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Wednesday, 13 November, 2024
होममत-विमतबड़ी रैलियां और रोड शो की जगह इस बार बिहार का डिजिटल चुनाव भाजपा की मजबूत पकड़ वाले फेसबुक और व्हाट्सएप पर लड़ा जाएगा

बड़ी रैलियां और रोड शो की जगह इस बार बिहार का डिजिटल चुनाव भाजपा की मजबूत पकड़ वाले फेसबुक और व्हाट्सएप पर लड़ा जाएगा

वो जमाना बीत गया जब लालू यादव बड़ी रैलियों को संबोधित किया करते थे. आज के चुनाव अभियानों में सिर्फ भाषण कला में महारत से ही बात नहीं बनती बल्कि पृष्ठभूमि में व्हाट्सएप और फेसबुक जरूरी है.

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बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव से एक नए दौर की शुरुआत हो रही है जिसमें डिजिटल चुनाव अभियान भारतीय चुनावों के केंद्र में होंगे. कोरोनावायरस महामारी के कारण भारतीय चुनाव आयोग द्वारा जारी सख्त दिशानिर्देशों के कारण परंपरागत चुनाव अभियान चुनावी नतीजों पर बेहद सीमित असर डाल सकेंगे. अधिकतम पांच लोगों की टोली को घर-घर जाकर प्रचार करने की अनुमति दी गई है जबकि रोड शो में पांच से अधिक वाहनों की इजाज़त नहीं होगी. इस प्रकार इस चुनाव का कथानक रैलियों और रोड शो से निर्धारित होने की बजाए व्हाट्सएप और फेसबुक पर तय होगा.

इस साल जून में नौ विपक्षी दलों ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के डिजिटल चुनाव अभियान के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज कराते हुए सबको समान अवसर की सुनिश्चितता का सवाल उठाया था. विपक्ष की इस चिंता का उचित आधार भी है क्योंकि राजनीति का डिजिटल रूप बिहार चुनाव के संदर्भ में भाजपा को चार विशिष्ट और अहम फायदे पहुंचाता है.

आज जब राजनीति उत्तरोत्तर व्यक्तित्वों और प्रतीकों पर और भावनाओं को उद्वेलित करने पर केंद्रित होते जा रही है तो ये स्वाभाविक लगता है कि भाजपा मतदाताओं के मनो-मस्तिष्क में पैठ बनाना जारी रखेगी. यह पकड़ किस स्तर की होगी इसका अगला परीक्षण स्थल बिहार बनने वाला है.


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डिजिटल परिदृश्य में भाजपा की बढ़त

सबसे पहले बिहार में डिजिटल क्षमता को लेकर भाजपा और विपक्ष के बीच के बड़े अंतर को ही देखें. भाजपा ने बिहार में 9,500 आईटी सेल प्रमुख नियुक्त किए हैं. करीब 72,000 व्हाट्सएप समूहों के जरिए पार्टी की योजना अपने मुद्दों और पार्टी नेताओं के भाषणों के रीयल-टाइम वीडियो को हर बूथ तक पहुंचाने की है. दूसरी ओर राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस गठजोड़ अभी तक राज्य में अपना चुनाव अभियान भी शुरू नहीं कर पाया है और भाजपा की टक्कर का ऑनलाइन ढांचा खड़ा करने के लिए ना उनके पास समय है और ना ही वित्तीय ताकत.

हालांकि पूरा चुनाव अभियान ऑनलाइन ही नहीं चलेगा क्योंकि बिहार में अभी भी मात्र 27 प्रतिशत आबादी को ही स्मार्टफोन सुलभ है. लेकिन भाजपा का डिजिटल ढांचा निश्चय ही चुनाव के लिए एजेंडा और मुद्दे तय करने में मददगार साबित होगा.

आज की राजनीति अधिकांशत: वायरल संदेशों और डिजिटल कंटेंट के वितरण के तंत्र पर केंद्रित है. और इस मामले में भाजपा को ना सिर्फ सबसे पहले कदम उठाने का लाभ मिल रहा है बल्कि इस संबंध में उसका वर्चस्व है. वो जमाना गया जब लालू प्रसाद यादव बड़ी रैलियों को संबोधित किया करते थे और उनके चुटकुलों पर भीड़ ठहाके लगाती थी. आज के चुनाव अभियानों में सिर्फ भाषण कला में महारत से ही बात नहीं बनती है बल्कि पृष्ठभूमि में व्हाट्सएप और फेसबुक पर प्रोपगेंडा का प्रसार चल रहा होता है जो कि चौबीसों घंटे का ऑपरेशन है और जिसकी शुरुआत चुनावों की घोषणा से बहुत पहले हो जाती है.

