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Thursday, 10 April, 2025
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ईरान के साथ परमाणु समझौते को लेकर बातचीत फिर शुरू. इज़राइल के परमाणु हथियारों पर भी चर्चा होनी चाहिए

ट्रंप और ईरानी वार्ताकारों को ऐसी गारंटी ढूंढनी होगी जो न केवल ईरान की चिंताओं को दूर करे बल्कि इजरायल और सऊदी अरब जैसे उसके विरोधियों की भी चिंताओं को दूर करे.

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पृथ्वी से एक लाख किलोमीटर से भी ज्यादा दूर, अंधेरे अंतरिक्ष में घूम रहे निगरानी सैटेलाइट वेला 6911 ने नीचे दो छोटी-छोटी चमकती रोशनी देखी. इस घटना को रिकॉर्ड में “इवेंट 747” नाम दिया गया. यह घटना प्रिंस एडवर्ड द्वीप समूह पर हुई थी, जो केप टाउन से 2,200 किलोमीटर दूर है. कुछ ही देर में ऐसेंशन आइलैंड पर मौजूद एक खास मशीन, जो पानी के नीचे की हलचल रिकॉर्ड करती है (हाइड्रोकॉस्टिक सिस्टम), ने भी इस घटना की पुष्टि कर दी. बाद में और सबूत तब मिले जब ऑस्ट्रेलिया में कुछ भेड़ों की थायरॉयड ग्रंथियों में रेडिएशन (विकिरण) के निशान पाए गए. ये भेड़ें उस इलाके में चर रही थीं, जहां से रेडियोधर्मी धुआं हिंद महासागर के ऊपर से बहकर गया था.

ज्यादातर वैज्ञानिकों के लिए, यह तब भी स्पष्ट था कि एक राष्ट्र, या अधिक, ने 22 सितंबर 1979 को परमाणु हथियार का परीक्षण किया था. हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका के नेताओं ने फैसला किया कि अधिक जानकारी न जानना बुद्धिमानी होगी. उन्हें डर था कि इजरायल के परीक्षण का खुलासा मध्य पूर्व में शांति प्रक्रिया को ख़तरे में डाल सकता है. राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने विशेषज्ञों के एक पैनल से उन्हें अन्य कारणों की एक लिस्ट देने के लिए कहा, जिनसे उन दो चमकती रोशनियों को समझाया जा सके.

हालांकि वैज्ञानिकों ने राष्ट्रपति को जल्द ही एक पक्की दलील दे दी थी, फिर भी उन्होंने खुद से सच्चाई छुपाना नहीं चुना. कार्टर ने अपनी निजी डायरी में लिखा, “हमारे वैज्ञानिकों में यह विश्वास बढ़ रहा है कि इज़रायल ने दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी छोर के पास समुद्र में वाकई में परमाणु परीक्षण विस्फोट किया है.”

बस, यहीं पर बात खत्म हो गई.

लेकिन अब हालात वैसे नहीं हैं. इस हफ्ते की शुरुआत में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने ऐलान किया कि अमेरिकी वार्ताकार ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर ओमान में सीधे बातचीत शुरू करेंगे. ईरान ने भी बातचीत की पुष्टि की है, लेकिन यह बातचीत परोक्ष होगी, जिसमें ओमान के विदेश मंत्री बद्र अलबुसैदी दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच मध्यस्थता करेंगे.

समझौते तक पहुंचना मुश्किल होगा क्योंकि वार्ता कक्ष में एक ऐसा मुद्दा होगा जिस पर कोई खुलकर बात नहीं करता: इज़रायल के पास पहले से ही परमाणु हथियार हैं, जिन्हें वह सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करता, और ईरान इन्हें अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है. पश्चिम एशिया में परमाणु स्थिरता लाने के लिए, इस असली मुद्दे को स्वीकार करना और उससे सीधे तौर पर निपटना ज़रूरी है.

