2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपनी शानदार जीत का जश्न मनाने के लिए कांग्रेस के पास पर्याप्त कारण हैं. पार्टी की जीत एक राज्य में एक उल्लेखनीय सत्ता परिवर्तन का प्रतीक है, जो भारतीय जनता पार्टी द्वारा मजबूती से स्थापित किया गया था. कांग्रेस की 135 के विपरीत 224 सीटों में से बीजेपी केवल 65 सीट ही जीत सकीं.
हालांकि, यह जीत राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के पुनरुत्थान के लिए एक संभावित स्प्रिंगबोर्ड हो सकती है. पार्टी को इस चुनाव से एक मूल्यवान सबक लेना चाहिए, और साथ ही अन्य हितधारकों को भी.
मतदाताओं को भय फैलाने से बचाएं
पहला और सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है कि ‘फासीवाद’ शब्द का इस्तेमाल अक्सर कम्युनिस्टों और इस्लामवादियों द्वारा उस लोकतंत्र का शोषण करने के लिए किया जाता है जो उन्हें लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को ‘अवैध’ कहने का अधिकार भी देता है. भारत के आकांक्षी युवाओं को किसी भी प्रचार के खिलाफ शिक्षित करना महत्वपूर्ण है जो उन्हें असहाय महसूस कराएगा या उन्हें अपने प्रतिनिधियों को चुनने में बाधा डालेगा. यह नगरपालिका से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक लागू होता है. राजनीतिक नेताओं को लोकतंत्र के तथ्यों को उनके सामने रखने का प्रयास करना चाहिए और उन्हें भय-प्रचार से बचाना चाहिए. लोकतंत्र में कोई भी राजनीतिक दल जीत सकता है. इसी सिद्धांत के तहत कांग्रेस को इनाम मिला है और कर्नाटक चुनाव में बीजेपी को सबक सिखाया गया है. भारत में लोकतंत्र एक सच्चाई है, ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान की मालिक पाकिस्तानी सेना है. किसी को भी आपको अन्यथा बताने न दें.
स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दी जाती है
इसके बाद, दोनों पार्टियों को स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता देने वाले मजबूत उम्मीदवारों के चयन के महत्व को समझना चाहिए, क्योंकि यह चुनाव परिणामों को काफी हद तक प्रभावित करता है. जबकि कर्नाटक में बीजेपी की ‘डबल इंजन सरकार’ वाली थ्योरी विफल रही, लेकिन पार्टी अपने मजबूत स्थानीय नेताओं के कारण उत्तर प्रदेश और असम में हावी रही. यह इस बात का प्रमाण है कि केवल मोदी के नाम पर विधानसभा चुनाव नहीं जीते जा सकते. स्थानीय मुद्दे विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय राजनीतिक विचारों को पीछे छोड़ देते हैं, और पार्टियों को उन्हें वह महत्व देना चाहिए जिसके वे हकदार हैं.
इसी तरह, कांग्रेस लंबे समय से हर उपलब्धि का श्रेय गांधी परिवार को देने की गलती करती रही है. साथ ही अपनी अपील को सीमित करती रही है. हालांकि, इसने राज्य-स्तरीय चिंताओं को स्वीकार करते हुए कर्नाटक में एक अलग दृष्टिकोण अपनाया. उदाहरण के लिए, डेयरी को-ऑपरेटिव द्वारा राज्य में ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर उत्पाद बेचने की अपनी योजना की घोषणा के बाद, कांग्रेस ने अमूल पर हमला किया. पार्टी ने आरोप लगाया कि यह कदम केंद्र सरकार द्वारा राज्य के स्थानीय रूप से स्थापित सहकारी-आधारित दूध ब्रांड, नंदिनी को कमजोर करने का एक सचेत प्रयास था. कांग्रेस ने अमूल के प्रवेश से कर्नाटक के डेयरी उद्योग, जो 25 लाख से अधिक किसानों को सपोर्ट करता है, के संभावित जोखिमों को उजागर करके स्थानीय लोगों की भावना को सफलतापूर्वक पकड़ लिया.
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तुष्टीकरण, विवाद का परिणाम नहीं मिलेगा
तुष्टिकरण और विवाद उत्पन्न करने की रणनीति की भी अपनी सीमाएं हैं और एक स्थान पर जाकर ठहर जाती है और इससे कोई परिणाम नहीं मिलता है. मुसलमानों के लिए ओबीसी कोटे को हटाकर और उन्हें ईडब्ल्यूएस श्रेणी में स्थानांतरित करके आरक्षण मैट्रिक्स पर खेलने का बीजेपी का प्रयास, साथ ही साथ लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों के लिए आरक्षण बढ़ाने से उसके मामले में मदद नहीं मिली. न केवल पसमांदा मुसलमानों के लिए यह कदम अनुचित था, बल्कि यह लिंगायत और वोक्कालिगा को बीजेपी के वोट बैंक में मजबूत करने में भी विफल रहा. लिंगायत समुदाय के वर्चस्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों में, कांग्रेस ने 44 सीटें हासिल की, जबकि बीजेपी केवल 20 जीतने में सफल रही.
कांग्रेस द्वारा अपने चुनावी घोषणा पत्र में बजरंग दल जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की कसम खाने के बाद एक राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गई. एक ऐसा घटनाक्रम था जिसने पीएम मोदी सहित प्रमुख बीजेपी नेताओं का ध्यान खींचा. बाद में, डीके शिवकुमार, जो अब डिप्टी सीएम हैं, ने यह कहकर कांग्रेस के पक्ष में तालियां बजा दीं कि उनकी पार्टी पूरे राज्य में हनुमान मंदिरों का निर्माण करेगी.
भ्रष्टाचार एक निर्णायक भूमिका निभाता है
भ्रष्टाचार ने निर्विवाद रूप से मौजूदा सरकार के परिणाम को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कांग्रेस ने बीजेपी को ’40 प्रतिशत कमीशन’ सरकार के रूप में कुशलता से लेबल करके कर्नाटक चुनाव अभियान में भ्रष्टाचार को अपना मुख्य केंद्र बना लिया. इस अभियान और चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कर्नाटक में भ्रष्टाचार वास्तव में एक प्रमुख मुद्दा है. वास्तव में, पूरे भारत के राजनीतिक इतिहास में, भ्रष्टाचार ने अक्सर सत्तारूढ़ सरकारों के भाग्य का निर्धारण करने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है. उल्लेखनीय उदाहरण, जैसे कि पूर्व प्रधानमंत्रियों वीपी सिंह और मनमोहन सिंह से जुड़े मामले, इस उदाहरण के रूप में काम करते हैं कि कैसे भ्रष्टाचार मौजूदा प्रशासन की गति को गहराई से प्रभावित कर सकता है.
(अमाना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय अमाना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक YouTube शो चलाती हैं. वह @Amana_Ansari पर ट्वीट करती है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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