प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब जबकि लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, अप्रैल-जून तिमाही में भारत की जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की उल्लेखनीय गिरावट आई है— पर काबू पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, उन्हें वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की तरफ से किसी और मिसहैंडलिंग की जरूरत नहीं है. मोदी को उनकी बनाई भुरभुरी जमीन से उबरना होगा और लेटरल एंट्री को अर्थव्यवस्था बचाने के लिए अपना मंत्र बनाना होगा. प्रधानमंत्री विदेश मंत्रालय के लिए जैसे एस. जयशंकर और स्वच्छ भारत अभियान के लिए परमेश्वरन अय्यर को लाए, वैसे ही उन्हें अब अर्थव्यवस्था पर भी कुछ आउट-ऑफ-द-बॉक्स सोचने की जरूरत है. वह अपने राजनीतिक ढांचे के बाहर से किसी डोमेन एक्सपर्ट को लाकर अपना वित्त मंत्री बना सकते हैं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह राजनीति के धुरंधर हैं लेकिन अर्थशास्त्र की बारीकियां नहीं समझते हैं. जब टीम के कप्तान और उप-कप्तान दोनों के पास कोई एक खास तरह का कौशल नहीं है तो उनकी टीम में ऐसे किसी सदस्य का होना अनिवार्य हो जाता है जो उनके और सरकार के लिए इस काम को करे. उन्हें ऐसा करना ही होगा क्योंकि आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा का वादा मोदी की राजनीति का आधार बिंदु हैं. आज दोनों पर ही संकट की छाया है. जब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन चुनौतियां खड़ी कर रहा है, मोदी के लिए देश का आर्थिक स्वास्थ्य सुधारने में दोहरी मशक्कत करना जरूरी हो गया है.
और, यह निश्चित तौर पर ऐसी स्थिति है जिसमें बाहरी प्रतिभाओं को लाना अहम हो जाता है.
भारत का सकल घरेलू उत्पाद सिकुड़ने के लिए कुख्यात वायरस पर दोष तो मढ़ा जा सकता है लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि महामारी शुरू होने के आठ तिमाही पहले से ही अर्थव्यवस्था में गिरावट का क्रम जारी था और लॉकडाउन लागू होने से हमारी स्थिति और बिगड़ गई.
यह कहना तो व्यंजना होगा कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार की बेंच स्ट्रेंथ कमजोर है. दुर्भाग्यपूर्ण हालात और राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल के अभाव में वित्त मंत्री के तौर पर निर्मला सीतारमण का कामकाज किसी आपदा से कम नहीं साबित हुआ है. लेकिन मोदी और उनके मतदाताओं के लिए उनकी सरकार में प्रतिभा की कमी सुस्पष्ट और परेशान करने वाली है. उनकी कैबिनेट या पार्टी में दूर-दूर तक कोई ऐसा उम्मीदवार नज़र नहीं आता जिसे सीतारमण के संभावित विकल्प के तौर पर देखा जा सके.
अनुभवी पूर्व राजनयिक एस. जयशंकर की विदेश मंत्री के तौर पर नियुक्ति एक साहसिक और अप्रत्याशित प्रयोग था लेकिन यह अब तक काफी शानदार साबित हुआ है. कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक भारत का संदेश पहुंचाने की बात हो या एलएसी पर चीन के साथ मौजूदा गतिरोध का मामला, जयशंकर ने भारत का पक्ष मजबूती से रखने में अपने राजनयिक कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया है. यह ठीक उसी तरह है जैसी सोच मोदी को अब अपनाने की जरूरत है- डूबती भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए अपने राजनीतिक ढांचे से बाहर निकलकर कुछ करना.
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एक डूबती अर्थव्यवस्था और कोई तारणहार नहीं
वित्त मंत्री के तौर पर निर्मला सीतारमण का कार्यकाल पिछली मई के बाद से एक के बाद एक इकोनॉमिक डिजास्टर वाला साबित हुआ है. अर्थशास्त्र में एमए सीतारमण, जो पहले एक जूनियर मंत्री के रूप में मंत्रालय में काम कर चुकी थीं, कोई अप्रत्याशित विकल्प नहीं थीं. लेकिन संभवत: प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभव का अभाव था और इसके अलावा विरासत में मिली डांवाडोल अर्थव्यवस्था उनके रास्ते में आड़े आ गई. दुर्भाग्य से 15 महीने बाद भी वह अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत आत्मविश्वास नहीं जगा पाईं और आर्थिक मंदी का चेहरा बन गईं.
जीडीपी के नवीनतम आंकड़े जारी होते ही ट्विटर पर #ResignNirmala जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे, जो यह दर्शाता है कि कैसे सारा गुस्सा उन्हीं पर फूट रहा है. उनके लिए स्थितियां इसलिए और बदतर हुईं क्योंकि राज्यों को जीएसटी बकाया लौटाने में मोदी सरकार की असमर्थता एक बड़ा संकट है और फिर उनमें पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली की तरह हर किसी तक पहुंचने और सहमति कायम करने के कौशल का भी अभाव है. ‘एक्ट ऑफ गॉड’ जैसे बयान देना मददगार साबित नहीं होता.
