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Wednesday, 20 November, 2024
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डोभाल जी, डरिए मत, गठबंधन की कमज़ोर सरकारों ने ज़्यादा मज़बूत फ़ैसले लिए

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इंदिरा से मोदी तक का सबक यह कहता है कि मज़बूत, ठोस बहुमत वाली सरकार नेताओं को लापरवाह, अहंकारी बना देती है और असहनीय व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देती है.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल ने बृहस्पतिवार को सरदार पटेल स्मृति व्याख्यानमाला में वक्तव्य दिया. उनके इस वक्तव्य की अनुचित आलोचना की जा रही है कि अगले दस वर्षों तक भारत को मज़बूत सत्ता वाली स्थिर, स्पष्ट बहुमत सरकार कि ज़रूरत है. इसे आपत्तिजनक नहीं माना जाना चाहिए. एनएसए कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं. उनकी नियुक्ति एक राजनीतिक नियुक्ति है और उन्हें अपनी राजनीतिक पसंद-नापसंद छिपाने कि ज़रूरत नहीं है. अगर वे एक कदम आगे बढ़कर यह कहते कि ऐसी शक्तिशाली और निर्णय-तत्पर सरकार केवल नरेंद्र मोदी ही दे सकते हैं, तो भी मैं उनसे लड़ने नहीं जाता.

मैं उनसे उनके राजनीतिक विचारों पर नहीं बल्कि उनके तर्कों कि बुनियाद को लेकर ज़रूर बहस करता. देश को केवल स्थिर, मज़बूत, पूर्ण बहुमत वाली सरकारें ही चाहिए; गठबंधन प्रायः अस्थिर, दिशाहीन, अनिश्चय से भरे, निर्णय-अक्षम, भ्रष्ट, और आसानी से ब्लैकमेल के शिकार होते हैं. उन्हें कसौटियों पर खरा नहीं माना जाता.

सबसे पहले हम अर्थव्यवस्था पर गौर करें, क्योंकि आंकड़े दल-निरपेक्ष होते हैं. हमारे राजनीतिक इतिहास को स्थिरता के दो दौरों में विभाजित किया जा सकता है. 1952 से 1980 तक के 37 वर्ष लगभग पूर्ण स्थिरता के रहे. सत्तर के दशक में अंत के कुछ वर्षों में एक-दो व्यवधान भले आए, लेकिन केंद्र तथा ज़्यादातर राज्यों में आम तौर पर एक ही दल का शासन रहा.


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ज़ाहिर तौर पर मंगलमय दिखने वाले इस दौर में हरेक गुज़रते दशक के साथ सरकारें ज़्यादा स्थिर, मज़बूत, एकदलीय होती गईं; और उन पर चुनौतीमुक्त गांधी परिवार का एकाधिकार रहा. और 1984-89 की लोकसभा में तो इस परिवार को लगभग 80 प्रतिशत तक का बहुमत हासिल हो गया. अगर स्थिर-मज़बूत-निर्णय-तत्पर सरकार के ‘डोभाल सिद्धान्त’ को सही माना जाए तो चार दशकों के उस दौर में देश की आर्थिक वृद्धि सबसे अच्छी होनी चाहिए थी. लेकिन असलियत यह है की उस दौर ने 4 प्रतिशत से भी नीची ‘हिंदू वृद्धि दर’ दर्ज़ कराई.

दूसरा दौर अस्थिरता का रहा, जो 1989 में राजीव गांधी की हार के साथ शुरू हुआ. यह दौर पूरे 25 साल यानी 2014 तक जारी रहा.

क्या यह महज एक संयोग था कि भारत में आर्थिक सुधार तब अपने चरम पर थे जब स्थिर, पूर्ण बहुमत वाली सरकारों का दौर खत्म हो गया? कांग्रेस के पतन के बाद पहली सरकार बनी वीपी सिंह की, जिसकी उम्र बहुत छोटी रही. यह कसौटी पर खरी नहीं उतरी. लेकिन सुधारों की पहली लहर, जिस पर भारत अभी भी सवार है, पीवी नरसिंहराव की सरकार ने पैदा की. यह बेहद कमज़ोर, अल्पमत वाली सरकार थी.

1996 में राव की हार के बाद भारत को कुल पांच प्रधानमंत्री मिले, जिन्होंने जर्जर गठबंधनों का नेतृत्व किया, और भारत को अगले आठ वर्षों में तीन चुनावों का सामना करना पड़ा. पांच प्रधानमंत्री इसलिये कहा क्योंकि देवेगौड़ा और आइके गुजराल की अल्पायु सरकारों के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार प्रधानमंत्री बने- पहले 13 दिन के लिए, फिर करीब एक साल के लिए, और अंततः पूरे कार्यकाल के लिए.

