नरेंद्र मोदी सरकार ने एक अनूठी पहल करते हुए आयुर्वेद की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति और एलोपैथिक उपचार की आधुनिक तकनीक को साथ जोड़ने की राह खोली है. इलाज की दोनों पद्धतियां लक्षणों और पैथोलॉजी टेस्ट के आधार पर पहचाने जाने वाले रोगों के उपचार के लिए औषधि, दवाओं और सर्जरी आदि पर निर्भर हैं. इस पर एक बहस जारी है कि आयुर्वेद में बीमारी की जड़ तक पहुंचने के बजाये आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की ही तरह लक्षणों के आधार पर इलाज करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. नई बहस ने एक सरकारी अधिसूचना आने के साथ जोर पकड़ा जिसमें आयुर्वेद के स्नातकोत्तर छात्रों को विशेष प्रशिक्षण की मंजूरी दी गई है ताकि वे आर्थोपेडिक, नेत्र विज्ञान, ईएनटी और दंत चिकित्सा से जुड़ी सामान्य सर्जरी कर सकें.
इसे लेकर खासकर भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए), इंडियन डेंटल एसोसिएशन और नेशनल मेडिकोस ऑर्गनाइजेशन (एनएमओ) से जुड़े डॉक्टरों और मेडिकल प्रैक्टिशनर की तरफ से कड़ा विरोध जताया गया. प्रदर्शनकारियों ने यह कहते हुए सरकार के फैसले पर गंभीर आपत्ति जताई कि ‘हर पद्धति में इलाज का अपना अलग ही तरीका और खासियत है और चिकित्सा विज्ञान के एकदम भिन्न तरीकों को साथ जोड़ना मानव जीवन और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली के लिए घातक हो सकता है.’
उन्होंने नई व्यवस्था को ‘सीमाओं और दक्षता के लिहाज से आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अतिक्रमण’ भी करार दिया है. लेकिन इस तरह की आपत्तियां स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर चिंता के बजाए वाणिज्यिक हितों को लेकर टकराव का नतीजा ज्यादा नज़र आती हैं.
मोदी सरकार के फैसले का विरोध करने वाले इस मुद्दे को विस्तार से समझें और अपने दावे को साबित करके दिखाएं कि विभिन्न पद्धतियों का साझा इस्तेमाल वास्तव में ‘मानव जीवन और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली के लिए खतरा’ होगा. यह सारा विरोध और आपत्तियां दुष्प्रचार के कारण हैं और निराधार आशंकाओं पर आधारित हैं. भारत की पारंपरिक औषधीय प्रणाली आयुर्वेद और उसमें समाहित ज्ञान को जुगाड़ और चलताऊ इलाज बताकर खारिज करना हेल्थकेयर सिस्टम की किसी प्राचीन स्वदेशी प्रणाली के खिलाफ एक सबसे घातक दुष्प्रचार अभियान है.
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मौजूदा व्यवस्था में सुधार की जरूरत
हालांकि, यह भी उतना ही ज्यादा महत्वपूर्ण है कि किसी भी सरकार या नियामक प्राधिकरण को स्वास्थ्य सुरक्षा सेवाओं को नीमहकीम और अप्रशिक्षित कर्मचारियों से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए. इस पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मोदी सरकार इस योजना का पूरा विवरण सामने रखेगी और संबंधित लोगों को नए प्रस्ताव में शामिल सुरक्षा उपायों के बारे में भी जानकारी देगी. आधुनिक अस्पताल और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणालियां कुछ वैश्विक मानकों के अनुरूप है. हालांकि, आयुर्वेदिक पद्धति और तौर-तरीके अच्छे और कारगर हैं लेकिन विभिन्न पद्धतियों के एकीकरण के प्रयास से इसके मानकीकरण की जरूरत होगी.
सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन (सीसीआईएम) की तरफ से जारी सरकारी अधिसूचना के अनुसार, सर्जरी संबंधी ट्रेनिंग मॉड्यूल को आयुर्वेदिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाएगा. यह फैसला सीसीआईएम की तरफ से आयुर्वेद के स्नातकोत्तर छात्रों को सामान्य सर्जरी का अभ्यास करने की अनुमति देने को विनियमित करने के उद्देश्य से भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद (पीजी आयुर्वेद शिक्षा) विनियम, 2016 में संशोधन किए जाने के बाद आया है. यह कोर्स करने वालों को सर्जरी की दो पद्धतियों में प्रशिक्षित किया जाएगा और उन्हें एमएस (आयुर्वेद) शल्य तंत्र जनरल सर्जरी और एमएस (आयुर्वेद) शलाक्य तंत्र (आंख, कान, नाक, गला, सिर और दंत चिकित्सा के रोग) के प्रमाणपत्र प्रदान किए जाएंगे.
प्रशिक्षण की वर्तमान प्रणाली और पाठ्यक्रम आयुर्वेद के किसी अभ्यर्थी को एक जनरल फिजीशियन (जीपी) के रूप में अभ्यास का कौशल हासिल करने का पर्याप्त अवसर देते हैं. नेशनल मेडिकल कमीशन बिल, 2017 में एक ब्रिज कोर्स शुरू करने का सुझाव दिया गया था, जिसमें छात्रों को ज्यादा सक्षम बनाने के लिए पाठ्यक्रम विस्तृत करने और अधिक से अधिक कौशल प्रशिक्षण का प्रावधान किया गया था. फिर भी इसमें कोई दो राय नहीं कि मौजूदा पाठ्यक्रम, शिक्षण प्रणाली और इंटर्नशिप में कुछ सुधार किए जाने की पर्याप्त संभावनाएं हैं.
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व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत
आयुर्वेद के अलावा भारतीय पारंपरिक औषधीय पद्धतियों में सिद्ध (अधिकांशत: दक्षिण में इस्तेमाल), यूनानी, रसशास्त्र, सोवा-रिग्पा (पारंपरिक तिब्बती हर्बल आधारित औषधीय प्रणाली), नेचुरोपैथी, होम्योपैथी और योग शामिल हैं. किसी को भी 2017 के ब्रिज कोर्स या फिर सीसीआईएम के हालिया सुझाव को लेकर यह गलतफहमी पालने की जरूरत नहीं है कि इन सभी तरीकों को एलोपैथी के साथ जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है और अस्पतालों के ऑपरेशन थिएटरों में एक साथ इन सारी पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाने लगेगा.
सभी पद्धतियों को समान मान्यता देने और उनके साथ एलोपैथिक बायोमेडिसिन के समतुल्य व्यवहार करने की मांग काफी पहले उठी थी. 1970 में सरकार इस तरह की मान्यता देने के लिए भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद अधिनियम भी लाई थी. आयुष विभाग के गठन ने आधुनिक बायोमेडिसिन को अपनाने के मानदंड लागू करके बहुप्रतीक्षित रिसर्च और प्रैक्टिस मैथेडोलॉजी के मानकीकरण को बढ़ावा देने की राह खोली है.
कोविड-19 महामारी ने साबित कर दिया है कि कोई बीमारी होने पर उसका इलाज करने के बजाये सुरक्षात्मक स्वास्थ्य देखभाल उपाय और प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत करने वाले घटक और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली ज्यादा बेहतर है. व्यावसायिक तौर पर व्यावहारिक होने और वेलनेस इंडस्ट्री के बाजार में बढ़ती हिस्सेदारी के कारण पारंपरिक औषधीय प्रणालियों और उत्पादों में वैश्विक रुचि काफी ज्यादा है. ऐसे में पेशेवर प्रतिद्वंदिता और एक-दूसरे से तुलना या हितों के टकराव से ऊपर उठकर हेल्थकेयर उत्पादों और पद्धतियों की व्यापक तस्वीर पर नज़र डालना ज्यादा उपयोगी साबित होगा.
(लेखक ‘ऑर्गेनाइज़र ‘के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी है)
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