अधिकतर टिप्पणीवीरों ने डॉक्टर मनमोहन सिंह के लिए राजनीतिक मृत्युलेख पांच साल पहले ही लिख डाला था. उनमें मैं भी हूँ. लेकिन तब क्या किसी ने कल्पना की थी कि आज जब 2018 विदा होने को है और हम एक और चुनावी वर्ष में कदम रख रहे हैं, तब हम उनकी वापसी के बारे में लेख लिख रहे होंगे?
वे अब ‘मौन मोहन’ नहीं हैं. अब वे बोल रहे हैं, बेशक थोड़ा ही बोल रहे हैं, बहुत नाप-तौल कर, प्रायः दो-तीन वाक्य ही बोल रहे है. लेकिन जब वे बोलते हैं, पूरा भारत सुनता है. यहां तक कि उनका रस्मी हमेशा की तरह नीरस औपचारिक भाषण भी वायरल हो जाता है. सोशल मीडिया पर जो चल रहा है, जरा उसे देख लीजिए. वे जो कुछ बोलते हैं वह फैल जाता है.
वे अचानक काँग्रेस के कोई चुनाव प्रचारक नहीं बन गए हैं. लेकिन संसद और उसके बाहर वे जो कुछ कह रहे हैं, उनकी बातें सबसे वजनी मानी जा रही हैं. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे पर उन्होंने जो संक्षिप्त, साफ और ठोस बयान दिया, उसके असर पर जरा गौर कीजिए. या, उनकी किताबों के विमोचन के मौके पर उन्होंने जो टिप्पणी की कि उन्हें भले ही रहस्यमय कहा गया हो मगर वे चुप्पा प्रधानमंत्री नहीं थे और प्रेस के सवालों के जवाब देने से वे कभी घबराए नहीं थे.
‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ साधता यह बयान राजनीतिक हाजिरजवाबी की जोरदार मिसाल थी. अपनी कमजोरी पर खुद ही आक्षेप करते हुए उन्होंने नरेंद्र मोदी पर तंज़ कसा.
जो शख्स ठेठ राजनीतिक नेता न रहा हो वह 86 की उम्र में इस तरह से सार्वजनिक जीवन में वापसी करे तो कतई बुरा नहीं है. उनकी अपनी पार्टी के कई युवा नेता, जो उनकी दूसरी पारी के दौरान उनसे असहमत थे और ‘उनसे ज्यादा राजनीतिक’ प्रधानमंत्री (मसलन प्रणब मुखर्जी) को गद्दी पर लाना चाहते थे, या उनके फैसलों को 10 जनपथ के जरिए रद्द करवाया करते थे अथवा अपने फैसले उन पर लादा करते थे, वे सब बियावान में पड़े रहे, किताबें लिखते रहे. ऐसे नेता अपनी किताबों का विमोचन करवाने के लिए अब उनसे समय मांगने लगे, क्योंकि वे खाली बैठे थे, और उनका कद तो ऐसा है ही कि किताब हाथ में थामे समूह की रस्मी फोटो खिंचवाते समय वे मंच की शोभा बढ़ा सकें. लेकिन ऐसे आयोजनों में मनमोहन की शिरकत इन दिनों सुर्खियां बनने लगी हैं, जिसके चलते विमोचित किताब का अच्छा प्रचार तो हो ही जाता है, उनकी ‘पार्टी-पॉलिटिक्स’ को भी बढ़ावा मिल जाता है.
मनमोहन अभी भी जनता के नेता नहीं हैं. वे बहुत कम बोलते हैं और बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं. जब से वे सार्वजनिक जीवन में आए हैं, तब से यही उनकी शैली रही है. जब हर्षद मेहता घोटाले ने शेयर बाज़ार को हिला दिया था और उनकी सरकार पर संकट के बादल छा गए थे, तब उन्होंने संसद में सिर्फ इतना कहा था, ‘शेयर बाज़ार के लिए मैं अपनी नींद नहीं खराब करूंगा.’ लेकिन अमेरिका के साथ परमाणु संधि को लेकर संसद में मतदान के समय अपनी सरकार का बचाव करते हुए उन्होंने गुरु गोविंद सिंह की सबसे भावुक पंक्ति को उद्धृत किया था, ‘देह शिव वर मोहे….निश्चय कर अपनी जीत करूं.’ इसके बाद उन्होने लालकृष्ण आडवाणी की चुटकी ली थी कि वे अभी भी अपने ज्योतिष की इस भविष्यवाणी पर भरोसा किए बैठे हैं कि एक दिन वे प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे.
