जो प्रेक्षक अभी तक विपक्ष के लस्त-पस्त, मुर्दा, गैर-हाजिर या सीन से बाहर होने अथवा राष्ट्रीय न रह जाने की बिना पर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा कहें या नरेंद्र मोदी की वापसी में कोई बाधा नहीं देख पा रहे थे, आने वाले दिन उनके लिए हैरानी भरे हो सकते हैं. इस लिहाज से कि विपक्ष न सिर्फ अपनी पीठ में लगी पराजयों की धूल झाड़कर अपने लिए नई संभावनाएं जगाने निकल पड़ा है, बल्कि अब तक असंभव बताई जा रही विपक्षी एकता को संभव करने में भी लग गया है.
फिलहाल, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (जिसके प्रतिद्वंद्वियों तो प्रतिद्वंद्वियों, दुर्दिन में साथ छोड़ गये गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं को भी उसके भविष्यहीनता के जंगल में गुम हो जाने की भविष्यवाणी करते संकोच नहीं हो रहा) राजधानी दिल्ली में बहुप्रचारित हल्ला बोल रैली के बाद कन्याकुमारी से 150 दिनों की 3570 किलोमीटर लंबी महत्वाकांक्षी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा पर निकल पड़ी है.
12 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों से होकर गुजरने वाली अपनी इस यात्रा से स्वाभाविक ही, उसे बहुत उम्मीदें हैं. अभी कहना मुश्किल है कि उसकी इससे जुड़ी उम्मीदें हरी हो पायेंगी या नहीं लेकिन यह बात तो उसके विरोधी भी स्वीकार रहे हैं कि इससे उसे ‘भटके हुए कारवां’ को मंजिल की जुस्तजू में होने में जरूर मदद मिलेगी.
दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ के नारे के बरक्स, कहना चाहिए, उसकी हवा निकालने की मंशा से, मेक इंडिया नंबर वन अभियान शुरू किया है. दिल्ली में, जहां वह सत्ता में है, किस तरह भाजपा का साम दाम दंड या भेद कुछ भी नहीं चलने दे रही.
तिस पर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बीते जुलाई में बिहार जाकर भविष्य में महज भाजपा की राह और सारे क्षेत्रीय दलों के नष्ट हो जाने की भविष्यवाणी क्या की, कई राज्यों में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका निभा रहे क्षेत्रीय दल उसके विरुद्ध नये सिरे से सतर्क हो उठे हैं.
जबकि अकाली दल और शिवसेना के बाद जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के भी साथ छोड़ जाने से भाजपा का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त जिसे गठित करने के बाद ही वह केंद्र की सत्ता का स्वाद चख पाई थी) अब नाम मात्र का ही रह गया है और उसके बचे-खुचे गैर-भाजपा घटक दल भी जेपी नड्डा की भविष्यवाणी से कुछ कम नहीं चौंके हुए हैं. क्योंकि यह बात अब उनके समक्ष दिन के उजाले की तरह साफ हो गई है कि भाजपा कई राज्यों में राजग के घटक क्षेत्रीय दलों को हजम या कमजोर कर चुकी है.
यह और बात है कि अब अन्नाद्रमुक को छोड़ दें तो राजग के घटक क्षेत्रीय दलों में किसी के पास भी कोई उल्लेखनीय जनाधार नहीं है. भाजपा उनकी कीमत पर अपने हिस्से आए विस्तार की आड़ में गठबंधन की इस कमजोरी की कितनी भी परदेदारी करे, छिपा नहीं पाती कि इससे उसकी राष्ट्रीय अपील भी घटी है और स्वीकार्यता भी.
निस्संदेह, यह बात उसके विपक्ष के पक्ष में जाती है, जो अब यह मानकर जनता से सीधे संवाद की राह पर है कि नरेंद्र मोदी सरकार की ‘अलोकतांत्रिक दबंगई’ ने कोई और रास्ता नहीं रहने दिया है.
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विपक्षी एकता पर बल देते नीतीश कुमार
विपक्षी एकता के मुद्दे पर जायें तो बीते दिनों इस एकता के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की कोशिशें चर्चा में थीं और अब, जब वे पटना जाकर बिहार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से मिल आये हैं, तो नीतीश कुमार की कोशिशों से माहौल गरमाया हुआ है.
अच्छी बात यह है कि नीतीश की कोशिशों के अंतर्विरोध के. चंद्रशेखर राव की कोशिशों के मुकाबले बहुत कम हैं. मिसाल के तौर पर राव इस जमीनी हकीकत की उपेक्षा करते आये हैं कि आज की तारीख में कांग्रेस को अलग रखकर विपक्षी एकता की कोई सार्थकता नहीं है. लेकिन नीतीश ने पिछले दिनों राजग छोड़ा तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को फोन किया और विपक्ष की एकता की कोशिश करने दिल्ली गये तो भी राहुल गांधी से भेंट को सर्वाधिक तवज्जो दी.