अब ज़रा विचार कीजिए कि 1991 में मनमोहन सिंह ने जो पहला सुधारवादी बजट पेश किया था उसके बाद दूसरा सबसे सुधारवादी बजट कौन सा था? यह 1997 में पी. चिदम्बरम द्वारा पेश ‘ड्रीम बजट’ था, जिसने दरों तथा करों में व्यापक कटौती की थी और आमदनी की स्वैच्छिक घोषणा योजना (वीडीआइएस) पेश की थी. इसी सरकार ने राष्ट्रीय विनिवेश आयोग का भी गठन किया और सरकारी कंपनियों (पीएसयू) की लिस्टिंग तथा अंततः निजीकरण का दरवाज़ा खोला.


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यह निरंतर डगमग गौड़ा-गुजराल जोड़तोड़ थी, जिसे हम दिहाड़ी वाली सरकार कहते थे. मज़े की बात तो यह थी कि यह हमारे इतिहास की सबसे वामपंथी झुकाव वाली सरकार थी. इसने अपनी शुरुआत केंद्रीय मंत्रिमंडल में सबसे पहली और अंतिम बार दो कम्युनिस्ट नेताओं- इंद्रजीत गुप्ता और चतुरानन मिश्र- को शामिल करके की थी.

वाजपेयी ने हाइवे का ‘स्वर्ण चतुर्भुज’ बनाने कि शुरुआत करने का माद्दा दिखाया, दिल्ली तथा मुंबई के हवाई अड्डों के निजीकरण की शुरुआत की, लाभ कमा रहे 11 पीएसयू और करीब दो दर्जन आइटीडीसी होटलों को बेचने का फैसला किया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि सर्वशक्तिमान मोदी के साढ़े चार साल के राज में एक भी कंपनी नहीं बेची गई है, यहां तक कि एअर इंडिया जैसी ठस्स कंपनी भी नहीं.

अस्थिरता के 15 वर्षों (1989-2004) के दौर में छोटी अवधि चंद्रशेखर सरकार की भी थी, जो केवल चार महीने चली और फिर केयरटकेर बन गई. हमलोग इसे ‘नकदी वाली’ सरकार कहकर मखौल उड़ाते थे. उनके अपने केवल 50 सांसद थे, और उनकी सरकार कांग्रेस के बाहरी समर्थन पर टिकी थी. फिर भी, इसने कर्ज़ भुगतान के लिए देश का सोना विदेश भेजने का दुस्साहस किया. मैं नहीं कह सकता कि पूर्ण बहुमत वाली कोई सरकार, यहां तक कि मोदी कि सरकार भी, ऐसी हिम्मत कर पाएगी या नहीं. चंद्रशेखर ने यशवंत सिन्हा को अपना वित्त मंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह को शक्तिशाली आर्थिक सलाहकार बनाया, जो मंत्रिमंडल की बैठकों में शामिल होते थे. ये दोनों बाद के वर्षों में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाते रहे, जबकि हालात ‘कमज़ोर’ ही थे.

ज़रा बुनियादी तुलनाओं पर गौर कीजिए- ठोस स्थायित्व के 37 वर्षों में वृद्धि दर 4 प्रतिशत से नीचे रही. बाद के 25 वर्षों में यह 6 प्रतिशत से ऊपर चली गई, और अब यह औसतन 7 प्रतिशत से ऊपर रहती है यानी पुरानी ‘हिंदू दर’ के लगभग दोगुनी.

औसत जीडीपी वृद्धि (% में)

अर्थव्यवस्था के मामले में वृद्धि का ग्राफ राजनीतिक स्थिरता के विपरीत अनुपात में दिखता है. लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का हाल क्या है? क्या गठबंधन की सरकार ठोस राष्ट्रहित की रक्षा में कम सक्षम नहीं होती?

मेरा मानना है कि 1989-90 कि वीपी सिंह कि सरकार को छोड़ दें तो भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर कभी कोई कमज़ोर सरकार नहीं मिली. डोभाल ने उस सरकार में भी काम किया था, और उसके गलत कदमों के कारण पंजाब तथा कश्मीर में हालत को बेकाबू होते देखकर परेशान भी हुए थे. बहरहाल, उन्हें जल्दी ही एक मौका मिला था.

