भारत में अभी तक भाजपा के हिंदू रूढ़िवादी वर्चस्व के मुकाबले दो तरह की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं मौजूद रही हैं. एक तो वो जिसे वामपंथी और प्रगतिशील अपनी सनक में क्रांति बताते हैं और दूसरी वो जिसे कांग्रेस के राहुल गांधी ने मंदिर यात्रा वाले नरम-हिंदुत्व तथा अधिकारों और न्याय से जुड़े वामपंथी विचारों के बेढंगे मिश्रण से तैयार करने की कोशिश की थी.
लेकिन हाल के महीनों में, एक तीसरी राजनीतिक प्रतिक्रिया भी देखने को मिली है. ये है सौम्य-राष्ट्रवाद जो दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल की राजनीति में पूरे निखार पर है. ये एक नए किस्म का राजनीतिक प्रयोग है और ये कितना प्रभावी है ये दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणामों से पता चलेगा.
बालाकोट हवाई हमले और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने को समर्थन की बात हो या जेएनयू और शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध से दूर रहने की या दिल्ली के चुनावों में दखल देने की कोशिश के लिए पाकिस्तान को झिड़की देने की- अरविंद केजरीवाल सावधानीपूर्वक भारतीय राजनीति के मध्यवर्ती स्थान को पुनर्परिभाषित और पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं. वास्तव में, राजनीति का मध्यवर्ती स्थान गायब हो चुका है – और हाल के वर्षों में दक्षिणपंथियों और वामपंथियों ने उन पर कब्ज़ा जमा लिया है.
निराश बहुमत के लिए नया मध्यमार्ग
भारतीय राजनीतिक में मध्यमार्गी विचारधारा को बचाने और नया रूप देने की जरूरत क्यों है? क्योंकि जल्दी ही भारत को ‘निराश बहुमत’ की अवधारणा का सामना करना पड़ेगा– इसका मतलब है दीर्घावधि के ध्रुवीकरण से अंतत: लोगों का मोहभंग. सप्ताह भर के भीतर जामिया और शाहीन बाग के पास दो हिंदू बंदूकधारियों के कारनामों से शायद इस मोहभंग की शुरुआत हो चुकी है.
वर्तमान में राजनीति का बड़ा सवाल ये है कि मोदीवाद का कैसे मुकाबला किया जाए. अतिवामपंथ से? या पुनर्परिभाषित, और अतिरिक्त ऊर्जा से भरी मध्यमार्गी राजनीति से?
कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अधिकांश हिंदू वैसे भी खुद को मध्यमार्गी मानते हैं. वे सामाजिक रूप से उदार, धार्मिक और आर्थिक नीति को लेकर बीच के किसी बिंदु पर होते हैं, पर राष्ट्रीय सुरक्षा या अवैध मुस्लिम प्रवासियों जैसे मुद्दों पर वे दक्षिणपंथी विचार रखते हैं. अच्छे वक्त में वे अधिकतर लचीले और विचारधाराओं से मुक्त होते हैं.
अरविंद केजरीवाल अपनी राजनीति को इसी नई मध्यमार्ग की ओर ले जा रहे हैं. इस व्यावहारिक और कुशल मध्यमार्ग के अवयव हैं- सौम्य-राष्ट्रवाद, बहुसंख्यक वर्ग को नाराज करने वाली बातों से बचना, धार्मिक प्रतीकों को अपनाना, सेना के खिलाफ मुंह नहीं खोलना और वामपंथियों की क्रांति से दूर रहना.
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इसके लिए राजनीति और विचारधारा के स्तरों पर थोड़ा सामंजस्य बिठाने की दरकार होती है जोकि आप ने प्रदर्शित किया है.
क्या विचारधारा से आगे की राजनीति दोहराई जा सकती है?
