एक साधारण, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य. 2019 के आम चुनावों में कुल डाले गए 60.3 करोड़ वोट में से बीजेपी को 22.6 करोड़ वोट मिले. जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को इससे आधे लगभग 11.86 करोड़ वोट मिले. इस मायने में कांग्रेस की हार काफी सम्मानजनक लगती है. अगर आप देखें कि 11 करोड़ मतदाताओं का ये अंतर दोनों दलों के बीच 251 सीटों के अंतर में तब्दील हुआ है, तो लगता है कि ये कांग्रेस का पूर्ण सफाया है. अब ये आपके ऊपर है कि आप इसे किस नजरिये से देखते हैं. कांग्रेस के भविष्य के प्रति आशावादी लोग इन आंकड़ों से बहुत निराश नहीं होंगे. जबकि कांग्रेस के आलोचक तो पहले से ही कांग्रेस का मृत्युलेख लिख चुके हैं.
कांग्रेस बार-बार जिंदा होती रही है
देश की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि इससे पहले भी कांग्रेस की मौत की घोषणाएं हो चुकी हैं और कांग्रेस मृत्यु शय्या से उठ खड़ी हुई है. इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस की बेहद बुरी हार हुई. लेकिन 1980 में उसकी वापसी हो गई. इसके बाद 1996 से लेकर 2004 के आम चुनाव तक कांग्रेस हारती रही. लेकिन, 2004 में वो लौटकर आई और फिर दस साल तक उसका शासन चला. फिर भी जो लोग कांग्रेस को ख़त्म मान कर चल रहे हैं, उन्हें ऐसा अपने जोखिम पर ही करना चाहिए. हालांकि, कांग्रेस की वापसी इस बार आसान नहीं होगी. इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस आत्म मंथन करें, हार के कारणों में जाये, ईमानदारी से उनका निवारण करे तथा पूर्ण आत्म विश्वास के साथ जनता के बीच में जाये.
कांग्रेस का आज कोई कोर वोट नहीं है
सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण है कांग्रेस को यह देखना कि जनता उसे क्यों नकार रही है? इसका सही और सटीक उत्तर ही कांग्रेस को संजीवनी प्रदान करेगा. आज़ादी की लड़ाई से लेकर नेहरू-इंदिरा युग हो चाहे राजीव गांधी-डॉ. मनमोहन युग, कांग्रेस हमेशा से देश के दलित, मुस्लिम, आदिवासी, किसानों, मज़दूरों या कहें कि देश के सभी गरीब, जरूरतमंदों की प्रतिनिधि समझी जाती रही है. परन्तु आज ये कहना मुश्किल होगा कि देश का कोई वर्ग विशेष, धर्म विशेष या व्यवसाय विशेष कांग्रेस से कुछ उम्मीद रखता है. क्यों ऐसा हुआ, इसका चिंतन कांग्रेस को करना होगा.
कांग्रेस ने भी की है धर्म की राजनीति
ये भी सच है कि आज अगर भारतीय राजनीति में बीजेपी और हिंदुत्व हावी है, तो इसका कुछ श्रेय या दोष कांग्रेस को भी जाता है. बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना हो चाहे शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में उलटना. कांग्रेस भी धर्म के राजनीति से अछूती नहीं रही है. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप से कांग्रेस बच नहीं सकती है. हालांकि, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि इससे खासकर मुसलमानों का तो कोई भी भला नहीं हुआ.
नरमपंथी हिंदुत्व से कांग्रेस का कल्याण नहीं
कुछ नेताओं ने कांग्रेस हाई कमान को समझाया कि भाजपा का हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का मुद्दा, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद पर भारी रहता है. इसकी काट के लिए राहुल गांधी इस बार मंदिर-मंदिर घूमते रहे. प्रियंका गांधी ने भी यही किया. लेकिन नरम हिंदुत्व की नीति कांग्रेस के काम नहीं आयी. कांग्रेस को एक छोटी सी बात समझ क्यों नहीं आयी कि अगर लोगों को हिंदूवादी नेता ही चाहिए तो फिर नरम हिन्दू क्यों, कट्टर हिन्दू क्यों नहीं? कांग्रेस का हिन्दू क्यों, भाजपा का हिन्दू क्यों नहीं? आखिर भाजपा तो अपने गठन से लेकर आज तक हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर जीती-मरती आयी है. हिंदुत्व का मुद्दा बीजेपी की पिच है. इस पर उतरना कांग्रेस की भूल थी.