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2009 में उनका दूसरा कार्यकाल उनकी पार्टी को मिली ज्यादा सीटों के साथ शुरू हुआ. यह उनकी सरकार के प्रति असंतोष का ‘पुरस्कार’ था. जनता ने उन्हें ज्यादा बड़े बहुमत से दोबारा सत्ता में भेजा, इसलिए नहीं कि वे एक कमजोर और दब्बू नेता थे. उनकी यह दार्शनिक मान्यता थी कि भारत को रणनीति में निर्णायक परिवर्तन करने की जरूरत है और इस मान्यता के लिए उन्होंने अपनी सरकार को दांव पर लगाया था, वामदलों द्वारा समर्थन वापसी का सामना किया. अमेरिका के साथ परमाणु संधि का असली मकसद अमेरिका को अपना सहयोगी बनाना था. उन्हें अपनी मजबूती जताने के लिए पुरस्कृत किया गया. बाद में मोदी ने उनकी नीति को उलटने की जगह उसे ही आगे बढ़ाया.
इसके बाद क्या-क्या हुआ, वह सब मैं इस स्तम्भ में विस्तार से लिख चुका हूं. उनमें 2015 का वह लेख भी शामिल है, जिसमें मैंने लिखा था कि जब उनकी पार्टी के आला नेता लोग उन्हें और उनके पद को नीचा दिखा रहे थे तब इस्तीफा न देकर उन्होंने अपने तमाम प्रशंसकों को (जिनमें यह स्तंभकार भी शामिल है) निराश किया है. वह लेख कोयला घोटाले में सीबीआई द्वारा उनसे पूछताछ किए जाने की पीड़ा के कारण लिखा गया था. मोदी ने भी संसद में उन पर तंज़ कसा था कि वे खुद को साफ़सुथरा बता रहे हैं जबकि उनकी नाक के नीचे भ्रष्टाचार हो रहा था, कि वे ‘रेनकोट पहनकर शावर के नीचे खड़े हैं’. लेकिन उनपर हमला करना आसान था.
तो अब क्या बदल गया है?
2016 के जाड़े में की गई नोटबंदी ने शायद बदलाव लाया है. इस पर उन्होंने अपने स्वभाव के विपरीत आक्रामक मगर यादगार वाक्य में टिप्पणी की, ‘यह एक संगठित और व्यवस्थित लूट है. और लगता है, पहली बार उनकी पार्टी को भी एहसास हुआ कि अभी भी वे वजन रखते हैं. नोटबंदी तो उनके लिए बैठ-बिठाया शिकार था, क्योंकि अर्थनीति तो उनका अपना ही क्षेत्र है. नोटबंदी के बाद जब अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी, प्रमुख पदों पर बैठे पेशेवर अर्थशास्त्री मैदान छोड़ने लगे, आंकड़ों को ‘दुरुस्त’ करने का खेल शुरू हो गया और संकट आसन्न दिखने लगा, तब उनके शब्द भविष्यवाणी जैसे लगने लगे.
राजनीति का बाजार हो या और कोई बाज़ार, माल-माल में फर्क करना बहुत महत्व रखता है. उन्हें आज गंभीरता से लिया जा रहा है तो इसकी एक वजह यह है कि आज के कड़वाहट भरे राजनीतिक माहौल में गरिमा और सौम्यता को तवज्जो दिया जाने लगा है. जब नरेंद्र मोदी सोनिया गांधी के लिए ‘विधवा’ शब्द का प्रयोग करते हैं और राहुल गांधी ‘चौकीदार को चोर’ बताते हैं, तब मनमोहन दूसरों की आलोचना करते हुए भी उच्च स्तरीय लगते हैं. और ऐसे वे ही अकेले नहीं हैं. मध्य प्रदेश में किसान संकट के बावजूद शिवराज चौहान ने चौथी बार भी सत्ता में आने का चमत्कार लगभग कर डाला तो यह यही बताता है कि लोग आडंबरहीन विनम्रता को कितना महत्व देते हैं.
