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Tuesday, 17 December, 2024
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धर्म को आगे बढ़ाने के लिए नेता की ज़रूरत नहीं, मंदिर का उद्घाटन सरकारें नहीं साधु-संत करें

राम मंदिर के बाद कृष्ण मंदिर भी बन सकता है. शिव मंदिर की भी योजना हो सकती है. इन योजनाओं में धार्मिक विद्वानों, आध्यात्मिक चिंतकों और धर्मदर्शन के दार्शनिकों को आगे किया जाना चाहिए.

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राम मंदिर उद्घाटन कार्यक्रम में एक यही नहीं बल्कि कई बातें ऐसी दिख रही हैं जो विडम्बनापूर्ण हैं. राम, शिव और कृष्ण हिंदू मानस में बैठे हुए हैं, लेकिन दिखाया ऐसा जा रहा है कि मानो राम अब तक बेघर थे और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) वाले उन्हें घर दे रहे हैं.

संघ परिवार का दावा है कि सैकड़ों सालों के बाद राम अपने घर लौट रहे हैं, हम उनको टेंट से निकाल कर पक्के घर में ला रहे हैं.

एक पोस्टर जिसे बीजेपी बार-बार वायरल करती है, जिसमें बाल-कद राम को आदम-कद मोदी उंगली पकड़कर अयोध्या की तरफ ले जा रहे हैं. भाजपा वाले लोगों के दिमाग में यह बिठाने की कोशिश में जुट गए हैं कि प्रधानमंत्री का कद राम से बड़ा है. इसी मानसिकता से भाजपा का वह चुनावी प्रचार गीत निकला है जिसमें कहा गया है — ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’.


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‘बड़ी आस्था’

हिंदू संस्कृति में आमंत्रण पत्र देने की परंपरा तो थी, लेकिन भाजपा ने अनामंत्रण पत्र देने की परिपाटी भी शुरू कर दी है क्योंकि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठान समारोह में आने से मना किया गया था हालांकि, अब उन्हें विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने औपचारिक न्यौता भेजा है, लेकिन न बुलाने का प्रकरण उस अभद्रता को दिखाता है जहां हिंदू संस्कृति अपने बड़े-बुजुर्गों के सम्मान पर बल देती है. ये निमंत्रण भी केवल बड़े लोगों को मिल रहा है जैसे व्यापारी, नेता, अभिनेता जो आस्था भी आम आदमी की तुलना में ‘काफी बड़ी’ रखते हैं.

राम को लाने का दावा एक चालू किस्म का व्यक्ति या संस्था ही कर सकती है जो यह समझे बैठे हैं कि सत्ता के जोर पर बड़े-बड़े आयोजन करके और प्रचार तंत्र के माध्यम से लोगों को कुछ भी पढ़ाया-समझाया जा सकता है. जिन्होंने रामायण पढ़ी है वो समझते हैं कि राम को लाने का दावा उनके पिता दशरथ भी नहीं कर सकते थे क्योंकि राम जगत के पालनकर्ता विष्णु के अवतार हैं. कहां जन्म लेंगे, किसके घर जन्म लेंगे, यह केवल और केवल वही तय कर सकते थे, लेकिन चुनावी लाभ के लिए भाजपा ने प्रधानमंत्री को स्वयं राम के पिता दशरथ से भी बड़ा घोषित कर दिया है. यह उस मध्ययुगीन इतिहास की याद दिलाता है जब किसी राजा के दरबारीगण जनता पर ज्यादा से ज्यादा लगान थोपने के लिए अपने राजा को ईश्वर से भी बड़ा घोषित किया करते थे. एक आस्थावान हिन्दू के लिए यह पीड़ा, लज्जा और क्षोभ का विषय है कि राम की पूरी महिमा एक राजनैतिक दल की सत्ता लिप्सा के दायरे में सिमटाई जा रही है.

