भारतीय जनता पार्टी की 2019 की शानदार चुनावी सफलता, भले ही अप्रत्याशित रही हो, पर वह भारतीय राजनीति में आए एक वैचारिक परिवर्तन का परिणाम थी. भाजपा की जीत में लोकसभा 2019 चुनावों के तात्कालिक संदर्भ की भूमिका ज़रूर थी, लेकिन गहन संरचनात्मक बदलाव कहीं अधिक अहम साबित हुए. मध्य वर्ग के विस्तार और धार्मिक हिंदू राष्ट्रवाद से इतर एक नए प्रकार के जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद ने भाजपा से मुख्यतया हिंदी पट्टी तक सीमित ऊंची जाति वालों की पार्टी के ठप्पे को हटाने में मदद की.
भाजपा विपक्षी दलों पर अल्पसंख्यकों (यानि मुस्लिम) तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप लगाती है, और खुद के सबके के साथ समान व्यवहार के सिद्धांत पर चलने का दावा करती है. भाजपा ने हमेशा ज़ोर देकर कहा है कि वह सबका विकास और किसी का तुष्टिकरण नहीं करने पर यकीन करती है. यह रणनीति भाजपा के लिए उन हिंदुओं का समर्थन हासिल करने में मददगार साबित हुई, जिनका मानना है कि भाजपा से पहले भारतीय लोकतंत्र अल्पसंख्यकों का पक्षधर था. आश्चर्य नहीं कि भाजपा के इस रवैये को, खासकर ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति, पूर्वाग्रह से ग्रसित करार दिया जा सकता है.
2019 की जीत के अल्पकालिक कारक
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, भाजपा की संगठनात्मक बढ़त, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे और मोदी सरकार की गरीबों की सुध लेने वाली छवि जैसे अल्पकालिक कारक, भाजपा के पक्ष में दीर्घकालिक वैचारिक सुदृढ़ीकरण के हमारे मुख्य तर्क से जुड़े हुए हैं.
इसी तरह, पिछले दो दशकों के दौरान भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों को बढ़चढ़ कर अपनाती रही है, जोकि पार्टी की विचारधारा में फिट भी बैठते हैं. इन कारकों, और साथ ही अधिकाधिक मतदाताओं तक ‘सीधी’ पहुंच के लिए भाजपा द्वारा सोशल मीडिया के इस्तेमाल और कल्याणकारी योजनाओं के फायदों को परिवारों और पार्टी के बीच की कड़ी साबित करने में इसकी सफलता से भारतीय राजनीति के वैचारिक धरातल में बदलाव उजागर होता है.
2014 और 2019 की सफलताओं के दीर्घकालिक कारक
भाजपा की वैचारिक और चुनावी सफलता
सबसे पहले, औसत मतदाता की वैचारिक सोच में एक अवधारणात्मक परिवर्तन हुआ है. यह जानना कठिन है कि क्या भाजपा राजनीतिक मध्यमार्गियों को दक्षिणपंथ की ओर आकर्षित कर पाने में सफल रही या पार्टी महज बदलते राजनीतिक धरातल का फायदा उठा रही है.
भाजपा के सामाजिक आधार में परिवर्तन
दूसरे, जहां भाजपा नेतृत्व में ऊंची जाति का वर्चस्व बना रहा, धीरे-धीरे उसका सामाजिक आधार व्यापक हिंदू समाज को अधिकाधिक प्रतिबिंबित करने लगा.
