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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकई वैश्विक सूचकांक हो सकता है कि गलत हों पर भारत विदेशी आलोचनाओं को लेकर तुनुकमिजाजी न दिखाए

कई वैश्विक सूचकांक हो सकता है कि गलत हों पर भारत विदेशी आलोचनाओं को लेकर तुनुकमिजाजी न दिखाए

या तो यह रेंकिंग के दोषपूर्ण तरीके को उजागर करता है या शुद्ध पूर्वाग्रह को. इससे इन सबको नकारने की या यह दावा करने प्रवृत्ति पैदा होती है लेकिन भारत में व्यवस्थागत दोषों की ओर से आंखें नहीं मूँदी जा सकतीं.

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देश में प्रेस की आज़ादी, मानवाधिकारों, भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव, आदि को लेकर दुनिया भर में जो टीका-टिप्पणी हो रही है उस पर भारत सरकार की नाराजगी से यही उजागर होता है कि ऐसे तमाम मसलों में स्थिति जिस तरह बिगड़ रही है उसे कबूल करने से वह साफ इनकार कर रही है.

कोई भी स्वतंत्र प्रेक्षक देख सकता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के राज में मीडिया की आज़ादी कम हुई है. यह भी उतना ही स्पष्ट है कि यह सरकार नफरत फैलाने वाले बयानों (जैसे मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ के लिए खुला आह्वान) को लेकर सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गई है, सोशल मीडिया पर ट्रोल करने वालों की उग्र फौज खड़ी कर दी गई है, सड़कों पर हत्याएं आदि हो रही हैं. भारत के लोगों के लिए यह सब कोई नई बात नहीं है, और उन्हें असलियत को समझने के लिए किसी विदेशी संस्था द्वारा रेटिंग की दरकार नहीं है.

आलोचनाओं के प्रति सरकार की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं गौर करने लायक हैं. घरेलू आलोचनाओं का जवाब उपेक्षापूर्ण चुप्पी, परोक्ष दबावों, सूचना के अधिकार पर प्रतिबंधों, क्रूर क़ानूनों के तहत कार्रवाई, मुकदमा चलाने के रूप में होता है, जिसकी प्रक्रिया खुद ही एक सज़ा है. लेकिन विदेशी आलोचनाओं के प्रति ऐसी उपेक्षा नहीं दिखती. तब रक्षात्मक आक्रामकता दिखती है, जो कि तानाशाही जैसे शासन की विशेषता है. यह विदेशी (आमतौर पर पश्चिमी) जनमत के प्रति संवेदनशीलता को उजागर करती है, चाहे इससे कितना भी इनकार क्यों न किया जाए.


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सरकार और उसके पैरोकार विश्व रैंकिंग में भारत की स्थिति के बारे में जो कहते हैं उसमें दम है. ऐसी कई रैंकिंग में भारत को ऐसा प्रदर्शन करते हुए दिखाया गया है जो वास्तविकता नहीं है. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ जब यह कहता है कि भारत में प्रेस को तालिबानी शासन वाले अफगानिस्तान में प्रेस को मिली आज़ादी से कम आज़ादी हासिल है तब साख भारत की नहीं, बल्कि इस तरह की रैंकिंग देने वाले संगठन की घटती है.

जब यह बताया जाता है कि भारत में बच्चों का कद उनकी उम्र के हिसाब से कम बढ़ने के मामले बहुत ज्यादा हैं, तब यह बताना जरूरी है कि इस मामले में जो सामान्य स्तर माना गया है उसमें कोई एशियाई देश शामिल नहीं है (जहां लोगों का कद यूरोपीय या कुछ अफ्रीकी लोगों से छोटा होता है).

इस तरह कमियां लोकतांत्रिक पैमानों के मामले में रैंकिंग में भी दिखाई गई हैं. क्रेडिट रेटिंग के मामले में भी भारत को लंबे समय से यह शिकायत रही है कि यह कैसे तय की जाती है. आज, आशंका यह है कि अमेरिकी सरकार (कर्ज की सीमा को लेकर कांग्रेस में जो लड़ाई लड़ रही है) कर्ज भुगतान के मामले में भारत सरकार से पिछड़ सकती है. और जब प्रतिस्पर्द्धी होने के मामले में रैंकिंग की बात आती है तब गौर करने वाली बात यह है कि सबसे तेजी से वृद्धि कर रही या निर्यात में सबसे तेज अर्थव्यवस्थाओं को कभी सबसे प्रतिस्पर्द्धी का दर्जा नहीं दिया जाता.

कहा जा सकता है कि या तो यह दोषपूर्ण तरीके को उजागर करता है या शुद्ध पूर्वाग्रह को. इससे इन सबको नकारने की या यह दावा करने प्रवृत्ति पैदा होती है कि वैश्विक शक्तियां भारत के उत्कर्ष का विरोध करती हैं.

लेकिन तथ्य इसके उलट हैं. खासकर उत्कर्ष की ओर बढ़ते चीन के मद्देनजर, पूरा पश्चिमी जगत और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के प्रमुख देश भारत की बढ़ती ताकत का स्वागत करते हैं. इसके अलावा, भ्रष्टाचार के मामले में भारत की रैंकिंग सुधर सकती थी अगर कर्नाटक में ठेकेदारों ने नेताओं द्वारा 40 फीसदी कमीशन मांगे जाने की बातें न करते.

पश्चिमी जगत का दंभ इस सवालिया दोहरेपन में निहित है कि कुछ बाजार ‘उभर रहे हैं’ जबकि कुछ संभवतः ‘उभर चुके हैं’. पहले वाले बाजार में अगर कोई गलती होती है तो कहा जाता है कि उसमें ‘व्यवस्थागत’ दोष हैं. लेकिन दूसरे वाले में जब कुछ गलत होता है तब उसे महज विचलन कहा जाता है.

जाहिर है, भारत में व्यवस्थागत दोषों की ओर से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं. अडाणी का मामला व्यवसाय जगत और राजनीति की मिलीभगत का एक उदाहरण है, आईएल एंड एफएस का पतन प्रबंधकों, ऑडिटरों, रेटिंग एजेंसियों, और रेगुलेटरों की कमजोरियों का संकेतक है. लेकिन क्या 2008 का वित्तीय संकट अमेरिका में व्यवस्थागत विफलता का; बड़े बैंकों, बीमा कंपनियों, रेगुलेटरों और कानून बनाने वालों की विफलता का संकेत नहीं था?

जरा इस पर गौर कीजिए कि अमेरिका के क्षेत्रीय बैंक किस तरह चरमरा रहे हैं. या ब्रिटेन की राजनीति में बोले गए झूठ से किस तरह ‘ब्रेक्सिट’ को आत्महत्या करनी पड़ी. और लंदन इंटर-बैंक मनी मार्केट में जो हेराफेरी हुई वह घोटालों की कड़ी का ही हिस्सा थी चाहे वह क्रेडिट सुइस का हो या वायरकार्ड का, या एफटीएक्स, डूशे बैंक और फॉक्सवैगन का जो आला बैंकरों के साथ दिवंगत जेफ्रे एपस्टीन के रिश्तों से भिन्न था.

और, अडाणी पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद कौन से बैंक थे जो अपना जोखिम कम करने में जुट गए? बार्कले, या सिटी बैंक या दूसरे मशहूर बैंक? फिर भी ‘उभरते’ भारत के ‘सिस्टम’ को ही कमजोर क्यों बताया जाता है?
हर किसी को आईने में अपनी सूरत देखने की जरूरत है, तुनुकमिज़ाजी भारत को भी.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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