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Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतसेना में 'आरती' और नेताओं का जन्मदिन मनाने का क्या काम, इन सब पर रोक लगाना जरूरी

सेना में ‘आरती’ और नेताओं का जन्मदिन मनाने का क्या काम, इन सब पर रोक लगाना जरूरी

सेना में धर्मनिरपेक्ष तथा राजनीतिक मूल्यों का हाल के दिनों में निरंतर पतन हुआ है, जो कि सेना के कर्णधारों द्वारा पेश किए गए उदाहरणों का नतीजा है.

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पिछेल सप्ताह 15 और 17 सितंबर को ऐसी दो घटनाएं हुईं जिनके चलते भारतीय सेना की धर्मनिरपेक्ष और राजनीतिक साख पर सवाल खड़े हो गए.

सेना के व्हाट्सएप ग्रुपों और सोशल मीडिया में 15 सितंबर को एक ऐसा वीडियो प्रसारित हुआ जिसमें युवा सैनिक अनुष्ठानिक वेश-भूषा में ड्रिल स्क्वायर पर सेना के बैंड की धुनों के साथ हिंदू विधि से आरती करते नज़र आए. ड्रिल स्क्वायर वह स्थान होता है जहां विशेष परेडों का आयोजन होता है और ड्रिल की ट्रेनिंग दी जाती है. किसी भी पैमाने से यह सेना के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का उल्लंघन है. यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो इस आयोजन के पक्ष-विपक्ष में तीखी बहस शुरू हो गई. इसका समर्थन करने वाले दक्षिणपंथियों ने परंपराओं और धर्म की दुहाई दी, तो अनुभवी आलोचकों ने इसे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का उल्लंघन बताकर इसकी निंदा की.

इसके बाद 17 सितंबर को हेडक्वार्टर 15 कोर ने, जिसे कश्मीर घाटी में कार्रवाई करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, अपने ट्विटर हैंडल ‘चिनार कोर’ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके 71वें जन्मदिन पर बधाई संदेश ट्वीट किया. इस संदेश में प्रधानमंत्री को फौजी पोशाक में दिखाती तीन तस्वीरों के साथ जिस तरह की महिमागान वाली भाषा का प्रयोग किया गया, वह वैसी ही थी जैसी राजनीतिक हलक़ों में किसी नेता के समर्थक उसकी शान में प्रयोग किया करते हैं. इस ट्वीट को जल्दी ही हटा दिया गया मगर उस स्क्रीनशॉट ने सेना के अ-राजनीतिक चरित्र को निश्चित ही चोट पहुंचाई.

मैं इन दो घटनाओं का विश्लेषण करके यह दिखाना चाहता हूं कि भारतीय सेना में धर्मनिरपेक्ष और राजनीतिक मूल्यों का किस तरह निरंतर क्षरण हुआ है.


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ड्रिल स्क्वायर पर आरती

1857 के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना का गठन धर्म, जाति और क्षेत्र के आधारों पर किया गया. देसी सैनिकों में ब्रिटिश सम्राट के प्रति निष्ठा तो नामुमकिन थी इसलिए अंग्रेजों ने उनमें जोश जगाने के लिए बड़ी चालाकी से धर्म और सख्त एकजुटता का सहारा लिया. साप्ताहिक परेडों में यूनिटों के अंदर धार्मिक स्थानों का काफी महत्व दिया जाने लगा. अधिकतर युद्धघोष धार्मिक नारों पर आधारित होते थे. आज़ादी के बाद, अनुशासन की खातिर इस सांगठनिक ढांचे को बनाए रखा गया, जो कि लड़ाइयां जीतने में काफी काम आया. लेकिन सभी नये रेजिमेंटों को अखिल भारतीय स्वरूप देकर संगठित किया गया.

हालांकि धर्म अभी भी प्रेरणा का स्रोत है, लेकिन उसके वर्चस्व को धीरे-धीर फीका किया गया है. कई धर्मों के सैनिकों की यूनिटों में सर्वधर्म स्थल की धारणा शामिल की गई. परेड में, और परेड से अलग होने वाले आयोजनों में साफ फर्क किया गया. धार्मिक पुस्तकें केवल एटेस्टेशन परेडों और युवा रंगरूटों की पासिंग आउट परेडों में इस्तेमाल की जाती हैं.
एटेस्टेशन परेडों में सैनिक संविधान की शपथ लेते हैं और तब शपथ दिलाने वाले एड्जुटेंट की बगल में धार्मिक पुस्तकें रखी जाती हैं. पहले, ये पुस्तकें परेड की कतारों के बीच घुमाई जाती थीं और सैनिक उन्हें वास्तव में न छूकर उन्हें एक हाथ से छूने का दिखावा करते थे. इधर, इस प्रथा को बंद कर दिया गया है. इसके अलावा ड्रिल स्क्वायर पर कभी कोई धार्मिक रस्म नहीं की जाती है. धार्मिक भजनों— आरती (हिंदू धर्म), दे शिवा वर मोहे (सिख धर्म), अबाइड विद मी (ईसाई धर्म)— के आधार पर कुछ मार्चिंग धुनें तैयार की गई हैं.