जबकि वार्ताकार मस्कट की यात्रा की तैयारी कर रहे हैं, ऐसी खबरें हैं कि ट्रंप ने बड़ी संख्या में बी-2 बॉम्बर्स को डिएगो गार्सिया स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डे पर भेजा है. माना जाता है कि ये बी-2 बॉम्बर्स ऐसे हथियार ले जा सकते हैं जो ईरान की भूमिगत परमाणु सुविधाओं को नष्ट कर सकते हैं.

हालांकि, पिछले महीने, पश्चिम एशिया के लिए अमेरिका के विशेष दूत स्टीव विटकॉफ़ ने खुलासा किया कि ट्रंप ने ईरान सरकार को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था: “हमें बात करनी चाहिए. हमें गलतफहमियों को दूर करना चाहिए. हमें एक सत्यापन कार्यक्रम बनाना चाहिए ताकि किसी को आपकी परमाणु सामग्री के हथियारों में बदलने को लेकर चिंता न हो.”

यही तो 2015 में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने करने की कोशिश की थी—एक ऐसे समझौते के ज़रिए जिसमें ईरान, जर्मनी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य शामिल थे: अमेरिका, रूस, चीन, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस. लेकिन बाद में ट्रंप इस समझौते से पीछे हट गए, यह कहते हुए कि ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल परियोजनाएं इज़रायल के लिए लगातार खतरा बनी हुई हैं.

फ्रांसीसी गारंटी

2024 में एक तीन-पार्ट वाली इज़रायली टेलीविज़न डॉक्यूमेंट्री के प्रसारण के बाद से, देश के कुख्यात रूप से गुप्त परमाणु कार्यक्रम पर पहली बार सार्वजनिक रूप से चर्चा हुई है. यह डॉक्यूमेंट्री, “दि एटम एंड मी“, बेंजामिन ब्लमबर्ग के इंटरव्यू पर केंद्रित है, जो इज़रायल की वैज्ञानिक खुफिया एजेंसी लाकाम के प्रमुख थे और जो इस परमाणु मिशन के ज़िम्मेदार माने जाते हैं. लाकाम इतनी गुप्त एजेंसी थी कि इसके काम के बारे में अक्सर इज़रायली बाहरी खुफिया एजेंसी मोसाद को भी जानकारी नहीं दी जाती थी. ये इंटरव्यू 2018 में रिकॉर्ड किए गए थे, इस शर्त पर कि उन्हें ब्लमबर्ग की मृत्यु के बाद ही प्रसारित किया जाएगा.

हालांकि, इस कहानी के बड़े हिस्से लंबे समय से इज़रायल के बाहर जानने वालों के लिए नई बात नहीं हैं, खासकर जब से इतिहासकार अवनर कोहेन की बेहतरीन किताब इज़रायल के परमाणु कार्यक्रम पर प्रकाशित हुई थी।

इज़रायल ने 1955 में अमेरिका की ‘शांति के लिए परमाणु’ नाम के नागरिक परमाणु तकनीकी पहल में भाग लिया था, जिसके चलते 1960 में नाहल सोरेक में एक रिएक्टर स्थापित हुआ. लेकिन जल्द ही इज़रायली नेताओं को एहसास हुआ कि यह ढांचा परमाणु हथियार विकसित करने में मददगार नहीं है. तब उन्होंने फ्रांस की ओर रुख किया. इज़रायल की तरह, फ्रांस को भी लगता था कि उसे इस खतरनाक दुनिया में जीवित रहने के लिए अपने खुद के परमाणु हथियारों की जरूरत है. फ्रांस की सहायता, जिसमें इज़रायली वैज्ञानिकों को परमाणु शोध संस्थानों तक पहुंच देना भी शामिल था, ने 1950 के दशक के मध्य में इज़रायल के परमाणु हथियार कार्यक्रम की नींव रखी.

तत्कालीन फ्रांसीसी प्रधानमंत्री गाइ मोलेट, जो 1956 के सुएज़ संकट में इज़रायल को खींचने के दोषी थे जिससे अमेरिका और सोवियत संघ से उसके संबंध बिगड़ गए थे, ने भावुक होकर कहा था: “मैं उन्हें बम का कर्ज़दार हूं, मैं उन्हें ये देना अपना फ़र्ज़ मानता हूं.”

