बिहार सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) सहित उनके 18 अन्य सहयोगी संगठनों पर नजर रखने का निर्देश जारी किया है. यह निर्देश 28 मई, 2019 को जारी हुआ. इसका मतलब यह भी हुआ कि नीतीश कुमार ने काफी सोच-विचार कर यह कदम उठाया है क्योंकि चुनाव परिणाम तो 23 मई को ही आ गए थे. नीतीश कुमार को मालूम रहा होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं.
आजकल बिहार विधानसभा का मानसून सत्र चल रहा है. राज्य में भाजपा और जेडीयू मिलकर सरकार चला रही हैं. लेकिन सदन में जब बीजेपी के मंत्री जवाब दे रहे होते हैं तो उनके जवाब पर सबसे ज्यादा हंगामा जेडीयू के विधायक करते हैं और बीजेपी को असहज बनाने की पूरी कोशिश करते हैं.
टूट की ओर बढ़ता गठबंधन और नेपथ्य में आरजेडी
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि बीजेपी ने ही नहीं, नीतीश कुमार ने भी तय कर लिया है कि वे अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ेंगे. बिहार में दोनों सत्ताधारी पार्टियां एक दूसरे के साथ शह और मात का खेल खेल रही हैं जबकि मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल कहीं सीन में दिखाई ही नहीं दे रहा है.
केंद्र में नई सरकार के बनने के बाद नीतीश कुमार ने पुराने एनडीए फार्मूले की दुहाई देते हुए पांच मंत्री पद (चार सांसद पर एक कैबिनेट या दो सांसद पर एक राज्य मंत्री) की मांग की, जिसे मोदी-शाह ने ठुकरा दिया. फिर नीतीश कुमार ने दिल्ली में ही यह घोषणा कर दिया कि उनकी पार्टी केंद्र सरकार में शामिल नहीं होगी. जब वह पटना लौटे तो वहां कह दिया कि पूरे पांच साल उनकी पार्टी इस सरकार में शामिल नहीं होगी.
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अगले कुछ दिनों ने उन्होंने राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो उसमें बीजेपी से कोई मंत्री नहीं बनाया. आज दोनों पार्टियां भले ही सरकार में शामिल हों, लेकिन आपसी सामंजस्य कहीं दिखाई नहीं दे रहा है. सवाल यह है कि क्या नीतीश सोच-समझकर इस तरह के फैसले ले रहे हैं? क्या उन्हें आभास हो गया है कि बीजेपी और उनके बीच का रिश्ता अंतिम सांसें गिन रहा है?
बीजेपी का गेम प्लान और आरजेडी की राजनीति
बीजेपी के हावभाव से भी ऐसा ही लगता है. बीजेपी ने राज्य ईकाई के अध्यक्ष नित्यानंद राय को रामकृपाल यादव की जगह राज्यमंत्री का दर्जा दिया है. नित्यानंद राय यादव हैं और उन्हें महत्व देकर बीजेपी यादव जाति को एक संदेश देने की कोशिश कर रही है. बीजेपी में चर्चा चल रही है कि नया अध्यक्ष किसी पिछड़े को बनाया जाएगा. उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता फागू चौहान को बिहार का नया राज्यपाल बनाया गया है, जो नोनिया जाति से आते हैं. ये समुदाय नीतीश कुमार का समर्थक माना जाता है. अर्थात बीजेपी एक साथ लालू और नीतीश के सामाजिक जनाधार में सेंध लगाने की पूरी कोशिश कर रही है.
दूसरी तरफ राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) घनघोर निराशा में फंसी हुई दिखाई दे रही है. जिस विधानसभा सत्र में दोनों सत्ताधारी पार्टियां पक्ष-विपक्ष का गेम खेल रही हैं, उसी सत्र से विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव पूरी तरह गायब हैं. मुजफ्फरपुर में दो सौ से अधिक गरीब बच्चे इंसेफेलाइटिस का इलाज न हो पाने के कारण मर गए, वहां भी तेजस्वी विरोध करते नहीं दिखे. उत्तर बिहार के तीन जिले- मधुबनी, सहरसा और सुपौल बाढ़ में तबाह हो गए, लेकिन तेजस्वी यादव विरोध पक्ष की भूमिका निभाते नजर नहीं आए.
इसलिए दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि अगर बीजेपी-जदयू का मौजूदा गठबंधन टूटता है तो नीतीश कुमार की ‘लाइफ लाइन’ क्या होगी और बीजेपी अकेले चुनाव लड़कर क्या हासिल कर पाएगी?
नीतीश कुमार का मुसलमानों पर दांव
नीतीश कुमार की पूरी कोशिश है कि मुसलमान वोट को अपने साथ ले जोड़ लें जो बिहार की आबादी का लगभग 17 फीसदी है. अति पिछड़ों का बड़ा हिस्सा जेडीयू के साथ जुड़ा हुआ है. जिस अवस्था में राजद पहुंच गया है उस अवस्था में मुसलमानों को एक वैसी पार्टी का सहारा चाहिए जो उसे आरएसएस-बीजेपी के कहर से बचा पाए या कम से कम उनसे लड़ती नजर आए. आरएसएस संगठनों की जांच करवाने की नीतीश कुमार की पहल को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए.
बिहार के मुसलमानों के साथ परेशानी यह है कि लालू यादव के परिवार में आपसी घमासान मचा हुआ है. सवाल है कि निराशा व परिवारिक कलह से जूझ रहे विपक्ष को ऑक्सीजन देकर भी मुसलमान क्या कर पाएंगे? लालू परिवार के ही तीन व्यक्ति – तेज प्रताप, मीसा भारती व राबड़ी देवी तेजस्वी यादव के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है. लालू यादव की अनुपस्थिति में, घर की समस्या सुलझने का नाम नहीं ले रही है. यह फैसला तो हो गया है कि अगले चुनाव में तेजस्वी पार्टी का नेतृत्व करेंगे, लेकिन घर के भीतर ‘सबसे बडा कौन’ का विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है, जबकि अगले साल ही बिहार विधानसभा का चुनाव है.
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लालू परिवार में आंतरिक फूट की वजह से मौजूदा परिस्थिति में मुसलमानों के पास नीतीश कुमार के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया लगता है. यह भी हो सकता है कि अगर नीतीश बीजेपी से अलग होते हैं तो कांग्रेस पार्टी राजद के साथ न जाकर जेडीयू के साथ गठबंधन में चली जाए क्योंकि यह बार-बार साबित हुआ है कि बिहार में लालू यादव राहुल गांधी की पहली पसंद नहीं हैं.
बिहार की राजनीति के लिए सबसे दुखद यह है कि मुसलमानों को नीतीश जैसा मौकापरस्त व अविश्वनीय नेता को अपनाना पड़ेगा. यह त्रासद होगा कि उन्हें लालू यादव जैसे विश्वसनीय सहयोगी को छोड़कर नीतीश कुमार जैसे नेता का दामन थामना पड़ सकता है, जो किसी भी वक्त फिर से बीजेपी से गले मिल सकते हैं. राज्य में यह परिस्थिति इसलिए पैदा हो रही है क्योंकि लालू के परिजनों को ये चाहत ही नहीं है कि आरजेडी मजबूत हो.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार है.यह लेख उनके निजी विचार हैं)