कौन हैं ये नए बीजेपी वोटर? भाजपा के सामाजिक गठजोड़ में आए बदलावों को समझने के लिए, हमने नेशनल इलेक्शन स्टडीज (एनईएस) 2019 के तीन अलग-अलग सवालों का उपयोग किया. एनईएस में पूछा गया है कि इस चुनाव में और पिछले चुनाव (2014) में उत्तरदाता ने किसे वोट दिया था, और क्या वह खुद किसी पार्टी विशेष का पारंपरिक समर्थक मानता है. हमारे इस सवाल का जवाब देने वालों में से लगभग 13 प्रतिशत ने खुद को भाजपा का पारंपरिक मतदाता माना. इसके अलावा 22 प्रतिशत ने खुद को मोदी के उदय के बाद की भाजपा का समर्थक बताया और 11 प्रतिशत भाजपा के निवर्तमान समर्थक थे. (तालिका 2)
भाजपा के नए मतदाताओं के निचली जातियों के, ग्रामीण, कम शिक्षित और युवा होने की अधिक संभावना है (5 ए से 5 डी तक के आंकड़े ). 2019 में भाजपा के लिए पहली बार मतदान करने वाले मतदाताओं का स्वरूप भारतीय समाज को प्रतिबिंबित करता है, और इसका एकमात्र अपवाद हैं धार्मिक अल्पसंख्यक. अधिक नाटकीय बदलाव भाजपा का साथ देने वाले सामाजिक वर्गों की बदलती प्रकृति में देखने को मिला है. परंपरागत रूप से उच्च और मध्य वर्ग के लोग बड़ी संख्या में भाजपा का समर्थन करते रहे हैं. ये स्थिति 2014 में बदल गई जब भाजपा ने निम्न मध्य वर्ग के वोट जुटाए. वहीं 2019 में भाजपा के नए मतदाता ज्यादातर समाज के गरीब तबकों से आते हैं.
भाजपा के नए सामाजिक गठबंधन की एक और दिलचस्प विशेषता यह है कि पार्टी अपने वोटरों के बीच लैंगिक अंतर को मिटाने में कामयाब रही है. पहले, महिला मतदाताओं के बीच भाजपा की स्थिति कमजोर थी. भाजपा का सामाजिक आधार अब भारत के आयु पिरामिड को भी ज़्यादा बेहतर प्रतिबिंबित करता है.
वैचारिक सुदृढ़ीकरण और भाजपा का नया सामाजिक आधार
तीसरी बात, भारत एक बड़े जनसांख्यिकीय बदलाव से गुजर रहा है तथा भारत की राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था और सूचना परिवेश संबंधी बदलावों का चुनावों पर गंभीर प्रभाव देखने को मिल रहा है.
पहचान की राजनीति दो घटकों से निर्मित है– जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद और सकारात्मक कार्रवाई (या आरक्षण).
जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद सूचकांक इस भावना पर केंद्रित है कि बहुसंख्यकों की बात चलनी चाहिए, अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के तौर-तरीकों को अपनाना चाहिए और सरकार को दोनों वर्गों के साथ एकसमान व्यवहार करना चाहिए. हमने हिंदू राष्ट्रवाद के आकलन के लिए दो सवाल उठाए– क्या भारत मुख्यतया हिंदुओं का देश है, और क्या उत्तरदाता हिंदुओं को मुसलमानों की तुलना में अधिक राष्ट्रवादी मानता है.
हमने मोदी प्रभाव को मापने के लिए उत्तरदाता की भारत के अगले प्रधानमंत्री के लिए पसंद को इस सवाल से जोड़ा कि क्या प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के भाजपा की पसंद होने का उनके वोटिंग फैसले पर कोई असर पड़ा है. हमने आर्थिक और जाति संबंधी स्थितियों को मिलाकर हिंदू मतदाताओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का भी एक सूचकांक बनाया.
पहले मॉडल में, हमने भाजपा के वोटरों की तुलना उन मतदाताओं से की जिन्होंने कि भाजपा को वोट नहीं दिया हो. अपेक्षानुरूप, हमने पाया कि अल्पकालिक और दीर्घकालिक कारकों के मिश्रण से हम भाजपा के मतदाताओं को बाकियों से अलग कर सकते हैं. इन निष्कर्षों से एक नए तरह के बहुसंख्यकवाद के उदय का संकेत मिलता है (जिसकी स्वपरिभाषा अभी भी ‘हिंदू’ की हो सकती है), जो धार्मिक प्रथाओं और हिंदू राष्ट्रवाद के अधिक पारंपरिक विचारों से असंबद्ध है.
वास्तव में यहां मोदी प्रभाव दिखा है: प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले उत्तरदाताओं के भाजपा को वोट देने की अधिक संभावना थी. शहरी लोगों और उच्च सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाले उत्तरदाताओं के भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अधिक संभावना थी. यही स्थिति उनलोगों की भी थी जिनसे भाजपा ने संपर्क किया था, और जिनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ था. व्यापक अपेक्षाओं के विपरीत, सरकारी फायदों के वितरण का भाजपा के वोट पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा.
