. एक लड़की का जन्म होते ही राज्य सरकार उसके खाते में 50,000 रुपए जमा कर देती है, जिसे वह 18 साल की होने पर ब्याज समेत निकाल सकती है. अगर एक के बाद एक, दो लड़कियां हुईं तो ये रकम दोनों में बंट जाएगी.
. उसे सभी टीकाकरण मुफ्त मिलते हैं और सरकारी अस्पतालों में उसका इलाज मुफ्त होता है. सरकारी अस्पताल अच्छे हैं.
. वह स्कूल जाती है, तो सरकार उसे एक साइकिल देती है. अगर वह या कोई भी महिला सरकारी बस में राज्य में कहीं भी जाए तो उन्हें टिकट नहीं खरीदना होगा. महिलाओं का कामकाजी होना आसान है.
. स्कूल में उसे फ्री किताब, बस्ता मिलेगा और मिड-डे मील भी मिलेगा. खाने में अंडा और दूध भी होगा. हो सकता है कि उसके माता-पिता उसे आगे न पढ़ाना चाहते हों, लेकिन 10वीं पास करने पर सरकार उसे एक बड़ी रकम देगी, इसलिए उसे स्कूल से हटाया नहीं जाता. 6ठी से 12वीं तक पढ़ने के लिए उसे हर महीने 1000 रुपए दिए जाते हैं.
. अगर वह किसी पिछड़े वर्ग या अल्पसंख्यक वर्ग से है तो सरकारी कॉलेज में भी उसे स्कॉलरशिप मिलेगी.
. घर में मां उसे चटनी या कुछ और पीसने के लिए नहीं बोलती, क्योंकि सरकार से मिक्सर ग्राइंडर मिला हुआ है. रसोई में समय बच रहा है.
. अगर उसे आईआईटी में एडमिशन मिल जाता है तो फीस सरकार देगी. वंचित वर्गों से है तो विदेश में पढ़ाई के लिए सरकार स्कॉलरशिप देगी.
इन सब ‘रेवड़ियों’ की वजह से ये राज्य मानव विकास में देश के अग्रणी राज्यों में है. महिला विकास के कारण आबादी के बढ़ने की रफ्तार रुक गई है. मानव विकास में ये राज्य अब यूरोपीय विकसित देशों की बराबरी करने की कोशिश कर रहा है. देश में कुल 15.93 लाख नौकरीपेशा महिलाओं में आधी सिर्फ इस एक राज्य में हैं. समर्थ और शिक्षित महिलाएं खरीदारी भी खूब करती हैं, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था को गति मिल रही है. स्त्री के समर्थ होने का एक असर ये भी है कि गियरलेस स्कूटर की बिक्री के मामले में ये राज्य अग्रणी है. आबादी अपेक्षाकृत कम होने के बावजूद ऐसे स्कूटर की कुल संख्या के मामले में ये देश में दूसरे नंबर का राज्य है. बिक्री ज्यादा होने कारण ये राज्य ऐसे स्कूटर के निर्माण का केंद्र भी है.
ये राज्य तमिलनाडु है, जिसे ‘रेवड़ियों’ के कारण ख्याति या बदनामी हासिल है. लेकिन नतीजे के तौर पर देखें तो रेवड़ियों से राज्य और राज्य के लोगों को कोई नुकसान नहीं हुआ है. बल्कि ये अग्रणी राज्यों में है. ये राज्य अपने लोक कल्याणकारी तरीकों को द्रविड़ियन मॉडल कहता है. मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के मुताबिक इस मॉडल को दूसरे राज्यों को भी अपनाना चाहिए.
अब कुछ अर्थशास्त्री, नेता और केंद्र सरकार ये कह रही हैं कि नागरिकों को समर्थ और सक्षम बनाने वाली ये योजनाएं ‘रेवड़ियां’ हैं. बीजेपी के एक नेता ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका यानी पीआईएल दायर करके मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को निर्देश दे कि वह चुनाव घोषणापत्र में ऐसे वादों यानी रेवड़ियों की घोषणा पर रोक लगाए. केंद्र सरकार ने इस पीआईएल का समर्थन किया है.