वैसे दिल्ली चुनाव में नई सौम्य-राष्ट्रवाद युक्त मध्यमार्गी राजनीति की पहली परीक्षा नहीं हो रही है. हरियाणा में इसे कसौटी पर कसा जा चुका है. वहां के कांग्रेसी नेताओं भूपिंदर सिंह हुड्डा और दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार का समर्थन किया था, भले ही राहुल गांधी ने ऐसा ना किया हो. वे इतना पर ही नहीं रुके थे. हरियाणा के चुनाव अभियान के दौरान, जैसा कि दीपेंद्र हुड्डा ने मुझे बताया, वे भाजपा की रैलियों में कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं को भेजते थे. वहां जब भी अमित शाह या मनोहर लाल खट्टर कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की बात करते तो, ये युवक चिल्ला कर कहते कि ‘हां, हमारे नेता भी इस बात का समर्थन करते हैं, पर नौकरियों के बारे में आपका क्या कहना है’.
कुछ लोग कह सकते हैं कि कश्मीर के शटडाउन का समर्थन भला कहां से ‘सौम्य’ है. ये सौम्य है क्योंकि इसमें हिंदुत्व का तड़का नहीं है – बाकी बातें भाजपा की तरह ही हैं. एक सामाजिक विश्लेषक ने एक बार मुझसे कहा था: ‘भारत को आम आदमी पार्टी जैसे देशभक्त दक्षिणपंथी की जरूरत है और इसे सहन किया जा सकता है.’
शाहीन बाग नहीं जाकर, योगी आदित्यनाथ के प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी कहे जाने के बावजूद उनका साथ नहीं देकर, प्रदर्शन समाप्त कराने के लिए लगातार अमित शाह और केंद्र से आग्रह कर और यहां तक कि लोगों से भी प्रदर्शन खत्म करने की अपील कर आम आदमी पार्टी एक नया मध्यमार्गी खेल खेल रही है. इससे कुछ मुस्लिम और कुछ उदारवादी वोट छिटकने का खतरा है. पर इसके विपरीत शाहीन बाग जाने पर ढेर सारे हिंदू वोट गंवाने का खतरा बना सकता है. अरविंद केजरीवाल ने अपना पक्ष चुन लिया है. उनके जेहन में सिर्फ और सिर्फ चुनाव जीतने का लक्ष्य है.
यदि इस तरह का व्यावहारिक सौम्य-राष्ट्रवाद दिल्ली में अच्छे परिणाम लाता है, तो ये राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में भाजपा के वर्चस्व को चुनौती देने के वास्ते एक प्रारूप बन जाएगा. पर इससे जुड़ी एक दुविधा है.
यदि इस प्रकार की राजनीति सफल होती है तो फिर भारत के इज़रायल बनने का खतरा हो जाएगा जहां अधिकांश राजनीतिक दल विभिन्न मात्राओं वाले दक्षिणपंथ से संबद्ध हैं. पर यदि इसका चुनावी फायदा नहीं निकला, तो वामपंथी दले इसे बाकी दलों को वामपंथी विचारों की ओर उन्मुख करने के अवसर के तौर पर देखेंगे.
वामपंथ के रास्ते नहीं
सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्मों ने भारत और पूरी दुनिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी राजनीति को विस्तार देने का काम किया है. पर कितना भी लुभावना क्यों ना लगे, वामपंथी अपने इस विस्तार को राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी जीतों में नहीं बदल सकते हैं, कम-से-कम भारत में तो नहीं ही. जैसा कि अमेरिका में बर्नी सैंडर्स को महसूस हो रहा है और भारत में कन्हैया कुमार को अनुभव हो चुका है, चुनावों में जीत का एक अलग ही फार्मूला होता है और राजनीतिक दल चुनाव जीतने की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हैं, न कि कैंपस की बहसों के जीतने के खेल में. बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट भले ही महत्वपूर्ण और नेक दलीलें देते हों, पर उन्हें चुनाव जीतने की ज़रूरत नहीं होती है.
