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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमथुरा-काशी ही नहीं आदि शंकराचार्य की बसाई छोटी काशी को भी बचाना होगा, वरना कल उसे खुदाई में ढूंढना पड़ेगा

मथुरा-काशी ही नहीं आदि शंकराचार्य की बसाई छोटी काशी को भी बचाना होगा, वरना कल उसे खुदाई में ढूंढना पड़ेगा

बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर अलकनंदा नदी के पूर्व में बसे इस गांव का नाम है नानि या छोटी काशी और इसी छोटी काशी का हिस्सा है हाट गांव. यहां मौजूद है आदि शंकराचार्य के समय का लक्ष्मीनारायण मंदिर.

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यह मामला किसी उपन्यास के कथानक की तरह है. ठीक वैसे ही जैसे लेखक सुभाष पन्त ने अपने आंचलिक उपन्यास पहाड़ चोर में झण्डूखाल गांव का जिक्र किया है. खदान कंपनी खदान की अनुमति लेने के लिए नक्शे से गांव को ही गायब करा देती है. मोचियों का छोटा सा गांव अपने अस्तित्व को बचाने की लंबी लड़ाई लड़ता है.

ऐसी ही कुछ कहानी है छोटी काशी की. यहां बन रही है 444 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना, जिसका नाम है विष्णुगाड–पीपलकोटी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट. जहां एक तरफ जमीन के भीतर दबे मंदिरों को ढूढ़ निकालने की कवायद चल रही है वहीं दूसरी ओर सरकार आदि शंकराचार्य के बसाए गांव को ही जमीन के अंदर दबाने पर अमादा है.

आठवीं सदी के संत आदि शंकराचार्य ने अद्वैत परंपरा का प्रचार बद्रीनाथ से शुरु किया था. उन्होंने ने ही बंगाल के गौड़ ब्राह्मणों को लाकर यहां बसाया था.


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एक हजार साल पुराना है गांव

बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर अलकनंदा नदी के पूर्व में बसे इस गांव का नाम है नानि या छोटी काशी और इसी छोटी काशी का हिस्सा है हाट गांव. यहां मौजूद है आदि शंकराचार्य के समय का लक्ष्मीनारायण मंदिर. यह मंदिर बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों का अहम पड़ाव हुआ करता था.

अहम इसलिए क्योंकि पहले बद्रीनाथ यात्रा दुर्गम होती थी और जो लोग वहां तक पहुंच नहीं पाते थे उनके लिए ही यहां, हाट बाजार में लक्ष्मीनारायण मंदिर की स्थापना हुई थी.

अब हुआ यूं कि 2006 में जब टीएचडीसी यानी टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने विष्णुगाड-पीपलकोटी प्रोजेक्ट शुरु करने की घोषणा की तो कंपनी को पहले ही अंदाजा था कि इस प्रोजेक्ट का स्थानीय विरोध होगा.

इसलिए उसने सर्वे रिपोर्ट से इस तथ्य को ही गायब करा दिया कि उसकी साइट पर पड़ने वाला गांव एक हजार साल से भी ज्यादा पुराना है और यहां प्राचीनतम मंदिर हैं. इसके बाद EIA (इनवायर्मेंट इंपेक्ट असेसमेंट) रिपोर्ट में सीधे तौर पर कहा गया कि परियोजना बनने से गांव के कल्चर रिसोर्स पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

इसका मतलब है बांध बनने से सैकड़ों साल पुराने गांव की जीवनशैली और वहां के स्थापत्य पर कोई नकारात्मक असर नहीं होगा. और इसी आधार पर परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी भी दे गई. गांव वालों को मुआवजा देकर थोड़ी दूरी पर बसा दिया गया और हाट गांव को डंपिंग जोन बनाने की अनुमति ले ली गई.

गांव वाले अंधेरे में थे, मंदिर के सेवादारों को लगा कि मंदिर का सम्मान और वैभव बचा रहेगा. लेकिन जब उन्होंने देखा कि मंदिर के ऊपरी हिस्से में ही मलबा डाला जा रहा है तो विरोध होने लगा.

मंदिर को बचाने की पर्यावरण प्रेमी कर रहे अपील

पर्यावरण प्रेमी लगातार इस मुद्दे को विभिन्न मंत्रालयों और अन्य पक्षों के सामने रख रहे हैं. स्थापत्य को बचाने में अग्रणी संस्था इनटेक ने भी सरकार को पत्र लिखकर दसवीं सदी के इस मंदिर को बचाने की अपील की है. मंदिर को प्राचीन बताने वाला ताम्रपत्र भी बांध बनाने वाली कंपनी को आगे बढ़ने से नहीं रोक पा रहा.

जब विरोध बढ़ा तो केंद्र सरकार के आदेश पर साइट का सर्वे एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) द्वारा किया गया. 2009 की एएसआई की रिपोर्ट ने माना कि हाट गांव में बना लक्ष्मीनारायण मंदिर शंकराचार्य के समय का ही है. सर्वे रिपोर्ट में यह भी माना गया कि मंदिर प्रोजेक्ट एरिया में है. मुख्य मंदिर के अलावा यहां छोटे–बड़े कई मंदिर और भी हैं. एएसआई की रिपोर्ट को साइड में रखकर काम चलता रहा लेकिन 2013 में केदारनाथ हादसे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सभी बांध परियोजनाओं को रोक दिया और परियोजनाओं की समीक्षा के लिए आईआईटी कंसोर्टियम बना दिया.

आज की स्थिति यह है कि केदारनाथ और चमोली हादसे से भी सरकार सबक सीखने को तैयार नहीं है और काम में तेजी ले आई. पहाड़ काटकर 14.5 किलोमीटर लंबी नहर का निर्माण कार्य जारी है. बचे खुचे गांव को सुरक्षा के नाम पर हटने को कहा गया और पूरे गांव को जमीदोंज कर दिया गया.

परियोजना के मलबे को सीधे मंदिर के ऊपर ही डंप किया जा रहा है. मंदिर परिसर में मौजूद नंदी को मलबे ने खंडित कर दिया है और ग्राम देवताओं के मंदिर अब मलबे का हिस्सा है.

राजनीति अक्सर इतिहास को खोदती रहती है, कुछ दशकों बाद इसे भी खोदा जाएगा तब हम यह नहीं कह पाएंगे कि इस मंदिर को मुगलों ने ध्वस्त कर दिया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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