बम बनाना

इज़राइल के परमाणु हथियार कार्यक्रम के प्रति फ्रांस की प्रतिबद्धता 1958 में डिमोना परमाणु रिएक्टर पर काम शुरू होते ही स्पष्ट हो गई थी. योजनाओं में एक प्लूटोनियम-आधारित परमाणु हथियार के लिए आवश्यक सभी तकनीकी घटक शामिल थे, जिनमें खर्च किए गए यूरेनियम से प्लूटोनियम निकालने के लिए भूमिगत सुविधाएं भी थीं. कम से कम 1960 से, निष्कासित दस्तावेज़ों से पता चलता है कि अमेरिका को पता था कि डिमोना रिएक्टर ऊर्जा उत्पादन के लिए नहीं बल्कि हथियार-ग्रेड प्लूटोनियम के निर्माण के लिए डिज़ाइन किया गया था.

बड़ी मात्रा में ऐसा उपकरण जिसे इज़राइल वैध रूप से प्राप्त नहीं कर सकता था, उसने बस चुरा लिया, जैसा कि विक्टर गिलिंस्की और लियोनार्ड वेइस ने दर्ज किया है—बिल्कुल वैसी ही तरह जैसे अन्य राज्य, जैसे पाकिस्तान और उत्तर कोरिया, ऐसे ही हालात में करते हैं.

1968 में, पेंसिल्वेनिया की एक सुविधा से यूरेनियम-235 की हथियार-निर्माण मात्रा चोरी हो गई। ऐसा लगता है कि इस ऑपरेशन में उन्हीं कुछ मोसाद ऑपरेटिव्स ने भाग लिया था जिन्होंने अर्जेंटीना से नाज़ी नेता एडोल्फ इचमन का अपहरण किया था. जासूस, हथियार डीलर और फिल्म निर्माता अर्नोल्ड मिल्चन इसी तरह उस चोरी में शामिल थे जिसमें विस्फोट को ट्रिगर करने के लिए आवश्यक हाई-स्पीड स्विच चोरी किए गए थे.

यह कहानी जल्द ही रंगभेदी युग के दक्षिण अफ्रीका के साथ एक अत्यंत परेशान करने वाले रिश्ते को भी शामिल करने लगी, जिसमें इज़राइल ने यूरेनियम प्राप्त करने के लिए पूर्व ब्रिगेडियर और भाड़े के सैनिक जोनाथन ब्लाउ की सेवाएं लीं. इसके बदले में, इज़राइल ने दक्षिण अफ्रीका को पारंपरिक सैन्य ज्ञान के साथ-साथ उसके स्वयं के परमाणु हथियार कार्यक्रम में सहायता की.

2010 में उजागर किए गए निष्कासित दस्तावेज़ों से यह स्पष्ट है कि इज़राइल ऐसी तकनीक बेचने के लिए तैयार था जिसका उपयोग दक्षिण अफ्रीका ने अपने काले अफ्रीकी पड़ोसियों को डराने के लिए किया. 11 नवंबर 1974 को लिखे एक पत्र में, उस समय के इज़राइली विदेश मंत्री शिमोन पेरेस ने लिखा कि इज़राइल और दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार “अन्याय के प्रति एक साझा घृणा” रखती हैं.

सौदेबाजी की कला

अमेरिका के लिए यह कम से कम 1969 से स्पष्ट था कि इज़राइल एक परमाणु शक्ति बन चुका था, भले ही उसने इसे सार्वजनिक न किया हो. एक ज्ञापन में, उस समय के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने स्पष्ट किया था कि तेल अवीव के पास फ्रांस निर्मित कम से कम एक दर्जन सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाइलें थीं, जो परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम थीं, और 24 से 30 वारहेड्स का भंडार था. यह इज़राइल की पूर्व की आश्वासनों के बिल्कुल विपरीत था. पिछले वर्ष, किसिंजर ने नोट किया था कि उस समय के राजदूत और बाद में प्रधानमंत्री बने यित्ज़ाक राबिन ने वादा किया था कि इज़राइल “मध्य पूर्व में परमाणु हथियार पेश करने वाला पहला देश नहीं बनेगा.”