नीतीश ने यह साफ करने से भी परहेज नहीं किया कि उन्हें प्रधानमंत्री पद की कोई लालसा नहीं है. उनका यह कदम इस अर्थ में जरूरी था कि कई महानुभाव ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ यह सुझाकर विपक्षी एकता की उनकी कोशिशों को पलीता लगाने के फेर में थे कि कांग्रेस उनको ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके लोकसभा चुनाव लड़े. नीतीश इनके चक्कर में पड़ जाते तो निस्संदेह उनके विपक्षी एकता के प्रयत्नों के भ्रूण की उसके जन्म से पहले ही हत्या हो जाती.
बहरहाल, नीतीश इसको लेकर खुद को बेहद आश्वस्त दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि विपक्ष को एकजुट कर देश के शासन का जो वैकल्पिक मॉडल वे बना रहे हैं, उसके तहत 2024 में केंद्र से भाजपा व नरेंद्र मोदी की विदाई तय है. पटना में तो वे यह तक कह चुके हैं कि भाजपा पचास सीटों पर सिमट जायेगी. कह सकते हैं कि यह उनके द्वारा अपनी पांतों में उत्साह भरने की कोशिश का हिस्सा है. लेकिन यह नहीं कह सकते कि उन्हें विपक्षी एकता के रास्ते की चुनौतियों का भान ही नहीं है. भान है तभी तो वे विपक्षी नेताओं से मुलाकातों में सायास अपने पूर्वाग्रहों का पता देने से बच रहे हैं.
ये पंक्तियां लिखने तक वे राहुल गांधी, अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव से तो मिले ही हैं, सीताराम येचुरी, डी. राजा, शरद पवार और अरविंद केजरीवाल से भी मिले हैं. इस क्रम में ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, उद्धव ठाकरे और मायावती वगैरह से भी मिल लें तो उनकी कोशिशों की ईमानदारी को लेकर किये जा रहे संदेह कम हो जायेंगे. यों, उनकी एकता की कोशिशों के रास्ते में सबसे ज्यादा बाधाएं उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में ही हैं.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की पुरानी ग्रंथियों के कारण को एक पाले में लाना मुश्किल काम है तो पश्चिम बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और वामपंथी मोर्चे को. यों, गत राष्ट्रपति चुनाव में टीएमसी और वामदल एक खेमे में रहकर वोट दे चुके हैं और ममता इन दिनों घपले-घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिर गई हैं.
इसलिए संभव है कि व्यापक विपक्षी एकता के लिए थोड़ा तर्कसंगत रवैया अपनाएं लेकिन अभी हाल तक उनकी महत्वाकांक्षा खुद अपनी पार्टी को कांग्रेस की जगह दिलाने की थी. अपने प्रभाव क्षेत्र में वे इसके लिए कांग्रेस में भारी तोड़-फोड़ पर भी आमादा थीं.
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क्या खुद की राह में बाधा हैं नीतीश कुमार
दूसरे पहलू पर जायें तो नीतीश की विपक्षी एकता की कोशिशों की एक बड़ी बाधा खुद वही हैं. दरअसल, अपनी लंबी राजनीतिक पारी में वे इतनी बार पाले बदल चुके हैं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो चुकी है. यही कारण है कि उनकी लाख सफाई के बावजूद कई प्रेक्षकों की निगाह में वे अपने लिए किंग न सही किंग मेकर की भूमिका तो तलाश ही रहे हैं.
किंग मेकर की विपक्ष को इन दिनों जरूरत भी बहुत है. लेकिन कहते हैं कि नीतीश यह साबित करने के फेर में भी हैं कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच एकमात्र पुल वही हैं यानी कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के विस्तार के लिए उसके संयोजक पद के सर्वथा योग्य.
गौरतलब है कि इससे पहले शरद पवार इस पद को ठुकरा चुके हैं. अकारण नहीं कि कई हलकों में सवाल उठाया जा रहा है कि नीतीश कुमार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के जार्ज फर्नांडीज बनना चाहते हैं या राष्ट्रीय मोर्चे के विश्वनाथ प्रताप सिंह?
इस स्थिति से पार पाकर वे पूरी तरह विश्वसनीय बन जायें तो भी इस सवाल का सामना करने से नहीं बच सकते कि उनकी अभीष्ट विपक्षी एकता सांप्रदायिक व धार्मिक ध्रुवीकरण पर आधारित भाजपा व मोदी के वर्चस्व से भयभीत पार्टियों के दलीय स्वार्थों पर आधारित होगी या वैकल्पिक नीतियों व सिद्धांतों पर?
नीति व सिद्धांत आधारित होकर भी वह देशवासियों की विश्वासपात्र तभी बन सकेगी, जब उन्हें विश्वास दिला सके कि वह अतीत की विपक्षी एकताओं जैसी नहीं है और न ही उसमें प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर ‘ऊपर से तो दिल मिला भीतर फांकें तीन ’ जैसी स्थिति है.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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