इस तरह की बातें बावजूद इसके कही जा रही है कि हिंदू समाज में सैकड़ों सालों से धूमधाम से रामचरितमानस का पाठ और रामलीला आयोजित हो रही हैं. लोग राम-राम कह कर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं. दलित, पिछड़ी जातियां अपने नाम में राम सरनेम लगाती रही हैं. चाहे निर्गुण ब्रह्म के उपासक कबीर हों या सगुण ब्रह्म के उपासक तुलसीदास हों, राम सभी जगह मौजूद हैं. आस्थावान हिन्दू उपासक अपने ईश्वर का मंदिर बनाते हैं, लेकिन भाजपा उल्टी गंगा बहाने की कोशिश में जुटी हुई है.

भक्त कवियों ने राम से शक्ति पाई थी. तुलसीदास ने बार-बार यही कहा था कि मेरी कविता की एक ही विशेषता है कि उसमें राम के प्रति भक्ति व्यक्त हुई है. तुलसीदास ने यहां तक कह दिया कि जिसे राम-सीता प्रिय नहीं हैं उसे शत्रु की तरह त्याग दीजिए. तुलसीदास ने अपनी कविताओं में किसी भी बड़े या छोटे राजा की प्रशंसा नहीं की. उनकी भक्ति के केंद्र में केवल राम की भक्ति है. उन्होंने राम के ऊपर किसी को जगह नहीं दी. परंतु यहां स्पष्ट राम मंदिर प्रकरण में पूरी कोशिश यह आभास देने में है कि राम का अस्तित्व भाजपा के बिना नहीं है बाकी सब दल राम के विरोधी हैं.


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‘कोर्ट अगर सरकार चलाने लगे तो’

धर्म की असली ताकत आध्यात्मिकता और मानवतावाद में होती है. आध्यात्मिक धरातल पर ही उसका मेल-जोल दूसरे पंथों या धर्मों से बढ़ता है. राजनीति में जब धर्म आ जाता है तब वह अपने लक्ष्य को आगे रखती है. ईश्वर से बड़ा राजनेता हो जाता है. वह बार-बार स्वयं को सामने लाना चाहता है ताकि उसकी महत्ता ईश्वर के माध्यम से बढ़ सके. सत्ता की असीमित ताकत यह विश्वास पैदा कर देती है कि वह असीमित शक्तिशाली ईश्वर का रक्षक है. ईश्वर की मूर्ति बनाकर, भव्य मंदिर बनाकर, उत्सव करके वह प्रचारित करता है कि उसने ईश्वर को आगे बढ़ाया है. धर्म को आगे बढ़ाया जा सकता है, मगर ईश्वर को आगे बढ़ने के लिए भला किसी राजनेता की ज़रूरत कैसे हो सकती है? ईश्वर सर्वशक्तिशाली है, वह भक्तों को शक्ति देते हैं और भक्त उनके प्रति विनम्र आस्था रखते हैं. इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्म और ईश्वर का सहारा लेकर बनने वालीं सत्ताएं अंतत: धार्मिक बुराइयों को जन्म देती हैं, जिनसे छुटकारा पाने के लिए जनता को अनंत संघर्ष करना पड़ा है.

राजनीति अध्यात्म के रास्ते पर नहीं चल पाती है. राजनीति भेद और अविश्वास को नहीं छोड़ सकती. अध्यात्म बताता है कि संपूर्ण सृष्टि एक तार से बंधी है और अध्यात्मविहीन राजनीति बताती है कि पड़ोसी देश तुम्हारा दुश्मन है, दूसरे समुदाय तुम्हारे शत्रु हैं. उस देश या समुदाय को केवल और केवल दुश्मनी की निगाह से देखो!

इतिहास का सबक यही है कि धर्म जब तक व्यक्ति की आस्था से जुड़ा होता है तब तक व्यक्ति के जीवन को निर्देशित करता है, लेकिन जब इसका राजनीतिक इस्तेमाल होता है तो सर्वनाश का कारण बनता है. 1947 में देश का विभाजन और इस दौरान लाखों लोगों की मौत और विस्थापन हिन्दू और मुसलमान दोनों तरफ के अतिवादियों और कट्टरपंथियों द्वारा सत्ता हासिल करने के लिए धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल के कारण हुआ.

