोग किया गया हो, फिर भी जांच का आदेश दिया जा सकता है. इस मापदंड के अनुसार आतंकवादियों के साथ लगभग हर मुठभेड़ एक जांच का विषय बन सकता है.
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हमारे शांतिपूर्ण जीवन में सादगी है, जो कि सैनिकों द्वारा दैनिक आधार पर सामना की जाने वाली संघर्ष स्थितियों के बिलकुल विपरीत है. यदि आतंकवादी बहुत मजबूत घर में छुपे होते हैं, तो घर को गिरवाने के लिए विस्फोटकों के उपयोग को आसानी से सैन्य बल के अत्यधिक उपयोग के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है. इसका विकल्प यह है कि सैनिकों को घर खाली करवाने के लिए भेजा जाये जहां पर ज़्यादा संभावना यह रहती है कि उनको मौत के घाट उतार दिया जा सकता है. ऐसी स्थिति में किसी भी अधिकारी को नहीं रखा जाना चाहिए, जहां उसे अपने सैनिकों को परेशानी में डालने के लिए नैतिकता के खिलाफ व्यक्तिगत कानूनी नुकसान उठाना पड़ता है.
अदालत ने यह भी फैसला दिया कि सेना के किसी भी आरोप की जांच के बाद भी अन्य एजेंसियों की जांच से इनकार नहीं किया गया था. इसके अलावा, ‘किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध की स्थिति में इसके संबंध में कार्यवाही एक फ़ौजदारी अदालत में संस्थापित किया जा सकता है, जिसके तहत उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए.’ ये अवलोकन मौजूदा सैन्य न्याय प्रणाली को पूरी तरह से कमज़ोर करता है.
आज के दौर में सैन्य न्याय प्रणाली के अप्रचलित और दोषपूर्ण होने की आलोचना होती है. हालांकि, तथ्य यह है कि इस प्रणाली ने सेना को एक अच्छी स्थिति में खड़ा कर रखा है. यह एक ऐसी संस्था है जिसे इस पेशे की विशिष्टता को समझे बिना केवल नैतिकता के आधार पर कमजोर नहीं कर सकते हैं.
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सैन्य न्याय प्रणाली दक्षता, आदेश और मनोबल को संरक्षित करने के लिए है और इसने भारतीय सेना में अनुशासन के उच्च मानकों को प्रभावी ढंग से सुनिश्चित किया है. सैन्य न्याय प्रणाली में सैनिकों का विश्वास मजबूत बना हुआ है क्योंकि विश्वास है कि न्याय देने वाले लोगों को सेना के जीवन के बारे में स्पष्ट समझ है. सैन्य अदालतों की जांच के प्रावधानों और सैन्यकर्मियों को फ़ौजदारी अदालतों में खींचने से तो यह उनके विश्वास को ख़त्म करेगा. गंभीर रूप से प्रभावित करेगा कि सेना कैसे काम करती है. ऐसा लगता है कि आतंकवाद का मुकाबला करने वाले ऑपरेशन को सावधानी से चिह्नित किया जाना चाहिए.
सेना का डर वास्तविक है. लेकिन यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे दीवानी अदालतों में नहीं जीता जा सकता है. हमें पता होना चाहिए कि मानवीय अधिकारों के उल्लंघनों के आरोपों में हमेशा कानून की एक संकीर्ण व्याख्या होती है. सरकार की यह जिम्मेदारी है कि कानूनी तौर पर सैनिकों का उत्पीड़न होने से बचा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल को हिदायत दी, ‘किसने आपको नयी क्रियाविधि के साथ आने से रोक रखा है? हमारे हस्तक्षेप की आवश्यकता क्यों है? ये वे मुद्दे हैं जिन पर आपको चर्चा करनी है, अदालतों में नहीं.’
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अफस्पा की समीक्षा करने के लिए शायद यह एक अच्छा समय है. सिविल सोसाइटी समूहों द्वारा इस अधिनियम की लंबे समय से आलोचना की गई है. लेकिन सेना ने इस अधिनियम में संशोधन का दृढ़ता से विरोध किया था. इस आधार पर कि संवेदनशील क्षेत्रों में परिचालन करने वाले सैनिकों को आवश्यक सुरक्षा प्रदान करता है. लेकिन यह ज़्यादा समय तक सच नहीं हो सकता है.
इसलिए, एक नए कानून की जरूरत है जो कि सैनिकों की समस्या को समझे और साथ ही बिना किसी भी उल्लंघन के मानवीय अधिकारों के प्रति सम्मान को मजबूत करे. इस प्रक्रिया को अब सर्वोच्च न्यायालय से संसद भवन स्थानांतरित हो जाना चाहिए.
(लेखक लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा (रिटायर्ड ) उत्तरी कमान के कमांडर-इन -चीफ थे.)
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