संसद में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम संशोधन विधेयक विरोध के बिना पारित नहीं हो पाया, भले ही गृहमंत्री अमित शाह ने इसका मज़बूती से बचाव किया हो. लेकिन इसके पारित होने को महज एक कमज़ोर विपक्ष और मज़बूत सत्तारूढ़ पार्टी के बीच खींचतान बताना गलतबयानी होगी.
विधेयक पर बहस के दौरान कांग्रेस पार्टी ने ना सिर्फ सुविचारित और चुनिंदा स्मृतिलोप का प्रदर्शन किया बल्कि, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण उसने एक बार फिर ये साबित करने का अवसर गंवा दिया कि राष्ट्रीय एकता और आतंकवाद से लड़ाई के मामले में वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समान ही बड़ी भूमिका निभा सकती है. कांग्रेस पार्टी को भाजपा से उलझने के लिए उकसाने वाले वामपंथी रुझान वाले गौण तत्व हमेशा ही मौजूद रहेंगे. पर इस तरह का रवैया 134 साल पुरानी पार्टी को आगे और विघटन एवं गुमनामी की ओर धकेलेगा.
विपक्ष के बेबुनियाद आरोप
विपक्ष ने संशोधन विधेयक को ‘कठोर’ बताया पर इसके पक्ष में पेश मोदी सरकार की दलीलों में दम है. आतंकी हमलों के प्रकार और तरीकों के त्वरित विश्लेषण से इन नृशंस हमलों की बदलती प्रकृति का पता चल जाता है. दुनिया भर में कथित ‘लोन वुल्फ़ अटैक’ की घटनाएं बढ़ी हैं. यानि ऐसा हमला जो कट्टरपंथी विचारधारा और अतिवादी दृष्टिकोण से प्रभावित व्यक्ति अकेले अपने दम पर करता हो. भारत के पूर्व गृह मंत्री (मौजूदा रक्षा मंत्री) राजनाथ सिंह ने ‘डू इट योरसेल्फ’ और ‘लोन वुल्फ़’ प्रकार के आतंकी हमलों को सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक बड़ी चुनौती बताया था.
दूसरी ओर, महुआ मोइत्रा जैसे विपक्षी सदस्यों ने बिना कोई विश्लेषण किए संशोधन के औचित्य पर सवाल उठाने का काम किया. भारत के पहले प्रधानमंत्री द्वारा 1961 में स्थापित राष्ट्रीय एकता परिषद ने 1962 में सर्वसम्मति से एक ऐसे सख्त कानून की सिफारिश की थी जो कि देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए खतरनाक गैरकानूनी गतिविधियों की रोकथाम कर सके. एससी/एसटी, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए कानून बनाने की भी सिफारिश की गई, पर इस सूची में आतंकवाद का नाम नहीं था, क्योंकि तब यह उतना बड़ा खतरा नहीं था जितना कि आज है.
इसके अलावा, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के शासन में सोलहवें संविधान संशोधन विधेयक 1963 के माध्यम से, जो कि 1967 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया था. भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा करने के अधिकार और यहां तक कि संघ या यूनियन बनाने के मौलिक अधिकार तक पर भी भारी प्रतिबंध लगाए थे. तत्कालीन विपक्ष ने विरोध तो किया था पर वे नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला माने गए विधेयक को पारित होने से रोकने में असमर्थ थे.
इसलिए अचरज नहीं कि गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में विरोध करते कांग्रेसी सदस्यों को फटकार लगाते हुए याद दिलाया कि कथित ‘कठोर’ कानून को सर्वप्रथम उन्हीं की कद्दावर नेता लेकर आई थीं.
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विपक्ष के इस आरोप में भी दम नहीं है कि ताज़ा संशोधन भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ हैं, क्योंकि कुछ गैर-भाजपा राज्य सरकारें (जैसे छत्तीसगढ़) आर्थिक वृद्धि और विकास को बाधित करने तथा विधिवत निर्वाचित सरकारों के अधिकार को चुनौती देने वाले नक्सल-माओवादी खतरे से निपटने के लिए एक मज़बूत कानून का समर्थन करती हैं. आजादी के 70 से अधिक वर्षों के बाद आज भी नक्सल प्रभावित जिलों में ऐसे इलाकों का अस्तित्व है, जहां कि सरकारों की नहीं चलती है.
स्थानीय आदिवासी युवाओं को एकजुट करने वाला नक्सल-विरोधी आंदोलन सलवा जुडूम एक कांग्रेसी नेता, महेंद्र कर्मा, के दिमाग की ही उपज था, जिसे उन्होंने 2005 में आरंभ किया था. इसका सबसे प्रभावी इस्तेमाल पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने किया था. विडंबना ही कहेंगे, कि नक्सलवादियों से व्यक्तिगत सहानुभूति रखने वालों, जिन्हें अक्सर ‘शहरी माओवादी’ कहा जाता है, ने सुप्रीम कोर्ट के ज़रिए इस संगठन पर प्रतिबंध लगवाने का काम किया. इसके बाद नक्सवादी फिर से संगठित हुए और उन्होंने 2013 में छत्तीसगढ़ में रायपुर के निकट दरभा घाटी में महेंद्र कर्मा और कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओं पर जानलेवा हमला किया.
अमित शाह का बहुसंख्यकों वाला दृष्टिकोण
गृहमंत्री के संकल्प में समाज में सुरक्षित और निरापद माहौल की हामी बहुसंख्यक जनता की भावनाएं प्रतिध्वनित होती हैं. अमित शाह ने सदन में कहा कि ‘इस कानून का एकमात्र उद्देश्य आतंकवाद को समूल नष्ट करना है और आदर्शत: विपक्ष को इसका स्वागत करना चाहिए था.’
सरकार को केवल विपक्ष की उन बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है जो कि संशोधित प्रावधानों के दुरुपयोग और त्वरित न्यायिक फैसलों से जुड़ी हैं. संशोधित अधिनियम पुलिस तथा कानून लागू करने वाली अन्य एजेंसियों के हाथों में असीमित शक्तियां सौंपती हैं. अनेकों बार, इन एजेंसियों में ना सिर्फ समन्वय का अभाव होता है, बल्कि कई दफे ये स्वयं को एक-दूसरे के सामने खड़ा पा सकती हैं. इनके बीच अधिकार क्षेत्र संबंधी प्रतिद्वंद्विता को कानून-व्यवस्था संबंधी सरकार के फैसलों पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.
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कार्यपालिका के कुछ अंगों और न्यायपालिका के एक हिस्से में भ्रष्टाचार की बात से सरकार या राजनीतिक पार्टियां अनभिज्ञ नहीं हैं. कई बार, इक्के-दुक्के भ्रष्ट अधिकारी भी पूरे संगठन या सरकार को बदनाम कर सकते हैं.
गृहमंत्री को देश को आश्वस्त करना चाहिए कि आतंकवाद और आतंकी गिरोहों और उनके पीछे कोई संगठन हो या व्यक्ति विशेष को समूल नष्ट करने के लिए कठोरतम कार्रवाई की जाएगी. अमित शाह को ये भरोसा भी दिलाना चाहिए कि ना तो उनके मातहत लोगों को और ना ही दूसरे मंत्रालय के अधिकारियों को संशोधित यूएपीए कानून के किसी भी प्रावधान के दुरुपयोग की इजाज़त दी जाएगी.
(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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