हिंदुत्व दल वर्चुअल रैलियों के आयोजन में भी विशेषज्ञता हासिल कर चुका है क्योंकि मोदी 2.0 की पहली सालगिरह मनाने के लिए उसने 60 से अधिक रैलियां की थी. इस तरह की रैलियां महंगी उपक्रम होती हैं. जैसा कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा है, ‘ऐसी रैलियों के लिए ‘अन्य बातों के अलावा प्रोजेक्शन स्क्रीन जैसे महंगे संचार उपकरणों’ की ज़रूरत होती है. क़ुरैशी के अनुसार कुछ दलों को इसका विशेष फायदा मिल सकता है क्योंकि ‘जाहिर है इन सुविधाओं को उपलब्ध कराना एक महंगा उपक्रम होगा और इसलिए पैसे वाली पार्टियों को मतदाताओं को गोलबंद करने में जहां आसानी होगी, वहीं छोटी क्षेत्रीय/स्थानीय पार्टियां नुकसान में रहेंगी.’

भाजपा पहले से ही सोशल मीडिया पर हावी है, बात चाहे फॉलोअर्स की हो या खर्च करने की हैसियत की. रिपोर्टों के अनुसार पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में गूगल और फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों पर 27 करोड़ रुपये खर्च किए थे जबकि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने इस मद में मात्र 5.6 करोड़ रुपये ही लगाए थे. ट्विटर पर भाजपा के फॉलोअर 1.43 करोड़ हैं जो कि कांग्रेस के मुकाबले दोगुनी संख्या है. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तो ट्विटर पर 4 लाख फॉलोअर भी नहीं हैं और प्रचार के लिए पार्टी मुख्य तौर पर अपने जमीनी कार्यकर्ताओं पर निर्भर है.

दूसरे, डिजिटल अभियान राजनीति में पहले से ही हावी नेताओं के व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावी बनाने का काम करेगा. पार्टी कार्यकर्ताओं के खुलकर काम नहीं कर सकने और घर-घर जाकर किए जाने वाले प्रचार अभियान संबंधी पाबंदियों के कारण राजनीतिक नेतृत्व पर जनता से अपने व्यक्तिगत जुड़ाव को वास्तविक वोटों में बदलने का पहले से अधिक दबाव होगा.

बिहार में इस संबंध में भाजपा-जदयू गठबंधन को खासी बढ़त प्राप्त है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों इसके खेमे में हैं जो कि क्रमश: राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं. इसके विपरीत विपक्षी खेमे के मुख्यमंत्री पद के संभावित दावेदार राजद के तेजस्वी यादव की मतदाताओं पर पकड़ की अभी अधिक आजमाइश नहीं हो पाई है.


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डिजिटल-फर्स्ट का दौर

ये परिवर्तन कोई नए नहीं हैं लेकिन डिजिटल-फर्स्ट अभियान से इसमें तेज़ी आएगी. जहां तक चुनाव अभियान और प्रचार की बात है तो इस संबंध में 2014 लोकसभा चुनावों के समय ही कई बदलाव आ चुके थे. जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था ‘मुद्दा’ आधारित चुनाव अभियान की जगह ‘छवि’ आधारित अभियान. उस चुनाव में ‘विचारधारा’ को ‘व्यक्ति’ में समाहित करते हुए मोदी का विशाल व्यक्तित्व निर्मित कर उसके इर्द-गिर्द समर्थकों को गोलबंद किया गया था. ये डिजिटल और इलेक्ट्रानिक मीडिया आधारित अभियानों की स्वाभाविक परिणति है.

यहां तक कि 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में भी जब नीतीश कुमार तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे, ‘नीतीश के सात निश्चय’ के रूप में एक बड़ा व्यक्तित्व केंद्रित अभियान चलाया गया था जो कि प्रसिद्ध राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की परिकल्पना थी.

भाजपा और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) दोनों के पास ही विशाल व्यक्तित्व वाले नेता हैं– एक केंद्र में और दूसरा राज्य में. राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति विपक्षी गठबंधन के लिए एक बड़ी क्षति साबित होगी क्योंकि उनके पास मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में समर्थकों को जोश दिलाने वाला कोई विशाल व्यक्तित्व नहीं है.

तीसरे, डिजिटल-फर्स्ट अभियान से प्रवासी मज़दूरों के संकट, बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था जैसे वास्तविक मुद्दों जो कि विपक्ष के काम आ सकते हैं, के ऊपर भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता मिलने की संभावना है. चुनाव अभियान के अधिक केंद्रीकृत होने के कारण स्थानीय मुद्दे राज्यव्यापी या राष्ट्रीय मुद्दों तले दब जाएंगे.

