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Friday, 15 November, 2024
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नीतीश कुमार की धार कुंद जरूर पड़ी है लेकिन BJP को अभी से ही जश्न नहीं मनाना चाहिए

मोदी और अमित शाह से लेकर खुली जीप में सवार होकर आए जेपी नड्डा तक सभी पिछले सप्ताह बिहार में जीत का जश्न मनाने के लिए भाजपा मुख्यालय पहुंचे थे. क्या जदयू की बजाये भाजपा का वर्चस्व कायम होने का समय आ गया है?

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अगर आप पिछले बुधवार की शाम नई दिल्ली स्थित दीनदयाल उपाध्याय मार्ग से गुजरे होते, तो आपको यही लगता कि या तो भारत ने कोविड-19 का इलाज खोज लिया है या फिर पूर्वी लद्दाख में तैनात चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने आत्मसमर्पण कर दिया है. भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में कुछ इसी अंदाज में जश्न मनाया जा रहा था.

बात दरअसल, यह थी कि पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी जीत का जश्न मना रही थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत भाजपा के सभी शीर्ष नेता वहां मौजूद थे. भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा तो खुली जीप में खड़े होकर भीड़ का अभिवादन करते हुए पहुंचे. वह आखिरकार अमित शाह की छाया से बाहर निकल आए हैं. उन्होंने अपने पूर्ववर्ती के नेतृत्व में विधानसभा चुनावों में पार्टी की एक के बाद एक हार का सिलसिला तोड़ दिया है. रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने शाह के उत्तराधिकारी को संगठन में ‘नई ऊर्जा’ भरने का श्रेय दिया.

एक सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहने के साथ विधानसभा चुनाव में जीत का जश्न इतने बड़े पैमाने पर मनाए जाने ने हालांकि कुछ लोगों को अचरज में भी डाल दिया. क्या यह कोविड-19 पर केंद्र के प्रबंधन पर एक जनादेश के रूप में सामने आया है और अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों से निपटने को लेकर उसे शाबासी देने वाला नतीजा है? संभवत: नहीं, क्योंकि इस बिहार चुनाव में तो ये मुद्दे ही नहीं थे. अगर आर्थिक संकट एक मुद्दा था भी, तो सारे सवालों के घेरे में नीतीश कुमार थे. तो क्या यह प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता कायम रहने का जश्न था? लेकिन वह तो कभी संदेह के घेरे में रही ही नहीं, उन राज्यों में भी नहीं जहां भाजपा चुनाव हार गई थी.

भाजपा मुख्यालय में जबर्दस्त उत्साह का सबसे बड़ा कारण था पार्टी का प्रदर्शन—19.46 प्रतिशत मतों के साथ 74 सीटों पर जीत हासिल करना. लेकिन, इससे पहले भी जब 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और नीतीश की जदयू ने साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा था, भाजपा ने 16.49 प्रतिशत मतों के साथ 91 सीटें जीती थीं. इसलिए नई विधानसभा में सीटों की संख्या भी सही मायने में भाजपा मुख्यालय में जबर्दस्त उत्साह की वजह नहीं मानी जा सकती. असल में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने तो विधानसभा में (75 सीटें हासिल करके) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने की भाजपा कोशिश नाकाम कर दी है. 2010 से 2020 के बीच वोट शेयर में तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी भी इस जश्न का कारण नहीं हो सकती.

2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 24.4 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, जो सभी दलों के बीच सबसे ज्यादा वोट शेयर था.

तो फिर बुधवार के इस जश्न की असली वजह क्या हो सकती है? निश्चित तौर पर, दिल्ली में चुनावी हार के बाद बिहार में मिली यह सफलता काफी मायने रखती है और अगले चार-पांच महीनों में पश्चिम बंगाल और असम में होने वाले में चुनावों से ऐन पहले भाजपा का मनोबल बढ़ाने और गति प्रदान करने वाली है. लेकिन भाजपा नेताओं के उत्साह का असली कारण, जिस पर वह कुछ बोलेंगे नहीं, यह है कि आखिरकार वे नीतीश कुमार से बेहतर स्थिति में आ गए हैं और बिहार में ड्राइविंग सीट पर हैं. भाजपा अब बिहार में जदयू के साथ या उसके बिना अपना वर्चस्व स्थापित करने के बारे में सोच सकती है.