कांग्रेस के 2019 लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में शामिल अफ़स्पा कानून की समीक्षा का विचार अच्छा था, पर निश्चय ही इसे बालाकोट हवाई हमले और अभिनंदन वर्धमान के जयकारे की पृष्ठभूमि में एक वोट जुटाऊ विचार नहीं कहा जा सकता. वास्तव में, यह वोट गंवाने वाला विचार था. ये पाखंडपूर्ण भी था क्योंकि 10 वर्षों के कांग्रेसी शासन में मनमोहन सिंह सरकार सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की तमाम मांगों की अनसुनी करती रही थी.
अमेरिका में भी, ट्रंप के घोर विरोधियों को लगता है कि ये उनके लिए बहुप्रतीक्षित क्रांति का अवसर है. वे चुनाव को डोनल्ड ट्रंप को व्हाइट हाउस से निकालने की लड़ाई के बजाय समाजवाद बनाम पूंजीवाद का संघर्ष बना रहे हैं. जैसाकि राजनीतिक रणनीतिकार जॉन ज़ाइगलर कहते हैं, प्रगतिशील वर्ग कैंसर का इलाज लिंग-परिवर्तन ऑपरेशन से करना चाहता है. या बराक ओबामा के शब्दों में कहा जाए तो वे ‘व्यवस्था को खत्म कर उसका पुनर्निर्माण’ करने का प्रयास कर रहे हैं.
क्या विचारधाराओं के मिश्रण वाली राजनीति की वापसी संभव है?
क्या नरेंद्र मोदी और डोनल्ड ट्रंप के युग में विचारधाराओं के मिश्रण से मध्यमार्गी राजनीति को पुनर्भाषित करने की गुंजाइश है? ये वक्त पक्के समर्थकों पर केंद्रित राजनीति का है. घोर दक्षिणपंथियों और घोर वामपंथियों का भी बुनियादी समर्थकों का अपना-अपना आधार है, मध्यमार्गियों के मामले में ये बात नहीं है. आमतौर पर उनका व्यापक पर कमजोर आधार होता है, और कथित एल्गोरिद्म राजनीति के इस काल में ये उतना फलदायक साबित नहीं हो पाता है.
इसलिए अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के वोटरों से ये आग्रह कर चौंकाया है कि वे अपने पसंदीदा दलों भाजपा और कांग्रेस के प्रति निष्ठावान बने रहें, पर दिल्ली में उन्हें वोट दें. भारतीय राजनीति में ऐसी अपील दुर्लभ है.
अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने की होड़ में शामिल पीट बुटिजिज ने हाल में ऐसी ही अपील करते हुए कहा था कि वह हर किसी का समर्थन चाहते हैं, ‘भले ही आप प्रगतिशील हैं या उदारवादी या भावी पूर्व रिपब्लिकन’.
राजनीति के मध्यवर्ती स्थान में आज एक रिक्ति है. और प्रकृति की तरह ही राजनीति भी खालीपन को नापसंद करती है.
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कांग्रेस पार्टी द्वारा खाली किए गए मध्य स्थल को किसी-न-किसी राजनीतिक ताकत को भरना पड़ेगा. हुड्डा और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता या विभिन्न क्षेत्रीय दल इस रिक्ति को भरने की कोशिश कर सकते हैं.
राजनीति अब हिंदुओं और सार्वजनिक बहसों को दोबारा किसी मध्यवर्ती बिंदु पर खींचकर लाने का प्रयास कर रही है. ये हाल के वर्षों में दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के कब्ज़े में जाने दिए गए क्षेत्र के एक हिस्से पर दोबारा दावेदारी के लिए मध्यमार्ग को अधिक मुखर और महत्वाकांक्षी बनाने का एक प्रयास है.
इसीलिए दिल्ली चुनाव महत्वपूर्ण है- सिर्फ जीतने और हारने वालों की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि ये देखने के लिए भी कि वोटर मध्यमार्गी विचारधारा के इर्दगिर्द दोबारा एकजुट होने को तैयार हैं कि नहीं, भले ही ये हमेशा सही और नेक बातें ही नहीं कहती या करती हो.
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