सोशल मीडिया संघर्ष और पहचान आधारित भावनात्मक बयानबाज़ियों पर फलता-फूलता है. यह मतदाताओं के विभिन्न समूहों को उनके असंतोष के आधार पर लक्षित करना भी संभव करता है, जैसा कि ब्रिटेन के ब्रेग्जिट अभियान और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव में देखा जा चुका है. ये सब भाजपा के पक्ष में जाता है जो चुनाव आयोग या आदर्श आचार संहिता की परवाह किए बिना व्हाट्सएप और फेसबुक पर मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रहों और हिंदुत्व गौरव (खासकर राम मंदिर भूमि पूजन के बाद) से जुड़े तमाम संदेशों को प्रसारित करने के लिए स्वतंत्र होगा.

फेसबुक के बारे में वॉल स्ट्रीट जर्नल के हालिया खुलासे के बाद स्पष्ट हो चुका है कि कैसे बड़े सोशल मीडिया नेटवर्क भाजपा से जुड़े लोगों द्वारा प्रसारित नफरत वाले संदेशों को हटाने से हिचकते हैं.

वास्तव में, पिछले छह वर्षों में एक अहम बदलाव ये आया है कि चुनाव अभियान अब एक या दो महीनों की बात नहीं रह गए हैं, बल्कि भाजपा की भारी-भरकम प्रचार मशीनरी पूरे साल चुनावी तेवर में ही काम करती है. एक पुख्ता हिंदू राजनीतिक पहचान तैयार करने के लिए भाजपा के हज़ारों व्हाट्सएप समूह बारहों महीने लगातार व्यापक स्तर पर हिंदुत्व प्रोपगेंडा चलाते रहते हैं. ऐसे में कुछेक महीनों के अत्यंत सीमित चुनाव अभियान के दौरान बुनियादी महत्व के स्थानीय मुद्दों को चर्चा के केंद्र में लाना बहुत कठिन होगा.


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टीवी की भूमिका

प्रौद्योगिकी ना सिर्फ राजनीतिक लामबंदी के स्वरूप को बल्कि उसकी प्रकृति को भी निर्धारित करती है. अमेरिका में 1960 में रिचर्ड निक्सन और जॉन एफ केनेडी की प्रेसिडेंशियल डिबेट के पहली बार टीवी पर सीधे प्रसारण को एक परिवर्तनकारी घटना माना जाता है जिसने अमेरिकी राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.

अमेरिकी राजनीति की मुख्य विशेषताओं में शुमार टीवी बहसों से पहले बहुत कम मतदाताओं को लाइव परिस्थितियों में अपने राष्ट्रपतीय उम्मीदवारों को देखने का मौका मिलता था. टीवी पर हुई उपरोक्त बहस, जिसे सात करोड़ दर्शकों ने देखा था, से पहले सर्वेक्षणों में निक्सन आगे चल रहे थे लेकिन बहस के तुरंत बाद केनेडी आगे निकल गए.

युवा, आकर्षक और मोहक अंदाज़ में बात करने वाले केनेडी नीरस और थके निक्सन की तुलना में टीवी पर देखने-सुनने में अच्छे थे और उन्होंने ही चुनाव जीता. उस चुनाव के बाद से राजनीति में एक नया दौर आरंभ हुआ और राष्ट्रपतीय उम्मीदवारों की शक्लो-सूरत तथा स्पष्ट संवाद और भाषणबाज़ी की क्षमता (संक्षेप में उनकी ‘छवि’) अक्सर उसकी नीतियों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण साबित होने लगी.

भारत की बात करें तो अरविंद राजागोपाल की बेहतरीन किताब ‘पॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविज़न ’ में बताया गया है कि कैसे टेलीविज़न के बिना हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन संभव नहीं था. टीवी एक अखिल भारतीय हिंदू समुदाय तैयार करने में मददगार साबित हुआ था जिसमें रामायण और महाभारत जैसे अतिलोकप्रिय कार्यक्रमों की भी भूमिका थी.

डिजिटल माध्यम भी उसी तरह से राजनीति में बदलाव ला रहा है– इसकी तुलना टेलीविज़न के दौर के बाद की राजनीति के कहीं अधिक शक्तिशाली स्वरूप से कर सकते हैं. भाजपा को डिजिटल माध्यम संचालित राजनीति में बुनियादी ढांचे और मशीनरी संबंधी प्रभावी बढ़त का लाभ तो मिल ही रहा है, इस माध्यम की संरचनात्मक विशेषताओं का फायदा उठाने की दृष्टि से भी उसकी बेहद अनुकूल स्थिति है.

(दोनों लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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