भारत जैसे बहुधार्मिक देश के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी है कि सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर रहें. अगर धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल न हो तो धर्म कभी भी दंगा-फसाद और हिंसा का कारण नहीं बन सकता. धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल के चलते आज़ादी के बाद भी देश में सैंकड़ों की संख्या में दंगे फसाद हुए हैं जिसमें हज़ारों बेगुनाह गरीब साधारण लोग मारे गए और अरबों की संपत्ति नष्ट हुई.

राम मंदिर के बाद कृष्ण मंदिर भी बन सकता है. शिव मंदिर की भी योजना हो सकती है. इन योजनाओं में धार्मिक विद्वानों, आध्यात्मिक चिंतकों और धर्मदर्शन के दार्शनिकों को आगे किया जाना चाहिए. ऐसे धर्मधुरन्धरों की उपस्थिति, अध्यक्षता और आतिथ्य में मंदिरों के कार्यक्रम संपन्न किए जाने चाहिए. राजनीति की जितनी ही छाप लगेगी धर्म, ईश्वर और अध्यात्म की उतनी ही हानि होगी! राजनीति से दूर रह कर जो लोग धर्म के काम में लगे हैं, जिन्होंने धर्म-चिंतन को आगे बढ़ाया है, वैसे लोगों को आगे करके धार्मिक कार्यक्रमों को संपन्न कराया जाना ज्यादा मर्यादित होता!

भाजपा नीत केंद्र की मोदी सरकार अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन करने जा रही है. सरकार का काम यह नहीं है कि वह धार्मिक स्थलों के निर्माण का शिलान्यास करे और निर्माण पूरा होने पर उसका उद्घाटन करे. मंदिर या किसी भी धार्मिक स्थलों के शिलान्यास उद्घाटन का काम धार्मिक संस्थानों और साधु-संतों का होता है. जो काम धार्मिक संस्थाओं को करना चाहिए, आज देश की सरकार कर रही है. शासन, प्रशासन और देश की व्यवस्था काम के बंटवारे से चलती है. कोर्ट अगर सरकार चलाने की कोशिश करने लगे और सरकार कोर्ट के काम में हस्तक्षेप करने लगे तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कितनी अव्यवस्था और अराजकता फैल जाएगी, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए मंदिर का शिलान्यास और उद्घाटन कर रही हैं वह भी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले. यह अपनी पार्टी के हित में राजनीतिक लाभ लेने के लिए धर्म, ईश्वर और आम जनों की धार्मिक भावना का दोहन करना है.

भाजपा का इतिहास धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल का इतिहास रहा है. धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल इसके डीएनए में है. अगर भाजपा को धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने से रोक दिया जाए तो इस पार्टी का हाल बिन पानी की मछली जैसा हो जाएगा. धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करके ही यह पार्टी आज केंद्र समेत कई राज्यों में सरकार में है. भाजपा धर्म का अंतहीन राजनीतिक इस्तेमाल करना चाहती है. इसके अलावा कुछ करना इसके सामर्थ्य से बाहर है. अयोध्या के बाद उसके टूलकिट में मथुरा-काशी है. यह पार्टी हिंदू समाज के सभी लोकप्रिय देवी-देवताओं का राजनीतिक इस्तेमाल करने के फेर में है. इस पार्टी का नारा रहा है अयोध्या तो झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है. भाजपा की कोई दिलचस्पी जनता के दुख दर्द को कम करने और जनपक्षीय नीतियों को बनाने में नहीं रहती है तब उस के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है कि वह सत्ता में आने के लिए धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल और आम हिंदुओं की धार्मिक भावना का दोहन करे. धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल अगर इसी तरह होना जारी रहेगा तो धर्म, आस्था, आध्यात्म, लोकतंत्र सभी ख़तरे में पड़ जाएंगे.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. उनका एक्स हैंडल @chandanjnu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)


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