मिनी इंडिया का दर्जा हासिल कर चुकी देश की राजधानी दिल्ली सियासत में सबको बराबर का हक देने में नाकाम रही. उसके पास आगामी 4 दिसंबर को होने वाले दिल्ली नगर निगम के चुनावों में अपनी छवि को उजला करने का मौका था. वह अपने को बदल सकती थी. पर दिल्ली इस बार नहीं बदली. उसे यथास्थितिवादी रहना ही पसंद आता रहा. वह चाहती तो मुंबई की तरह समावेशी हो सकती थी. उसके पास अनुपम अवसर था बांग्ला, तमिल, मराठी, तेलुगू, गुजराती भाषियों को अपना नगर सेवक चुनने का.
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने 250 सदस्यों के निगम के सदन के लिए किसी गैर-हिन्दी भाषी को टिकट नहीं दिया. अफसोस कि इन्हें एक भी गैर-हिन्दी भाषी नहीं मिला जिसे ये अपना उम्मीदवार बना पाते. ये सब दिल्ली में दशकों से रह रहे हैं और इस महानगर को समृद्ध कर रहे हैं. इन सबने दिल्ली में दर्जनों श्रेष्ठ स्कूल खोले, जिनसे लाखों बच्चों ने पढ़ाई की और वे बेहतर नागरिक बने. ये दिल्ली के खेल, शिक्षा और बिजनेस जगत में भी अपनी छाप छोड़ते रहे हैं.
सबसे अमीर कौन
आमतौर पर माना जाता है कि दिल्ली में पैसा पंजाबियों और बनियों ने सबसे ज्यादा कमाया है. तमिल भाषी शिव नाडार इस सोच को ध्वस्त करते हैं. वे मूलरूप से तंजावुर जिले से हैं. शिव नाडार की नेटवर्थ- 14.3 बिलियन डॉलर है. फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, शिव नाडार राजधानी के सबसे धनी शख्स हैं. उन्होंने यहां आकर कुछ साल डीसीएम डाटा प्रोडक्ट्स में नौकरी की. उसे 1976 में छोड़कर एचसीएल इंटरप्राइजेज की स्थापना की और एक गैराज से केलकुलेटर और माइक्रो प्रॉसेसर बनाने लगे. आगे चलकर उन्होंने एचसीएल टेक्नोलॉजी की स्थापना की.अब करीब आधा दर्जन देशों में, 100 से ज्यादा कार्यालय, करीब एक लाख पेशेवर उनके साथ जुड़े हैं.
दिल्ली-नोएडा में तो शिव नाडर के दफ्तरों की भरमार है. फिलहाल, एचसीएल की 80 फीसदी आमदनी कंप्यूटर और ऑफिस इक्विपमेंट्स बेचकर होती है. शिव का बचपन अभावों में बीता. उन्होंने शिक्षा ग्रहण करने के लिए बड़े पापड़ बेले हैं. इसलिए वे अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा बेहतर स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थान स्थापित करने में इनवेस्ट करना पसंद करते हैं. शिव ने दिल्ली से जितना लिया उससे ज्यादा वह इसे दे रहे हैं. उनसे मिलते-जुलते अनेक उदाहरण मिल सकते हैं. दिल्ली ने गैर-हिन्दी भाषियों को आगे बढ़ने के मौके दिए पर सियासत के संसार से दूर ही रखा.
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सिर्फ हिंदी भाषियों को टिकट
अपने को राष्ट्रीय होने का दावा करने वाले दलों ने इस बार भी निकाय चुनाव में टिकट सिर्फ हिंदी भाषियों को ही दिये हैं. यहां पर पूर्वोतर राज्यों के लाखों लोगों की बात करना ही व्यर्थ है. उन्हें कौन दिल्ली की राजनीति में हक देता है. अब ये मत कहिए कि गैर-हिंदी भाषियों ने स्थानीय सियासत में अपना हक नहीं मांगा. वे मांगते रहे हैं, पर एक-दो उदाहरणों को छोड़कर उनके हिस्से में निराशा ही आई है.