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इस पीआईएल में दो प्रमुख तर्क हैं:
1. राजनीतिक पार्टियां चुनाव के दौरान और घोषणापत्रों में अंधाधुंध वादे करती हैं, जिससे चुनावी प्रक्रिया प्रभावित होती है.
2. इन वादों को पूरा करने के चक्कर में राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है क्योंकि वित्तीय अनुशासन के साथ इन वादों को पूरा कर पाना संभव नहीं होता.
याचिकाकर्ता चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट 2013 के सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार केस में अपने फैसले को पलट दें, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि चुनाव घोषणापत्र में किसी वादे को शामिल करना सेक्शन 123 के तहत दर्ज चुनावी कदाचार में नहीं गिना जाएगा. साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा था कि किसी योजना को लागू करने के लिए संविधान के तहत पहले से कई मानक और नियंत्रण हैं और इनमें हस्तक्षेप करने की कोर्ट की शक्तियां सीमित है.
इस मामले में डीएमके की ओर से हस्तक्षेप करने वाले वकील और राज्य सभा सदस्य पी विल्सन ने लिखित में दिया है कि याचिका में रेवड़ी या फ्रीबीज़ शब्द का जिस तरह इस्तेमाल हुआ है, वह आपत्तिजनक है. उन्होंने लिखा है कि कोई नागरिक गरिमा के साथ जीवन बिताएं इसके लिए जरूरी है कि राज्य देखे कि उसे खाना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य, ट्रांसपोर्ट आदि मिल रहा है या नहीं. ये रेवड़ियां नहीं, लोक कल्याण के कार्य है, ताकि समावेशी विकास हो सके.
दरअसल ये विवाद इसलिए खड़ा हो रहा है क्योंकि लोग संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों की गंभीरता को समझ नहीं पा रहे हैं. संविधान निर्माताओं ने इन्हें अनिवार्य नहीं किया लेकिन इन्हें काफी महत्वपूर्ण माना गया था. इसमें लोक कल्याणकारी राज्य, मानवीय गरिमा, सामाजिक और आर्थिक न्याय आदि को स्थान मिला है.
वैसे ये कहना भी गलत है कि राज्य सरकारें रेवड़ियां बांटने में इतनी फिजूलखर्ची कर देंगी कि राज्य का वित्तीय संतुलन बिगड़ जाएगा. ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संविधान में प्रावधान मौजूद हैं. कोई राज्य उन प्रावधानों के परे नहीं जा सकता.
एक बात समझने की जरूरत है कि भारत एक बड़ा और विविधतापूर्ण देश है. यहां केंद्र से थोपा हुआ कोई आर्थिक या कोई भी अन्य मॉडल कामयाब नहीं हो सकता. इससे देश के संघीय ढांचे और राज्यों की स्वायत्तता को नुकसान होगा. बेहतर तो ये है कि विकास और सरकारी कामकाज के अलग-अलग मॉडल आपस में होड़ करें और सभी मॉडल एक दूसरे सीखें. जो बेहतरीन हो, उसे अपनाने का विकल्प बाकी राज्यों के पास होना चाहिए.
इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि भारत की समाज व्यवस्था में हर कोई बराबर नहीं है. सदियों के भेदभाव के कारण कुछ समूह और समुदाय पीछे रह गए हैं. औपनिवेशिक शासन की वजह से भी देश के काफी लोग पिछड़े, गरीब और अशिक्षित हैं. अगर राज्य यानी शासन उन्हें आगे लाने के लिए कुछ विशेष और अलग से काम नहीं करेगा, तो देश का विकास कैसे हो पाएगा.
ये भी समझने की जरूरत है कि लोक कल्याण का काम कोई वामपंथी या मार्क्सवादी प्रोजेक्ट नहीं है. पूंजीवाद ठीक से काम करता रहे, बाजार बड़ा हो, उद्यमों को अच्छा वर्कर मिले, इसलिए भी जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो और आगे बढ़ने और गरिमा से जीने का मौका हर किसी के लिए खुला हो. यही द्रविड़ियन मॉडल है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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