मैं पहले भी लिख चुका हूं कि पंजाब में मारे गए सबसे खूंखार श्रेणी के हरेक खालिस्तानी आतंकवादी को ‘कॉट गिल, बोल्ड डोभाल’ कहा जा सकता है. खुफिया ब्यूरो और पंजाब पुलिस के तालमेल से चली शानदार मुहिम ने ही पंजाब में आतंकवाद का सफाया किया था. 1991-96 के उसी दौर में कश्मीर को भी अपने सबसे बुरे दौर से उबारा गया था. और ऐसा कोई नरम कदमों के कारण नहीं हुआ था. अगर यह डोभाल की प्रभावशाली ‘सीवी’ का सबसे प्रशंसनीय पहलू है, तो इसके लिए उन्हें उस कमज़ोर, अल्पमत सरकार को शुक्रिया कहना चाहिए जिसका नेतृत्व एकदम करिश्माविहीन प्रधानमंत्री ने किया था.

इन्दिरा गांधी जब अपने चरमोत्कर्ष पर थीं, तब भी पोकरण-1 विस्फोट को परमाणु अस्त्र परीक्षण बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थीं. उसे ‘शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण’ के तौर पर प्रस्तुत करने का ढोंग किया गया था. लेकिन 24 साल बाद वाजपेयी की ‘कमज़ोर’ गठबंधन सरकार ऐसी किसी हिचक में नहीं पड़ी. और, कितनी कमज़ोर थी वह सरकार? पोकरण-2 के 11 महीने के भीतर ही वह संसद में एक वोट से हारने के बाद कुर्सी गंवा बैठी थी.


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अब चूंकि मुझे तर्क का मसाला मिल गया है, मैं यों ही नहीं बात खत्म करूंगा। 1971 की लड़ाई के बाद के भारत में अगर पोकरण-2 सबसे साहसिक रणनीतिक फैसला था, तो दूसरा ऐसा फैसला क्या था? यूपीए-1 में मनमोहन सिंह ने भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर दस्तखत किया, जबकि उनका गठनबंधन वाम दलों पर निर्भर था. उन्होंने अपनी सरकार को संसद में वोटिंग के लिए दांव पर लगा दिया और भारत की वैश्विक रणनीतिक दृष्टि में बुनियादी बदलाव ला दिया. यूपीए-2 में भी उन्होंने मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के सवाल पर इसी तरह का जोखिम उठा लिया था. बाद में मोदी सरकार ने परमाणु संधि को बड़ा वरदान बताकर उसकी तारीफ की. लेकिन वह मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के मामले को आगे बढ़ाने में विफल रही है. यहां कोई सैद्धान्तिक प्रश्न नहीं जुड़ा है, क्योंकि ई-कॉमर्स के मामले में इस तरह की इजाज़त दी गई है. बात सिर्फ इतनी है कि बहुमत के बावजूद इस सरकार में जोखिम उठाने वाला सीना नहीं है.

अब इस बात की क्या व्याख्या हो सकती है कि अर्थव्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा और रणनीतिक मोर्चों पर पूर्ण बहुमत वाली हमारी अब तक की सभी सरकारों के मुक़ाबले अस्थिर गठबंधन सरकारों ने अधिक निर्णायक तथा साहसिक कदम उठाए?

हमारा देश कोई एक अरब खतरनाक सनकियों का देश नहीं है. यह एक जीवंत लोकतन्त्र है जिसे ज़िम्मेदार, मेहनती, और मोटी चमड़ी वाले नेतागण चला रहे हैं. वे सर्वगुणसंपन्न तो नहीं हैं लेकिन वे जानते हैं कि उनके लिए ठीक क्या है. वे चुनाव जीतना चाहते हैं, और एक बार सत्ता मिल गई तो उसे वे गंवाना नहीं चाहते. अगर अर्थव्यवस्था फलती-फूलती है तो अमन चैन रहता है, सुरक्षा का एहसास रहता है, और लोग खुश रहें तो उन्हें वे फिर सत्ता सौंप सकते हैं.

गठबंधन अस्थिर होता है लेकिन यह नेताओं को मजबूर करता है कि वे समझौते करें, अपने लिए जगह बनाने कि जुगत करें, दूसरों की सुनें, प्रतिभा के बड़े दायरे से लोगों को चुनें. मज़बूत, ठोस बहुमत वाली सरकार नेताओं को लापरवाह, उग्र बना देती है और असहनीय व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देती है. इंदिरा से राजीव और मोदी तक, हमारा राजनीतिक इतिहास यही सबक सिखाता है, भारत को गठबंधनों से डरने की ज़रूरत नहीं है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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