ऊपर जिस वीडियो का जिक्र किया गया है वह निश्चित ही ड्रिल स्क्वायर पर बनाया गया दिखता है और शायद नासिक के रेजिमेंटल सेंटर में तोपखाना रेजीमेंट के रंगरूटों की एटेस्टेशन परेड या पासिंगआउट परेड का है. परेड खाली स्क्वायर पर खड़ी है जिसमें सैल्यूट स्थल के आगे पुरस्कार विजेता खड़े हैं. तलवार धारण किए परेड कमांडर ‘ॐ’ लिखे पत्थर पर रखे नारियल को ‘धूप’ दिखा रहा है. सारे सैनिक मास्क लगाए हैं, जिसका मतलब है कि यह वीडियो कोविड-19 की महामारी फैलने के बाद का है. सैनिक घुटनों के बीच राइफल खड़ी करके ताली बाजा रहे हैं. सेना का बैंड ‘आरती’ की धुन बजा रहा है.

इस रस्म का समर्थन करने वालों ने, जिनमें सेना का प्रवक्ता भी शामिल है, तर्क दिया है कि यह परेड से पहले यूनिट के मंदिर के सामने किया गया, जो कि एक परंपरा रही है. इसका एक उदहरण देने के लिए इंडियन मिलिटरी अकादमी के ड्रिल स्क्वायर का वीडियो पेश किया गया है. मुझे जितना मालूम है उसके अनुसार ऐसी कोई परंपरा नहीं चल रही है. यह अप्राधिकृत रस्म सेना के नियम-कानून और एड्जुटेंट जनरल की शाखा द्वारा जारी नीति के खिलाफ है जिसके मुताबिक, एटेस्टेशन परेड को छोड़कर, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है, सभी धार्मिक आयोजन प्रतिबंधित हैं.

मूल वीडियो को देखकर यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है कि वह एटेस्टेशन परेड का हिस्सा है या फुल-ड्रेस रिहर्सल का, या सेरेमोनियल परेड के पहले का है या बाद का. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि यह ड्रिल स्क्वायर पर हो रहा है. यह कहना बेमानी है कि यह परेड से पहले किया गया. केवल एक धर्म की रस्म का आयोजन करना भेदभाव है, इससे संप्रदायिक विभाजन पैदा हो सकता है और यह सेना के क़ानूनों, नियम-कायदों के विपरीत है.

विवादास्पद जन्मदिन अभिनंदन

सेना में ऐसी कोई रस्म या परंपरा नहीं रही है कि कोई समूह या उसका कोई कमांडर प्रधानमंत्री या किसी राजनीतिक नेता का सार्वजनिक अभिनंदन करे. तीनों सेनाओं के प्रमुख या चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ शिष्टाचार के नाते ऐसा कर सकते हैं अगर वे उस दिन उस गणमान्य व्यक्ति से मिलें, या वे सेना की औपचारिक भाषा में उन्हें छोटा-सा बधाई संदेश भेज सकते हैं.

सरकार सेना के कमांडरों/ तीनों सेनाओं के अध्यक्षों/ चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की नियुक्ति अपने विवेक से करती है. नरेंद्र मोदी सरकार ने कई मौकों पर समान दावा रखने वालों के बीच योग्यता को तरजीह दी है, और यह उसका अधिकार है. कुछ समय पहले, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने ले.जनरल और इससे ऊपर के सेना अधिकारियों की नियुक्ति के लिए योग्यता पर आधारित व्यवस्था तैयार करने के लिए एक अध्ययन करने का आदेश दिया था. इस व्यवस्था में भावी थिएटर कमांडरों को लंबा कार्यकाल मिल जाता.

जिस ट्वीट का ऊपर जिक्र किया गया है वह चाटुकारिता वाली भाषा में लिखा गया और सार्वजनिक दायरे में डाल दिया गया था. यह जानबूझकर किया गया हो या अनजाने में, इसके पीछे कमांडर की मंशा अपने समूह को और इस बहाने खुद को सत्ताधारियों के करीब दिखाने और भावी चयन में अपनी ‘योग्यता’ साबित करने या सेवानिवृत्ति के बाद किसी ओहदे के लिए दावा मजबूत करने की ही दिखती है. उस ट्वीट को जिस तरह आलोचनाओं के बाद तुरंत हटा लिया गया, वही कहानी का खुलासा कर देता है.

सुधार की जरूरत

उपरोक्त दो घटनाएं सेना के उन धर्मनिरपेक्ष तथा अ-राजनीतिक मूल्यों के विपरीत हैं, जिन्होंने राष्ट्र को पिछले 74 वर्षों से दिशा प्रदान की है. इनके अलावा ऐसे कई उदाहरण हैं जब सेना के कर्णधारों ने राजनीतिक बयानबाजी की है और सियासत की बहती हवा के साथ बह जाने का आभास दिया है. सेना के अ-राजनीतिक स्वरूप के साथ समझौता करने की यह कुप्रवृत्ति निचले हलक़ों में भी उभर रही है. हर सैनिक के पास मोबाइल फोन है और सोशल मीडिया तथा टीवी चैनलों पर धर्म को लेकर जो विकृत विमर्श चल रहा है वह अपना असर दिखा रहा है. निचले स्तर के कमांडरों की मनमानी से हुई ये घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं.

समय आ गया है कि सेना अपनी गलती सुधारे. संवैधानिक मूल्यों की जड़ों पर प्रहार करने वाली इस खतरनाक प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और सेना अध्यक्षों को नये नीति निर्देश जारी करके उन पर सख्ती से अमल करवाना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)


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