26 सितंबर 1969 को व्हाइट हाउस में लंबे विचार-विमर्श के बाद, राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर एक ऐतिहासिक गुप्त समझौते पर पहुंचे. अमेरिका ऐसा व्यवहार करेगा जैसे इज़राइल के पास कोई परमाणु बम नहीं है, जिससे वह सैन्य सहायता जारी रख सके, बशर्ते इज़राइल उन्हें गुप्त रखे.

हालांकि, इज़राइली नेता जानते थे कि वास्तविक प्रतिरोधक शक्ति तब ही स्थापित की जा सकती है जब उनके विरोधियों को यह यकीन हो जाए कि उनके परमाणु बम वास्तव में काम करते हैं—इसीलिए प्रिंस एडवर्ड द्वीप पर परीक्षण किए गए और पश्चिम में जानबूझकर उसे छुपाया गया.

मस्कट वार्ताओं को आगे बढ़ाने के लिए यह समझना आवश्यक है कि इज़राइल को संचालित करने वाली अस्तित्व संबंधी चिंताएं वही हैं जो ईरान और अन्य परमाणु हथियार कार्यक्रमों वाले देशों के व्यवहार के पीछे हैं. ईरान को डर है कि अगर उसके मिसाइल और परमाणु क्षमताएं छीन ली गईं, तो उसके अमीर अरब पड़ोसी या अमेरिका उसे पूरी तरह से खत्म कर सकते हैं. ट्रंप और ईरानी वार्ताकारों को ऐसी गारंटियां खोजनी होंगी जो ईरान की चिंताओं के साथ-साथ इज़राइल और सऊदी अरब जैसे उसके विरोधियों की चिंताओं को भी संबोधित करें.

क्या ऐसा कोई मध्य मार्ग है? परमाणु सिद्धांतकार केनेथ वाल्ट्ज़ ने 1981 में सुझाव दिया था कि जब बात परमाणु हथियारों की हो, तो “अधिक बेहतर हो सकते हैं.” उन्होंने तर्क दिया कि इनकी प्रकृति ऐसी है कि “परमाणु हथियारों का नियंत्रित विस्तार स्वागतयोग्य है, भयावह नहीं.” उन्होंने यह भी कहा कि “एक पारंपरिक दुनिया में, प्रतिरोधक धमकियां अप्रभावी होती हैं क्योंकि जो क्षति धमकी दी जा रही है वह दूर, सीमित और संदिग्ध होती है. परमाणु हथियार सैन्य गलत गणनाओं को कठिन और राजनीतिक रूप से सटीक पूर्वानुमान को आसान बनाते हैं.”

सरल शब्दों में: “एक पारंपरिक दुनिया में, जीतने या हारने को लेकर अनिश्चितता होती है. एक परमाणु दुनिया में, केवल जीवित बचने या पूर्ण विनाश को लेकर अनिश्चितता होती है.” तर्क यह देता है कि ईरानी शासन का विनाश की इच्छा इज़राइल, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान या भारत से अधिक नहीं है.

अंतिम उत्तर शायद इस बात में निहित हो कि ईरान परमाणु हथियार प्राप्त कर ले—चाहे वह किसी रणनीति के तहत हो या वार्ता की विफलता के कारण. ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान पर अमेरिका के हमले, अगर होते भी हैं, तो अधिक से अधिक कुछ समय के लिए ही ईरान की परमाणु हथियार प्राप्त करने की प्रक्रिया को रोक पाएंगे. मध्य पूर्व के लिए इसके परिणाम भयावह प्रतीत हो सकते हैं—लेकिन यह कई भयानक विकल्पों में सबसे कम अस्थिर करने वाला साबित हो सकता है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटर एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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