हालांकि भाजपा के परंपरागत मतदाताओं और 2014 एवं 2019 में भाजपा के पाले में आए वोटरों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है. तालिका 3 के कॉलम 2 में मोदी की अगुआई वाली भाजपा के वोटरों और खुद को भाजपा का परंपरागत समर्थक बताने वाले वोटरों के बीच अंतर को दर्शाया गया है. परिणाम चौंकाने वाले हैं. मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा का वोटर बने लोगों पर भाजपा के परंपरागत वोटरों के मुक़ाबले धार्मिकता का कम असर दिखता है. हालांकि हिंदू राष्ट्रवाद का नए और परंपरागत दोनों ही तरह के वोटरों पर एक जैसा प्रभाव दिखता है. पर आश्चर्यजनक रूप से भाजपा के नए वोटरों पर मोदी का कम असर है. भाजपा के नए वोटर के कम संपन्न होने, ग्रामीण पृष्ठभूमि का होने और सोशल मीडिया से अधिक संपर्क रखने की ज़्यादा संभावना है, जबकि उसके पुरुष वोटर होने की कम संभावना है.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने पर भाजपा का साथ छोड़ने और 2014 में भाजपा को वोट देने वालों के बीच अंतर पर गौर करने पर विचारधारा की भूमिका साफ नज़र आती है (तालिका 3, कॉलम 3). भाजपा को 2014 के बाद वोट नहीं देने वालों के जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद का समर्थन करने और नरेंद्र मोदी से प्रभावित होने की संभावना बहुत कम है, भले ही आर्थिक स्थिति जैसे अल्पकालिक कारक इसके पक्ष में हों, जैसे उनका सरकारी योजनाओं का फायदा उठाना और चुनाव अभियान के दौरान उनसे भाजपा का संपर्क करना.
इस मॉडल में अधिक वंचितों के बीच भाजपा की पैठ अधिक स्पष्ट दिखती है. पार्टी में मोदी के वर्चस्व के बाद भाजपा से मुंह मोड़ने वाले मतदाताओं के 2014 में भाजपा के साथ आने वाले वोटरों की तुलना में धार्मिक गतिविधियों में अधिक भागीदारी करने की संभावना है. यहां ये दिलचस्प बात है कि पिछले मॉडल में हमने देखा है कि मोदी के वर्चस्व के बाद भाजपा की तरफ आए मतदाताओं के पारंपरिक भाजपा मतदाताओं की तुलना में धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने की संभावना कम है. भाजपा के लिए चिंता की एक वजह दिखती है: जो लोग धर्म का अधिक उत्साह से पालन करते हैं उनके बीच पार्टी की लोकप्रियता पहले की तुलना में कमजोर पड़ रही है.
जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद और भाजपा का बढ़ता दायरा
पहले की तुलना में कहीं अधिक भारतीय अब शहरी इलाकों में रह रहे हैं. वर्ष 1991 में शहरी आबादी कुल आबादी की एक चौथाई थी जिसके 2021 में 40 प्रतिशत हो जाने की संभावना है. इसी तरह मध्य वर्ग की आबादी में गई गुना बढ़ोतरी हुई है. उत्तरदाताओं में से बड़ी संख्या में लोगों ने अपने पास अमूनन मध्य वर्ग से संबद्धता वाली वस्तुएं होने की बात स्वीकार की (तालिका 4).
खुद को मध्य वर्ग का हिस्सा बताने वाले भारतीयों की संख्या भी पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ी है. जैसे, लोकनीति-सीएसडीएस के 1996 के एक सर्वे में शामिल लोगों में से मात्र 30 प्रतिशत ने खुद को मध्य वर्ग का हिस्सा माना था, जबकि 62 प्रतिशत ने खुद को कामगार वर्ग में शामिल किया था. पर 2019 में ये अनुपात पूरी तरह बदल गया: सिर्फ 32 फीसदी ने खुद को कामगार वर्ग का बताया और 58 प्रतिशत ने स्वयं को मध्य वर्ग का हिस्सा बताया.
भारत के लोग अब पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित (चित्र 6) और मीडिया खास कर वेब समाचार प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया) के अधिक संपर्क में बताते हैं. जनसांख्यिकी संबंधी इन बदलावों ने ना सिर्फ भाजपा के वोटरों के भौगोलिक-सामाजिक दायरे में बदलाव किया है, बल्कि इससे भाजपा के वोटरों में पहचान की राजनीति (जाति-धर्म की पारंपरिक राजनीति) और राज्यवाद (सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सरकारी समाधान) से वैचारिक अलगाव का भी संकेत मिलता है.