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एजेंडा सेट करने में पिछड़ गई कांग्रेस
प्रचार प्रसार में कांग्रेस भाजपा से काफी पीछे नज़र आती है. सोशल मीडिया में भाजपा के एक-छत्र कब्जे के कारण जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे महान प्रधानमंत्री भी नरेंद्र मोदी के सामने साधारण नजर आने लगते हैं.
प्रचार के दम पर ऐसा माहौल बना दिया गया है. जिससे प्रतीत होता है कि उन्होंने सत्ता भोगने के अलावा कुछ किया ही नहीं. कांग्रेस को ये समझना होगा कि जिसे भाजपा उसकी कमजोरी बता रही है, वही उसकी सबसे बड़ी ताकत है. सोचिये कीजिये कि नेहरू और इंदिरा अगर भाजपा के प्रधानमंत्री होते तो क्या होता? निश्चित ही मोदी और उनके प्रचार तंत्र ने उन्हें भगवान नहीं तो कम से कम छोटा मोटा देवता जरूर बना दिया होता. ये भाजपा के प्रचार का दम है कि आज करोड़ों लोग इस मिथ्या प्रचार को सही मान बैठे हैं कि कांग्रेस केवल भ्रष्टाचार का केंद्र है और देश में जो भी उन्नति हुई है, वह मोदी की आने के बाद ही हुई है. कांग्रेस को भाजपा के इस मीडिया कवच को हर हाल में तोड़ना पड़ेगा.
चुनाव मैनेजमेंट में बीजेपी निकल गई आगे
आप के पास कितना भी अच्छा नेता हो और कितनी भी अच्छी रणनीति हो, आप कितने भी जनपक्षीय हों, परन्तु अगर आप का चुनाव प्रबंधन या कहें कि बूथ लेवल पर प्रतिबद्ध कार्यकर्ता नहीं है. तो पार्टी निश्चित ही नुकसान उठाएगी. कांग्रेस पार्टी को विशेषकर उन प्रदेशों में जहां क्षेत्रीय दल हावी हैं, नए सिरे से संगठन खड़ा करना पड़ेगा तथा कर्मठ, प्रतिबद्ध युवाओं को सम्मान और सपना देना पड़ेगा. कई बार गठबंधन में चुनाव लड़ने से कुछ इलाकों में पार्टी कमजोर हो जाती है. कांग्रेस के साथ भी ऐसा हुआ है. चुनाव प्रबंधन की शिक्षा तो कांग्रेस भाजपा से भी ले सकती है. जिसने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में इस क्षेत्र में नए आयाम लिखे हैं.
अपनी गलतियों से सबक लेते हुए कांग्रेस को देश की राजनीति में एक नयी पहल करनी चाहिए. एक ऐसी राजनीति, जिसके केंद्र में देश की प्रगति हो, धर्मनिरपेक्षता हो और समावेशी विकास हो. जिसमें हर किसी को अपना हिस्सा नजर आए.
एक ऐसी राजनीति, जिसमें गरीब, किसान, मजदूर, वंचित, शोषित समाज की तरक्की और खुशहाली का खाका हो. एक ऐसी राजनीति, जिसमें युवाओं को नौकरी और रोज़गार का भरोसा हो.
कांग्रेस को क्षेत्रीय नेताओं को वह सम्मान और तवज्जो देनी होगी, जिसके वे हक़दार हैं. अगर पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भाजपा को धूल चटाई है, तो इसका मुख्य कारण कप्तान अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत/सचिन पायलट, कमलनाथ और भूपेश बघेल को काफी हद तक अपने तरीके से काम करने की मिली छूट भी है. इसी तरह कांग्रेस को अन्य राज्यों में भी मजबूत कर्मठ नेताओं को अपने तरीके से काम करने की आज़ादी देनी होगी.
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राहुल गांधी बेशक कांग्रेस के अध्यक्ष न रहें. लेकिन ये समझना होगा कि कांग्रेस की राजनीति में वे महत्वपूर्ण बने रहेंगे और बीजेपी के हमलों का केंद्र भी वही रहेंगे. उनको ये समझना होगा कि उनके बाद जो भी उनके पद पर आएगा. उस पर विपक्ष आरोप लगाएगा कि वो तो कठपुतली हैं तथा रिमोट कण्ट्रोल उनके पास (राहुल गांधी) है. कांग्रेस को इससे बेपरवाह होकर अपना काम करना चाहिए. आखिर देश को एक मजबूत विपक्ष तो हर हाल में चाहिए.
पांच साल राजनीति में एक लंबा समय होता है. कांग्रेस के पास पर्याप्त समय है कि वह अपने संसाधनों को जुटाए तथा 2024 के लिए सही रणनीति बना कर मैदान में उतरे .
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)