पिछले दिनों कर राजस्व के जो आंकड़े प्रकाशित हुए वे झटका देते हैं. वे तीन महीने पहले संसद में पेश किए गए 2018-19 के इन आंकड़ों में 1.6 खरब की कमी दर्शाते हैं. यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 0.8 प्रतिशत के बराबर है. इस कमी को अंतिम समय में खर्चों में कुछ कटौती करके रोका जा सकता था. वर्ष के अंत में ये खर्चे लगभग 60,000 करोड़ के बताए गए थे. इसे एकदम सही माना जाए तो साल के लिए वित्तीय घाटे का आंकड़ा जीडीपी के 3.4 प्रतिशत से बढ़कर 3.9 प्रतिशत पर पहुंच गया होता, जो कि पिछले दो वर्षों के स्तर से स्पष्ट गिरावट ही दर्शाता.
आंकड़े एक और लिहाज से सदमा देते हैं. केंद्र की राजस्व वृद्धि 6.2 प्रतिशत पर पहुंची है. बजट में राजस्व वृद्धि का अनुमान 19.5 प्रतिशत रखा गया था. इसलिए अगर यह इससे कम रहती है तो यह समझ में आने वाली बात है. ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि कुल संग्रह (राज्यों के हिस्सों समेत) में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो कि जीडीपी में 11.5 प्रतिशत की वृद्धि (मुद्रास्फीति समेत चालू कीमतों के आधार पर) से नीचे है. दूसरे शब्दों में, कर-जीडीपी अनुपात में बढ़ोतरी की प्रवृत्ति उलट गई है. गिरावट की कुछ वजह यह हो सकती है कि जीएसटी की दरों में लगातार कमी की गई. लेकिन संभावना यह भी है कि वास्तविक आर्थिक वृद्धि (मुद्रास्फीति का हिसाब करते हुए) 7 प्रतिशत के सरकारी दावे से कम हो.
सो, चालू वर्ष के लिए संभावनाएं निराशाजनक हैं. बजट के मुताबिक, 2019-20 में अनुमानित राजस्व वृद्धि 2018-19 के लिए अनुमानित इस आंकड़े का 14.9 प्रतिशत रह सकती है. वास्तविक राजस्व आधार जो उभरकर सामने आया है उसके मुताबिक, अगर नए बजट के अनुमानों को हासिल करना है तो कर उगाही में 29.1 प्रतिशत की वृद्धि जरूरी है. लेकिन यह असंभव है. इसलिए चुनाव के बाद बनने वाली सरकार को बजट फिर से तैयार करना पड़ेगा, आमदनी और खर्च के आंकड़ों में कटौती करनी होगी. तब बजट उपभोग में गिरावट के कारण आर्थिक मंदी को बेहतर प्रदर्शित कर पाएगा. चूंकि सरकार के ज़्यादातर खर्चे ब्याज भुगतान, सबसीडी, वेतन और पेंशन के मदों में होते हैं, पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी कटौती भौतिक बुनियादी ढांचे पर निवेश में की जाएगी, जो कि अब तक वृद्धि को गति देने वाला अहम कारण रहा है.
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जहां तक वृद्धि की संभावनाओं की बात है, कुछ मामलों में सुधार हुआ है- मसलन विश्व की आर्थिक स्थिति सुधरी है, अमेरिका-चीन के बीच व्यापार युद्ध के आसार घटे हैं. तेल की कीमतें चढ़ी हैं लेकिन ईरान से मिलने वाले तेल पर रोक को बेअसर करने के लिए कुछ तेल निर्यातक उत्पादन बढ़ा सकते हैं. देश में, मानसून सामान्य से कमजोर रह सकता है, उड्डयन और ऑटोमोबाइल जैसे प्रमुख क्षेत्र झटका झेल रहे हैं, तो टेलिकॉम में कीमतों में गिरावट जारी है, जबकि कंस्ट्रक्शन क्षेत्र सरकारी खर्चे पर निर्भर है. वित्त और कॉर्पोरेट क्षेत्र बुरे कर्जों और ऋण की अति के दोहरे संकट से गुजर चुके हैं, क्रेडिट ने गति पकड़ी है. लेकिन अभी भी काफी सफाई की जरूरत है. इसलिए व्यवस्थागत झटके अभी और लग सकते हैं. मुद्रा नीति ने वृद्धि को सहारा देने की कोशिश की है लेकिन रिजर्व बैंक ने दरों में जो कटौती की है उनका कोई असर लिक्विडिटी संकट से ग्रस्त बाज़ार पर नहीं दिखता. इसकी कई वजहें हैं, जिनमें सरकारी कर्ज़ का स्तर भी एक वजह है. वास्तविक ब्याज दरें ऊंची बनी हुई हैं.
चुनाव अभियान में कर्जमाफ़ी से लेकर नकद भुगतान और संभवत: ऊंची खाद्य सबसीडी के जो तमाम वादे किए जा रहे हैं, उन्हें उपरोक्त निरुत्साही हालात के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. जाहिर है, इस सबके लिए तो क्या, इनमें से एक के लिए भी वित्तीय गुंजाइश नहीं है. मुद्रा नीति की सीमाओं की जांच की जाती है तब वित्तीय स्थिति को सिकुड़ने की अवस्था में होना चाहिए, खासकर इसलिए कि घाटे के सरकारी आंकड़े बैलेंसशीट में दर्ज़ न हुए उधारों को छुपा लेते हैं. फिलहाल जो स्थिति है, जीडीपी के मुक़ाबले सरकारी कर्ज़ का अनुपात वांछित सीमा से ऊपर बना हुआ है.
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खतरा यह है कि अगली सरकार उलटा रास्ता पकड़ने के फेर में न पड़ जाए और संतुलित मुद्रास्फीति को देखते हुए महंगे चुनावी वादों को पूरा करने या आर्थिक वृद्धि के अवास्तविक लक्ष्यों के चक्कर में विस्तारवादी नीतियों को न अपना ले, जैसी नीतियां कथित तौर पर कुछ देशों में फिलहाल लागू की जा रही हैं.
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