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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतआखिरकार नीतीश के लिए JDU का लालू प्रसाद यादव की RJD में विलय ही आखिरी विकल्प क्यों है

आखिरकार नीतीश के लिए JDU का लालू प्रसाद यादव की RJD में विलय ही आखिरी विकल्प क्यों है

तेजस्वी यादव के बारे में लोगों ने जितना सोचा था, वह उससे कहीं अधिक सयाने राजनेता बन गए हैं. राजद के प्रस्ताव से ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार शायद इससे वाकिफ हैं.

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‘अरे छोड़िये!’, नीतीश कुमार ने इस टिप्पणी के साथ ही अपने पूर्व सहयोगी आर.सी.पी सिंह के उस बयान पर पूछे गए सवालों को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि जनता दल (यूनाइटेड) और लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का विलय होगा.

बिहार के सीएम की तरफ से ऐसी प्रतिक्रिया आम बात है. वह अक्सर अपने अगले कदम के बारे में किसी भी कयास को इसी तरह पूरी शिद्दत से खारिज कर देते हैं—शायद इसलिए भी कि जब तक वह कोई कदम नहीं उठाते तब तक खुद उस पर अटकलों को हवा नहीं दे सकते. 1994 में जब उन्होंने लालू यादव से नाता तोड़ा तब किसी ने सोचा था कि दो दशक बाद वह फिर से उनके साथ होंगे? इसके बाद जब 2015 में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उन्हें साथ लेकर आए तब किसे पता था कि नीतीश दो साल बाद लालू से फिर अलग हो जाएंगे—और वह भी नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाने के लिए, जिनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी भारतीय जनता पार्टी के साथ उनका 17 साल पुराना गठजोड़ टूटने की वजह थी? और 2017 में भी, कौन अनुमान लगा सकता था कि वह पांच साल बाद फिर लालू के साथ होंगे?

तो, इसे छोड़ ही दीजिए! आने वाले महीनों में वह क्या करने वाले हैं, इसका अंदाजा शायद खुद नीतीश कुमार भी नहीं लगा सकते. लेकिन ऐसा लगता है कि लालू और तेजस्वी यादव को पता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले वे क्या करना चाहते हैं.

लालू और तेजस्वी की रणनीति का संकेत पिछले सोमवार को दिल्ली में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पारित प्रस्ताव से मिलता है. इसमें कहा गया है कि राजद का नाम, उसका चुनाव चिह्न बदलने और उससे जुड़े मुद्दों पर अंतिम फैसला लालू यादव या तेजस्वी यादव करेंगे.


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 तेजश्वी यादव का उदय

इस प्रस्ताव ने तो राजद नेताओं को भी हैरानी में डाल दिया. आखिर इस रिजोल्यूशन की जरूरत क्या थी? और इसके पीछे संदर्भ और उद्देश्य! यही वजह है कि जदयू-राजद विलय को लेकर अटकलें एक बार फिर तेज हो गईं. वैसे यह कोई नई बात नहीं है. इससे पहले, मुलायम सिंह यादव भी जनता दल के टूटकर बने गुटों को साथ लाने के प्रयास कर चुके हैं. लालू यादव 2015 में जब नीतीश कुमार को सीएम पद के उम्मीदवार के तौर स्वीकारने को तैयार नहीं दिख रहे थे, तब वो जनता दल घटकों को साथ लाने की महत्वाकांक्षा पाले रहे मुलायम ही थे जिन्होंने उन्हें इसके लिए राजी किया. अब समाजवादी पार्टी नेता इस दुनिया में नहीं हैं तो इस कवायद को आगे बढ़ाने वाली किसी बड़ी ताकत का भी अभाव हो गया है.

लेकिन लालू और तेजस्वी इसे आगे बढ़ाने के इच्छुक नजर आ रहे हैं, हालांकि थोड़े कम तामझाम के साथ, जैसा राजद के प्रस्ताव से स्पष्ट है. उनके पास कारण भी हैं. वैसे भी, इस व्यापक उद्देश्य के बिना तेजस्वी के लिए नीतीश कुमार के साथ फिर गठबंधन का कोई मतलब नहीं था, जिन्होंने 2017 में राजद से किनारा करने और भाजपा के साथ फिर गठबंधन के लिए उस समय अपने डिप्टी रहे तेजस्वी के खिलाफ सीबीआई के एफआईआर को अपना हथियार बनाया था. तेजस्वी क्यों चाहेंगे कि नीतीश उन्हें फिर से इस्तेमाल कर पाएं? आखिरकार, यह युवा राजद नेता पिछले पांच सालों में सियासत की राह में काफी आगे आ चुका है. पिछले विधानसभा चुनाव में युवाओं को अपने साथ जोड़ने और अपने पिता के मुस्लिम-यादव समीकरण को भुनाने में काफी हद तक सफल भी रहे. वह यकीनन आज बिहार में सबसे लोकप्रिय नेता हैं, और नीतीश कुमार के साथ छोड़ने के बाद भाजपा के पास पूरे बिहार में जनाधार वाला कोई चेहरा भी नहीं है.

नीतीश जब भाजपा के साथ और उनके रिश्ते दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे थे, तेजस्वी उनके रास्ते अलग होने का इंतजार कर सकते थे. लेकिन वह लोगों की सोच से ज्यादा चतुर राजनेता बनकर उभरे हैं. आखिरकार, जदयू-भाजपा के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर का जोखिम मोल लेकर और 2020 के अपने मुख्य जनाधार को दांव पर लगाकर वह फिर डिप्टी सीएम क्यों बने होंगे? और राजद ने क्यों अपने दो मंत्रियों—कार्तिक कुमार और सुधाकर सिंह—की बलि दी, जबकि नीतीश कुमार खुद बैकफुट पर हैं?