हालांकि, मुद्दे की बात यह है कि निर्मला सीतारमण खुद कोई समस्या नहीं है बल्कि वह सिर्फ इसका चेहरा भर हैं. नरेंद्र मोदी सरकार में प्रतिभा की इतनी कमी है कि यह सोच पाना भी नामुमकिन है कि ऐसे नाजुक और चुनौतीपूर्ण मोड़ पर उनकी जगह वित्त मंत्रालय का नेतृत्व कौन संभाल सकता है. एक कैबिनेट मंत्री जो विशेषज्ञता के लिहाज से इस जगह फिट होते हैं, वह हैं पीयूष गोयल. लेकिन उन्हें भी कुशल प्रशासक या सर्वसम्मति कायम करने वाले के तौर पर नहीं जाना जाता है और यही नहीं साथ काम करने वाले लोगों के साथ उनके कई बार विवाद भी हुए हैं.
सरकार को अभी किसी ऐसे अनुभवी व्यक्ति की जरूरत है जिसकी आर्थिक मामलों पर मजबूत पकड़ हो और साथ ही वह आलोचकों को साधने में भी सक्षम हो. और निश्चित रूप से सीतारमण या गोयल आदि में से कोई इन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है.
राजनीति से इतर देखने की जरूरत
नरेंद्र मोदी ने खुद की छवि भी ऐसी बना ली है कि कोई भी आर्थिक प्रतिभा उनके साथ काम नहीं कर सकती. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल से लेकर पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन तक- मोदी सरकार छोड़ने या छोड़ने को मजबूर कर दिए गए लोगों की फेहरिस्त उनसे लंबी है जो स्वीकार्य हैं.
लेकिन अर्थव्यवस्था जब इस तरह डांवाडोल है, मोदी को लकीर पीटते रहने के बजाए अपने राजनीतिक कंफर्ट जोन से बाहर आकर कुछ करने का साहस दिखाना होगा. प्रधानमंत्री ने जब 2019 में दूसरी बार शपथ ली तो उन्हें पता था कि शीर्ष चार कैबिनेट मंत्री के पद के लिए उनके विकल्प सीमित हैं. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज अस्वस्थ होने के मद्देनज़र मोदी को खासकर विदेश मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग के लिए स्पष्ट तौर पर कुछ अलग हटकर सोचना पड़ा. इसके लिए एस. जयशंकर एक अप्रत्याशित लेकिन समझदारी भरी पसंद थे.
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लेटरल एंट्री में चुनौती
राजनीति में यह आम चलन नहीं है कि पार्टी/सहयोगी दलों से बाहर के लोगों को सरकार के परंपरागत ढांचे का हिस्सा बनाया जाए या किसी मिशन का नेतृत्व सौंपा जाए. इसमें अहम को ठेस न पहुंचाना, मदद के लिए संरक्षण, लोगों को उपकृत करना और तमाम राजनीतिक बाध्यताओं को पूरा करना होता है. लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसी दुष्कर कार्य को देखते हुए इन सभी जरूरतों को किनारे कर दिया जाता है.
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा महत्वाकांक्षी आधार परियोजना का जिम्मा इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन निलेकणी को सौंपना एक विवेकपूर्ण कदम था. निलेकणी, जिन्हें कैबिनेट रैंक दिया गया था, के बिना आधार की राह कठिन हो जाती. उन्होंने वह नींव रखी जिसने प्रोजेक्ट तैयार करने और उन्हें अच्छी तरह लागू करने के मोदी सरकार के प्रयासों को आधार दिया है.
कांग्रेस पार्टी के भीतर की राजनीति और लेटरल एंट्री के जरिये किसी ‘बाहरी’ को लाए जाने को लेकर विरोध ने निलेकणी के कार्यकाल को थोड़ा मुश्किल बना दिया था. हालांकि, पार्टी मामलों पर अपने सशक्त नियंत्रण के कारण मोदी के सामने ऐसी कोई मुश्किल नहीं आएगी. हम जिस आर्थिक दौर से गुज़र रहे हैं उसके लिए भाजपा वैश्विक मंदी या महामारी या किसी और चीज को जिम्मेदार ठहरा सकती है लेकिन इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि वह इस गिरावट को रोकने में कुछ तो कर सकती थी.
मोदी पर जब तक उनके मतदाता मेहरबान रहेंगे- उन्हें अर्थव्यवस्था का संकट दूर करने के लिए कुछ न कुछ करने की जरूरत है, अगर वह अपने कार्यकाल में एक बड़ा और बदसूरत धब्बा नहीं चाहते हैं. उन्हें प्राइड, प्रीजुडिस और पॉलिटिक्स को एक तरफ करके अपने नए वित्त मंत्री के रूप में किसी बाहरी व्यक्ति को लाना होगा. वह कौन हो सकता है? बहरहाल, सुझावों का स्वागत होगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
(डिसक्लेमर: नंदन निलेकणी दिप्रिंट के विशिष्ट संस्थापक-निवेशकों में शामिल हैं. निवेशकों के ब्योरे के लिए कृपया यहां क्लिक करें)
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