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नीतीश कुमार कच्चे खिलाड़ी नहीं

भाजपा खेमे में जश्न के एक दिन बाद गुरुवार को नीतीश कुमार पटना में पत्रकारों से बातचीत करने आए और स्पष्ट किया कि 2020 का चुनाव आखिरी होने संबंधी उनकी टिप्पणी का गलत मतलब निकाला गया था. बिहार में चुनाव प्रचार के आखिरी दिन पूर्णिया में एक रैली को संबोधित करते हुए कुमार ने कहा था, ‘यह मेरा आखिरी चुनाव है. अंत भला तो सब भला. लेकिन गुरुवार को उन्होंने दावा किया कि वह हर बार चुनाव प्रचार के दौरान अपनी आखिरी रैली में यह टिप्पणी करते हैं. यह बात अलग है कि एक हफ्ते पहले एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति ने यह बताने में गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी कि कैसे मुख्यमंत्री ने संन्यास की घोषणा कर दी है.

नीतीश कुमार की नई मंत्रिपरिषद में निश्चित तौर पर भाजपा के ज्यादा मंत्री होने की पूरी संभावना है और उसकी तरफ से शासन में अपना दबदबा बढ़ाने की मांग भी उठाई जा सकती है. लेकिन देखने वाली बात यह होगी कि क्या भाजपा विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए जोर देती है. यह इसका पहला संकेतक होगा कि भाजपा बिहार में कैसे आगे बढ़ने की योजना बना रही है. नीतीश कुमार के पास 69 विधायक होने को देखते हुए जदयू के कई विधायक ज्यादा संभावनाओं वाली और साधन संपन्न पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा बदलने में कोई गुरेज नहीं कर सकते और ऐसे मामलों में स्पीकर की भूमिका बेहद अहम होगी.

एक अन्य संकेतक यह होगा कि क्या भाजपा के सुशील कुमार मोदी उपमुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे. नीतीश और मोदी ने 1970 के दशक में छात्र आंदोलन में अपनी भागीदारी से लेकर अब तक एक लंबा सफर साथ-साथ तय किया है—और राजनीतिक और वैचारिक भिन्नता के बावजूद इन्हें बिहार के एनडीए शासन में राम-लक्ष्मण के रूप में जाना जाता है. उपमुख्यमंत्री पद को लेकर भाजपा आलाकमान की पसंद ही यह बताएगी कि क्या भगवा पार्टी पहले दिन से मुख्यमंत्री पर नकेल कसने का इरादा रखती है या फिर समय के साथ दबाव बढ़ाएगी. संकेत तो यही बताते हैं कि भाजपा का इरादा पहले दिन से ही नीतीश कुमार पर दबाव कायम करने का है.

बहरहाल, नीतीश कुमार भी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं. जब तक सत्ता की कमान उनके हाथ में है, वह एक महत्वाकांक्षी भाजपा की छोटी-मोटी तिकड़मबाजी से विचलित होने वाले नहीं हैं. लेकिन भाजपा नेताओं को यह अच्छी तरह पता होना चाहिए कि वह नीतीश ही हैं जिनके हाथ में सारे पत्ते हैं. यदि दबाव जरूरत से ज्यादा बढ़ा तो 2015 की पुनरावृत्ति का विकल्प हमेशा खुला होगा. राजद नीतीश के खिलाफ हो सकता है लेकिन भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए कांग्रेस और उसके सहयोगी किसी भी हद तक जा सकते हैं.

भाजपा नेता इस बात को जानते हैं और नीतीश कुमार को भी यह स्थिति रास आ रही होगी—जिसमें उनके दोनों हाथों में लड्डू है. यदि सत्ता के मामले में छोड़ दें तो लोहिया के नाम पर सियासी राह में आगे बढ़े एक समाजवादी नीतीश कुमार को अपनी मजबूत वैचारिक दृढ़ता के लिए जाना जाता है. अगर कुर्सी पर कोई आंच आती है तो नीतीश अपने वैचारिक जुड़ाव को ध्यान में रखकर दूसरे खेमे का समर्थन हासिल करने और उसे जायज ठहराने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दे सकते हैं. इसलिए भाजपा फिलहाल बिहार में अगला कोई बड़ा कदम उठाने की जल्दबाजी नहीं दिखाएगी—खासकर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने तक तो कतई नहीं.