क्या हिंदू मध्य वर्ग के विस्तार और जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद के बीच कोई संबंध है? अभी तक, इस बारे में हमारी समझ इस विचार पर आधारित है कि भारत में बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण की बुनियाद हिंदू राष्ट्रवादी भावनाओं (हिंदू धार्मिक प्रथाओं) में है. कुछ लोग ये कह सकते हैं कि दोनों ही बातों– जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद और हिंदू राष्ट्रवाद – में शायद समान बुनियादी धारणा अंतर्निहित है, पर आंकड़ों से इस दलील को चुनौती मिलती है. यह हमें इन अवधारणाओं के अनुभवजन्य सबूतों पर भी पुनर्विचार करने को बाध्य करता है.
एनईएस 2019 जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद को आमतौर पर ऊंची जाति की संवेदनाओं को परिलक्षित करने वाली हिंदू राष्ट्रवादी भावना से अलग देखने के लिए थोड़े प्रारंभिक साक्ष्य उपलब्ध कराता है. भले ही अतीत में इन वैचारिक श्रेणियों में परस्पर ओवरलैप हुआ हो (आमतौर पर हिंदुत्व के रूप में वर्णित), पर हिंदू समाज के निचले पायदान पर मौजूद समुदायों के ऊंची जातियों से जुड़ी हिंदुत्व की विचारधारा में सराबोर होने की संभावना कम ही है. तालिका-5 में प्रस्तुत आंकड़ों से जाहिर है कि धार्मिक प्रथाएं और हिंदू राष्ट्रवाद की पैठ जहां उच्च सामाजिक-आर्थिक दर्जे वालों में अधिक है, वहीं जातीय-राजनीतिक बहुसंख्यकवाद का सर्वाधिक प्रसार बीच की श्रेणी वालों में है. यह पैटर्न ना सिर्फ तमाम उत्तरदाताओं के संदर्भ में सही दिखता है, बल्कि यह भाजपा को वोट देने वालों और यहां तक कि भाजपा के नए वोटरों में भी प्रतिबिंबित होता है.
निष्कर्ष
भाजपा की 2019 की जीत सिर्फ चुनाव पूर्व के तात्कालिक संदर्भ के कारण ही नहीं हुई थी, बल्कि इसमें भारतीय राजनीति और समाज में जारी संरचनात्मक बदलावों की भूमिका थी. वास्तव में भाजपा की 2019 की सफलता नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता और विपक्ष के बिखराव से भी जुड़ी हुई है. लेकिन, हमारी दृष्टि से 2019 के चुनाव का असल निहितार्थ है भारत की भाजपा केंद्रित चतुर्थ पार्टी व्यवस्था अभी आगे लंबे समय तक जारी रहेगी.
भाजपा ने अपने भौगोलिक दायरे का विस्तार किया है और अपने सामाजिक गठबंधन को व्यापक बनाया है. हालांकि इसने अन्य दलों के नेताओं को अपने में समाहित किया है, लेकिन भाजपा ने अपने वैचारिक संदेशों की अधिक स्वीकार्यता, खासकर मध्य वर्ग के हिंदुओं के बीच, के कारण अपने प्रभाव का भी विस्तार किया है. भाजपा का नया सामाजिक गठबंधन नेतृत्व और नई कल्याणकारी योजनाओं जैसे लचीले कारकों की अपेक्षा संरचनात्मक बदलावों से अधिक प्रेरित है. इस प्रकार, जहां तक राष्ट्रीय चुनावों का सवाल है, ऐसा प्रतीत होता है कि यह गठबंधन भविष्य में लंबे काल तक प्रभावी बना रहेगा.
(प्रदीप छिब्बर यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कली में प्रोफेसर हैं. राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में अध्येता हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
(यह लेखक के संपादित पेपर ‘द राइज़ ऑफ द सेकेंड डोमिनेंट पार्टी सिस्टम इन इंडिया: बीजेपी न्यू सोशल कोलिशन इन 2019 का हिस्सा है जो सेज़ जर्नल्स में छप चुका है. पूरे पेपर को यहां पढ़ सकते हैं)
(लेखक के पेपर के हिस्से को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)