अपने ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में मैंने पीवी नरसिंहराव से पूछा था, ‘आपमें न तो ज्यादा करिश्माई आकर्षण है, न ज्यादा राजनीतिक वजन है और न कुशल भाषणकर्ता हैं आप, फिर आप क्या लेकर आए?’ उस बुजुर्ग राजनेता का जवाब था, ‘मैं सुकून लेकर आया.’ मनमोहन सिंह के राजनीतिक सरपरस्त के रूप में उन्हें खुद वैसा ही योगदान कम-से-कम पार्टी के लिए देने में खुशी होती. राव ने अगर संकटग्रस्त देश को सुकून पहुंचाया, तो मनमोहन नया जीवन हासिल कर रही अपनी पार्टी को वह राहत और विश्वसनीयता प्रदान करते आ रहे हैं जिसकी उसे जरूरत है. लेकिन इन दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों की सेवानिवृत्ति के बाद वाले जीवन में बहुत बड़ा फर्क है. राव जब कुर्सी से उतर गए उसके बाद काँग्रेस को उनकी कोई उपयोगिता नहीं नज़र आई. उन्हें खारिज कर दिया गया. भ्रष्टाचार के मामले वे अपने बूते ही लड़ते रहे और एकाकी होकर दुनिया से विदा हुए, बेशक सभी मामलों से बरी होकर वे अपनी इज्जत बचा ले गए.
पार्टी ने मनमोहन के साथ भी यही किया होता. उनके ‘गरीब विरोधी’ आर्थिक सुधारों, घोटालों पर लगाम लगाने में उनकी अक्षमता आदि ने उन्हें 2014 में पार्टी को 44 के आंकड़े पर पहुंचाने का जिम्मेदार ठहराए जाने के लिए आदर्श व्यक्ति बना दिया होता. एके एंटनी की दूसरी रिपोर्ट भी कुछ वैसी ही होती जैसी पहली थी, जिसमें राव और उनके ‘सूट-बूट’ वाले अर्थशास्त्र को 1996 में हुई हार के लिए जिम्मेदार ठहराया था.
मनमोहन के मामले तीन बातों से फर्क पड़ा- पहली, उनके प्रति गांधी परिवार का स्नेह, दूसरी, नोटबंदी पर उनके शुरू के बयान का व्यापक असर, और तीसरी, उनके दौर के टूजी, कोयला घोटालों समेत सभी भारी-भरकम घोटालों का अदालतों में खुलासा.
यह हमें अंतिम मुद्दे और एक सवाल पर लाकर छोड़ता है, राहुल की काँग्रेस मनमोहन के बोलों का केवल फायदा उठाएगी, या उनकी बातों पर ध्यान भी देगी? बिलकुल सादा जीवन जीने वाले मनमोहन भारत के आधुनिक इतिहास में उसके लिए सबसे बड़ी समृद्धि जुटाने वाले शख्स हैं, और वैध काम करने वाले, टैक्स अदा करने वाले अमीरों के प्रति उदार रहे हैं. 1991 के बाद के आंकड़े देख जाइए, वे खुद अमीर नहीं थे लेकिन इस बेहद आडंबरपूर्ण समाजवादी राजनीति वाली व्यवस्था में धनवृद्धि के प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे. अकेले वे ही ऐसे प्रधानमंत्री थे जिसने देश की अर्थव्यवस्था के ‘अदम्य मनोबल’ को जगाने का आह्वान किया था. वे यह मानते थे कि आर्थिक वृद्धि से असमानता बढ़ती है. तब सरकार को दखल देकर पुनर्वितरण करना चाहिए और गरीबों की मदद करनी चाहिए क्योंकि उन्हें बाज़ार की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता.
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वे भारी चिंता में डूबकर देख रहे होंगे कि राहुल के नेतृत्व में उनकी पार्टी किस तरह सुदूर अतीत का उस तरह का नारा लगा रही है जिसमें ‘अंबानी-अडानी’ वैसे ही बुरे हैं जैसे सत्तर के दशक में ‘टाटा-बिड़ला’ थे, जब चुनावी अभियान पर निकले हेलोकोप्टरों से कर्जमाफ़ी के फैसले बरसते हैं और पवित्र माने जाने वाले पीएसयू का जलवा फिर बढ़ रहा है. राहुल जब रफाल जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों के उत्पादन के लिए एचएएल को सबसे सक्षम कंपनी बता रहे हैं तब मनमोहन जरूर परेशान हो रहे होंगे.
इसलिए सवाल यह है कि आज जब उनके लिए खोने को कुछ भी नहीं है, मनमोहन क्या राहुल को आधुनिक, सुधारवादी अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ाएंगे? या वे 2010-14 वाले दौर की तरह ‘मैं भला क्या कर सकता हूं’ वाली मुद्रा में असहायता जता कर रह जाएंगे? हमें यह भी देखना होगा कि राहुल उनकी सुनते भी हैं या नहीं.
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