अपने बलबूते ही एक लोकप्रिय, सशक्त नेता के तौर पर उभरने के बाद तेजस्वी आखिर नीतीश के बाद नंबर दो की भूमिका निभाने और अपने और अपने दल के दीर्घकालिक हितों से समझौता करने को क्यों तैयार हुए होंगे? यही सवाल हमें राजद के प्रस्ताव और कभी नीतीश कुमार के विश्वस्त सहयोग रहे आरसीपी सिंह जदयू-राजद विलय संबंधी बयान के बारे में सोचने को विवश करता है.

लालू की पार्टी में विलय शत्रुतापूर्ण टेकओवर’ से बचने का एकमात्र विकल्प

लालू-तेजस्वी अच्छी तरह जानते हैं कि मजबूरी ने नीतीश कुमार को उनके पास लौटने को बाध्य किया है. भाजपा उन्हें राजनीतिक तौर पर खत्म करने की जुगत में लगी थी. मोदी की पार्टी बिहार में कब तक नीतीश कुमार के आगे छोटा भाई बनी रहती? वह 2010 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को नीचा दिखाने वाले नीतीश कुमार के दिए घाव—पहले पटना में भाजपा नेताओं के लिए रात्रिभोज रद्द करना और फिर गुजरात की तरफ से पांच करोड़ रुपये की बाढ़ राहत राशि अस्वीकारना—कब तक सह सकती थी? इसीलिए, 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 243 सदस्यीय विधानसभा में जदयू का आंकड़ा 43 पर सिमटा देने के लिए मोदी के स्वयंभू ‘हनुमान’ चिराग पासवान का इस्तेमाल किया. भाजपा अब गठबंधन में बड़ा भाई बन चुकी थी और भाजपा नेताओं ने नीतीश को हर दिन इसका एहसास कराया, जैसे कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर उनकी सरकार पर ताने कसे और उनकी आलोचना की.

पिछले विधानसभा चुनाव ने यह भी दिखाया कि नीतीश की खुद की पुरानी छाया ही बिहार में उन पर भारी पड़ी. तार्किक आधार पर ‘बड़े भाई’ का अगला कदम—जैसा उसका ट्रैक रिकॉर्ड भी है—यही होना था कि वह सियासी तौर पर खुद पर भारी पड़ते रहे नीतीश कुमार को किसी भी तरह से किनारे लगा दे. जब शिवसेना के 56 में से 40 विधायक अपनी पार्टी से टूट सकते हैं तो यहां तो जदयू के पास कुल 45 विधायक ही बचे थे और नीतीश की हैसियत घटने के साथ वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित भी थे. भाजपा के लिए सवाल बस यही था कि समय क्या चुना जाए—अगले लोकसभा चुनाव से पहले का या बाद का?

बहरहाल, जब भी ऐसा होता नीतीश के पास कुछ नहीं बचता—नजर आते तो बस दूर हो चुके सहयोगी, खत्म जनाधार और एक अंधकारमय भविष्य. यहां तक कि अगर वह एक बार पूरा दमखम लगाकर आखिरी लड़ाई लड़ने की सोचते भी तो उन्हें भाजपा से लेकर राजद, चिराग पासवान और न जाने किस-किस सियासी दुश्मन का मुकाबला करना पड़ता, जिसके आगे टिक पाना आसान नहीं होता. ऐसी परिस्थितियों में नीतीश कुमार के लिए आगे की सियासी राह हर दिन जीवन-मरण का सवाल बन जाती. उनकी स्थिति किस कदर कमजोर हो जाती, यह बात वह भलीभांति समझ गए होंगे.

ऐसे में लालू यादव और तेजस्वी शायद उन्हें अधिक सुरक्षित नजर आए होंगे. लेकिन उन्हें तो इस सौदे में इस सबसे ज्यादा बड़ा ही कुछ चाहिए. यदि नीतीश अपनी पार्टी के राजद में विलय पर सहमत हो जाते हैं, तो तेजस्वी के नेतृत्व वाला एकीकृत संगठन बिहार में एक मजबूत ताकत बनकर उभर सकता है. बदले में यादव पिता-पुत्र अपनी पूरी ताकत नीतीश की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लगा देंगे. ऐसे में भले ही मोदी की भाजपा 2024 में अपनी सत्ता बरकरार रखे, नीतीश कुमार राजद—या फिर नए संगठन का नाम जो भी नाम रखा जाए—उसका राष्ट्रीय चेहरा बन सकते हैं और तेजस्वी को भी एक साल या उससे अधिक समय के लिए सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिल सकता है. लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों की राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी के तौर पर तेजस्वी आगे लंबे समय के लिए बिहार की एक मजबूत सियासी ताकत बन सकते हैं. नीतीश कुमार को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी. वैसे भी उन्हें पता होना चाहिए कि भाजपा के साथ या उसके बिना किसी भी तरह से वह अपना मौजूदा कार्यकाल पूरा नहीं कर सकते थे. लेकिन लालू और तेजस्वी के साथ सही सामंजस्य बैठाकर वह राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर अपनी प्रासंगिकता बनी रहने की उम्मीद जरूर कर सकते हैं.

यदि नीतीश कुमार किसी अन्य विकल्प पर विचार करते हैं तो उन्हें कई दलों की तरफ से ‘शत्रुतापूर्ण टेकओवर’ की कोशिशें झेलने के लिए तैयार होना चाहिए. वैसे वह काफी होशियार खिलाड़ी हैं. कोई अचरज की बात नहीं होगी अगर नीतीश कुमार को राजद का राजनीतिक प्रस्ताव पेश होने के पहले से ही उसके बारे में पता हो.

डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. @dksingh73 हैंडल से ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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