सत्ता के मौजूदा खेल में केवल बिहार के लोग नुकसान में

बिहार के सभी प्रमुख राजनेता इस चुनाव में अपनी सफलता का दावा कर सकते हैं—राजद के तेजस्वी यादव खुद को एक मजबूत नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए, जिनके लिए यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई था; लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के चिराग पासवान नीतीश कुमार को क्षति पहुंचाने के लिए; मुख्यमंत्री इस पद पर एक और कार्यकाल हासिल करने के लिए; और भाजपा नेता नीतीश का कद घटाने और अब भी उनके साथ सत्ता साझा करने के लिए. जीतनराम मांझी (हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा) और मुकेश सहनी (विकासशील इंसान पार्टी) जैसे छोटे खिलाड़ी चार-चार सीटें जीतकर किंगमेकर की भूमिका में आ गए हैं. दोनों में से कोई भी अलग होकर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को अल्पमत में ला सकता है.

इसलिए, आने वाले महीने और साल बिहार में सत्ता के खेल, अहम की लड़ाई और राजनीतिक अस्थिरता के गवाह बन सकते हैं. नीतीश कुमार संभवत: इन सब चीजों से जूझते रहेंगे. यह देखते हुए कि उन्होंने अपने मौजूदा कार्यकाल में शासन के मामलों में बहुत ज्यादा तत्परता नहीं दिखाई, कुछ लोगों को उम्मीद है अपने संभवत: अंतिम कार्यकाल में वह कुछ बेहतर करेंगे जिसमें सत्ता बचाए रखना मुख्य एजेंडा होगा.

राज्य सरकार के एक वरिष्ठ पदाधिकारी, जो कुमार को ‘मौजूदा लोगों में सबसे बेहतरीन’ मानते हैं, ने अपनी हताशा और मजबूरियों को मेरे सामने रखा, ‘हम घूम-फिरकर पहले वाली स्थिति में पहुंच गए हैं. मुफ्त उपहार वितरित करना, हर स्तर पर भ्रष्टाचार, और दीर्घकालिक सतत विकास के लिए जरूरी निवेश के उद्देश्य से किसी योजना या दृष्टिकोण का अभाव…इमारतें बनाते रहिए…ठेकेदार खुश, पार्टी खुश, इंजीनियर खुश. उसमें पढ़ाई नहीं होगी लेकिन यह बात मायने ही नहीं रखती. मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर नहीं होंगे…कोई फर्क नहीं पड़ता…आईटीआई, पॉलीटेक्निक में प्रशिक्षक नहीं हैं…पर बिल्डिंग तो हर जगह बन गई है ना. यही इस राज्य की नियति है….हमारी नियति खेत मजदूर, निर्माण मजदूर, टैक्सी ड्राइवर, सुरक्षा गार्ड, लिफ्टमैन पैदा करना ही है.

भले ही वह काफी निराशावादी लग रहे हों लेकिन शायद वह नीतीश कुमार के पिछले सात-आठ वर्षों के ट्रैक रिकॉर्ड के संदर्भ में बात कर रहे हैं. जैसा हमारी सहयोगी रेम्या नैयर ने बताया है उनकी उपलब्धियों के कुछ बिंदु यह तस्वीर सामने रखते हैं…

नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों से पता चला है कि बिहार की बेरोजगारी दर पिछले साल की 7.2 फीसदी की तुलना में बढ़कर 2018-19 में 10.2 फीसदी हो गई.

बिहार में 2018-19 में 15-29 वर्ष के आयु वर्ग में बेरोजगारी दर सबसे अधिक 30.9 प्रतिशत थी, जबकि एक साल पहले यह 22.8 प्रतिशत थी.

केयर रेटिंग्स का अनुमान है कि बिहार की प्रति व्यक्ति जीएसडीपी 2019-20 में 46,664 रुपये रही, जो राष्ट्रीय औसत 1,34,226 रुपये का मात्र 35 प्रतिशत थी.

केयर रेटिंग रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि भारत के कारखानों में बिहार की हिस्सेदारी बेहद कम है. 2017-18 तक यह आंकड़ा केवल 1.5 प्रतिशत था.

अगर बिहार में आर्थिक मामलों में यह स्थिति तब रही जब नीतीश कुमार पूरे दबदबे के साथ सरकार चला रहे थे तो अगले पांच वर्षों में बिहार का भाग्य बदलने की उम्मीद करना तो बेमानी ही होगा, जब एक कमजोर मुख्यमंत्री के हाथ में कमान होगी, जिसे अपना कार्यकाल पूरा करने के लिए ही शत्रुवत मित्रों से निपटना होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(व्यक्त विचार निजी हैं)


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