आप 1958 से लेकर, होने जा रहे नगर निगम चुनावों के इतिहास के पन्नों को खंगालिए. आप पाएंगे कि सिर्फ एक गुजराती भाषी यहां पर नगर निगम पार्षद बना. उनका नाम था शांति देसाई. वे मूल रूप से गुजरात से थे और दिल्ली की राजनीति में अपनी जगह बनाने में सफल रहे थे. वे 2000 में दिल्ली के मेयर भी रहे. वे इससे पहले दिल्ली नगर निगम की स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन भी थे. वे चांदनी चौक से नगर निगम का चुनाव लड़ते थे. शांति देसाई के अलावा कोई दूसरा गैर-हिंदी भाषी नगर सेवक नहीं मिलता.
ईसाई भी नहीं होगा नगर सेवक
नगर निगम के नए सदन में कोई ईसाई भी नहीं होगा. ईसाइयों ने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज, सेंट स्टीफंस अस्पताल समेत दर्जनों स्कूल और दूसरे संस्थान खोले. इनके द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों में अपने बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए वे भी गिड़गड़ाते हैं जो नगर निगम से लेकर लोकसभा चुनावों में अपने दलों के उम्मीदवारों का चयन करते हैं. पर ये ईसाइयों को अपने दल से किसी चुनाव में टिकट देने के बारे में नहीं सोचते. पारसी और यहूदी की हम बात नहीं करेंगे क्योंकि उनकी आबादी बहुत ही कम है, पर ईसाई तो लाखों में हैं.
बीएमसी में गैरहिंदी भाषी चुन गए
इसके बरक्स अगर आप बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के सदस्यों के नामों पर निगाह डालेंगे तो आपको वी.बी. डिसूजा और मरिएम्मएम एम थेवर जैसे नाम मिलेंगे. बीएमसी के 227 सदस्यीय सदन में साल 2017 में हुए चुनावों में 24 गुजराती, 14 उत्तर भारतीय, पांच दक्षिण भारतीय व तीन ईसाई निर्वाचित हुए थे. सबसे बड़ी बात ये है कि वहां पर कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना वगैरह ने अपने टिकट देते हुए किसी खास धर्म या प्रांत के साथ भेदभाव नहीं किया.
यानी दिल्ली नगर निगम का चेहरा अखिल भारतीय नहीं हो रहा है. इस बार भी उसका मूल चरित्र वही होगा जो इसके 1958 में हुए पहले चुनाव से चल रहा है. नए नगर सेवक दिल्ली के मूल निवासी होंगे या फिर हिंदी भाषी राज्यों से इधर आकर बसे होंगे. मतलब इस बार भी दिल्ली नगर निगम की शक्ल समावेशी होने से रह गई. जिस दिल्ली को मिनी इंडिया कहा जाता है, उसकी नगर निगम कतई अखिल भारतीय नहीं बन सकी.
दिल्ली में टिकट देते हुए बड़े दल कब बड़े दिल का परिचय देंगे. अगर बात दिल्ली विधानसभा की करें तो यहां पर 1951 से लेकर अब तक सिर्फ मीरा भारद्वाज ही गैर-हिंदी भाषी मेम्बर रहीं. वह मलयाली हैं और उनका विवाह एक स्थानीय व्यक्ति से हुआ था. मीरा भारद्वाज 1993 में विधानसभा के लिए चुनी गई थीं.
अब लोकसभा की भी बात कर लें. दिल्ली ने 1952 व 1957 में सी. कृष्ण नायर को बाहरी दिल्ली सीट से संसद भेजा था. उन्हें दिल्ली के गांवों का गांधी कहा जाता था. वे गांधी जी के साथ दांडी यात्रा में भी शामिल थे. उन्हीं की कोशिशों से दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) बना था. इस डीडीए की बदौलत दिल्ली में लाखों लोगों को रहने की लिए छत मिली. हालांकि नायर का जीवनभर किराए के घर में ही रहे. उनके बाद 1971 के लोकसभा चुनावों में नई दिल्ली सीट से मुकुल बनर्जी निर्वाचित हुईं. नायर साहब और मुकुल बनर्जी कांग्रेस से थे. इन चंदेक उदाहरणों को छोड़ दें तो दिल्ली कम से कम सियासत में समावेशी नहीं रही है.
(विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार और Gandhi’s Delhi के लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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