ज़रूरत और ज़मीनी हकीकत पर ज़िद हावी है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर साफ कर दिया कि वह हिमालय को बांधने की अपनी नीति पर आगे बढ़ेगी. फिर चाहे केदारनाथ और चमोली जैसे हादसों की गिनती कितनी भी बढ़ती रहे.
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए अपने हलफनामें में सात बांधों को ग्रीन सिग्नल देने की इच्छा जताई है. इनमें से एक बांध सिंगोली भटवाड़ी पहले ही कमीशन किया जा चुका है. ये वही बांध हैं जिनके खिलाफ अनशन करते हुए प्रो जीडी अग्रवाल की मौत हो गई थी. इन बांधों को बनाने की अनुमति देने हेतु उन्ही समितियों की सिफारिशों की मदद ली गई जिन्होने साफ तौर बांधों को विभीषिका बढ़ाने वाला बताया था. केदारनाथ हादसे के बाद बनी रवि चोपड़ा समिति ने कहा कि यदि मंदाकिनी में फाटाव्यूंग बांध नहीं होता तो निचले हिस्सों में इतनी तबाही ना मचती.
लेकिन केंद्र सरकार के पर्यावरण और क्लाइमेट की चिंता करने वाले मंत्रालय ने कसम खा रखी है कि बांध तो बन कर रहेंगे. मंत्रालय ने पहले सुप्रीम कोर्ट के डांटने पर एक समिति बनाई फिर उस समिति की सिफारिशों की समीक्षा के लिए एक और समिति बनाई और इस तरह से कई समितियों और अलग–अलग मंत्रालय की चिट्ठियों का जाल बुनकर फिर बीपी दास कमेटी बना दी. मंत्रालय के लोग दास कमेटी को रास्ता बनाने वाली कमेटी के नाम से जानते हैं. दास कमेटी का ToR यानी टर्म ऑफ रिफरेंस डिजायन मोडिफिकेशन और कम्यूलिटिव इंपैक्ट असेसमेंट था. लेकिन उन्होने अपने ब्रीफ से आगे बढ़कर सात बांधों को हरी झंडी दे दी. इसमें एक बांध फाटाव्यूंग भी है जो आज भी केदारनाथ हादसे के मलबे का हिस्सा है. दास समिति मानती है कि केदारनाथ जैसा हादसा दोबारा होता है तो फाटाव्यूंग उसे झेल लेगा. जबकि होना यह चाहिए कि सभी हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को नए सिरे से पर्यावरणीय अनुमति प्राप्त करनी चाहिए क्योकि चमोली में हुए ऋषिगंगा और तपोवन हादसे के बाद पूरे इलाके की टोपोग्राफी ही बदल गई है.
यह भी जानना जरूरी है कि मातृ सदन के अनशन के दबाव में 25 फरवरी 2019 को पीएमओ में प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र ने एक बैठक की अध्यक्षता की थी. इस बैठक के मिनिट्स कहते है कि कोई भी नया प्रोजेक्ट नहीं बनाया जाएगा और ऐसे सभी प्रोजेक्ट भी रद्द किए जाएंगे जिनका काम 50 फीसद से कम हुआ है. अब ढेर सारी चिट्ठियों के बीच इन मिनिट्स को भूला दिया गया है.
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सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा उन 24 प्रोजेक्ट के लिए उम्मीद की किरण की तरह है जिन पर कोर्ट ने केदारनाथ हादसे के बाद स्वत: संज्ञान लेते हुए रोक लगा दी थी.
एक नजर ऑल वेदर रोड पर भी डाल लीजिए. यह वही सड़क है जो पिछले हफ्ते हुई बारिश में बह गई. परिवहन मंत्रालय का सर्कुलर कहता है कि पहाड़ पर 5.5 मीटर की सड़क निर्माण किया जा सकता है. लेकिन उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा को सरल बनाने और चीन से तनाव की स्थिती में सीमा तक सेना की पहुंच त्वरित बनाने के उद्देश्य से उत्तराखंड की ऑल वेदर रोड बनाई गई है. सरकार का दावा है कि रणनीतिक महत्व वाली करीब 900 किमी लंबी चारधाम राजमार्ग परियोजना यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ तक बारहमासी सड़क संपर्क मुहैया कराएगी. इस रोड की चौड़ाई तमाम नियमों को धता बता कर 10 मीटर तक रखी गई है. विशेषज्ञों ने चेताया कि शिवालिक रेंज के कच्चे पहाड़ इस लायक नहीं है कि यहां इतनी चौड़ी सड़क बनाई जा सके. ऑल वेदर रोड की निगरानी कर रही उच्चाधिकार प्राप्त समिति के अध्यक्ष भी पर्यावरणविद रवि चोपड़ा है. इसी साल फरवरी में उन्होने शीर्ष न्यायालय से कहा है कि जल विद्युत परियोजना के निर्माण कार्य और सड़क चौड़ी किए जाने से हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी को अपूर्णीय क्षति हुई है. इसके परिणामस्वरूप चमोली जिले में अचानक बाढ़ (आपदा) आई. इस सड़क के लिए काटे गए पहाड़ ने मिट्टी की पकड़ ढीली कर दी. सड़क जितनी चौड़ी बनानी होती है उससे दोगुने हिस्से को काटकर समतल करना होता है. 10 मीटर चौड़ी सड़क के लिए 20 मीटर तक पहाड़ को काटा गया.
उस समय चोपड़ा की आलोचना करते हुए रक्षा मंत्रालय ने भी सुप्रीम कोर्ट को लिखा कि समिति के उद्देश्य और समझ अव्यवहारिक है. केंद्र ने भी अटार्नी जनरल के हवाले से कहा कि चमोली हादसे का ऑल वेदर रोड से कोई लेना देना नहीं है. लेकिन बारिश आते–आते चोपड़ा की बात सही साबित हुई और चीन को तेवर दिखाने का दावा करने वाली सड़क पहली बारिश भी नहीं झेल पाई. लेकिन सरकार दृढ़ संकल्पित है कि ऑल वेदर रोड दोबारा तैयार की जाएगी. सरकार समझ ही नहीं पा रही कि हिमालय हमारा रखवाला है उसे समझ कर दुश्मन का सामना किया जा सकता है ना कि उसे बांध कर.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और पर्यावरणविद हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)